परिमताल नगर में ’महाबल’ नाम का राजा था। उस नगर से थोड़ी दूर पर एक चोर पल्ली थी। गुफाओं और पर्वतों के बीच में आ जाने से वह स्थान अत्यधिक भयावह हो गया था। उस चोर पल्ली का मुखिया विजय चोर ५०० चोरों का स्वामी था। वह महा अधर्मी था। लोगों को लूटना और नृशंसता से गाँवों को जलाना आदि उसका प्रतिदिन का कार्य था। उसके पुत्र का नाम था अभग्गसेन, जो क्रूरता में अपने पिता से भी बहुत बढ़-चढ़कर था। ’अभग्गसेन’ पुरिमताल की प्रजा को बहुत पीड़ित कर रहा था। पुरिमतालवासियों ने अपने महाराज ’महाबल’ के सामने सारा दुखड़ा रोया । राजा न भी ’अभग्गसेन’ को पकड़ने के बहुत प्रयत्न किये, पर उसके सभी प्रयत्न निष्फल रहे । अन्त में राजा ने एक युक्ति निकाली। दस दिन का महोत्सव मनाने की घोषणा की और उसमें अभग्गसेन को भी अपने साथियों सहित आमंत्रित किया । राजा ने अवसर पाकर उन सबको मद्य और माँस खिलाकर बेभान बना दिया। यों बेहोशी में उन्हें पकड़ लिया और शहर में घुमाकर शूली पर चढ़ाने का दण्ड दे दिया।
उधर से भगवान् महावीर के प्रथम गणधर गौतम स्वामी भिक्षार्थ जा रहे थे । उसे यों वध-स्थल की ओर जाते हुए देखकर मन में खिन्न हुए। भगवान् महावीर के पास आकर उन्होंने पूछा- ’भंते ! इस अभग्गसेन चोर ने क्या पाप किए थे, जिसके कारण यह शूली पर लटकाया जा रहा है?’ प्रभु ने कहा’ गौतम ! पूर्वभव में यह इसी नगर में निन्हव नामक वणिक था । अण्डों का बहुत बड़ा व्यापारी था। अण्डों को सेंककर व तलकर खुद भी खाता और दूसरों को भी खिलाता था । एक हजार वर्ष की आयु पूर्ण कर उस क्रूर कर्म के कारण तीसरी नरक में गया । वहाँ से निकलकर यह अभग्गसेन चोर हुआ है यहाँ भी इसके घृणित कार्यों से राजा ने इसकी यह दशा की है। अधिक क्या ? आज तीसरे प्रहर में अपनी २७ वर्ष की आयु में मरकर यह प्रथम नरक में जायेगा । वहाँ से निकलकर अनेक भवों में भ्रमण करता हुआ अन्त में वाराणसी नगरी में एक सेठ के यहाँ जन्म लेगा और वहाँ संयम का पालन कर मोक्ष में जाएगा।’