उज्जयिनी नगरी का राजा जितशत्रु’ मल्लविद्या का बहुत ही प्रेमी था। उसने एक राजकीय मल्लशाला खोल रखी थी। उसमें अनेक मल्ल रहते थे। उनका सरदार अट्टणमल्ल था।

राजा जितशत्रु के समान ही ’सोपारक’ नगर का शासक ’सिंहगिरि’ भी मल्लयुद्ध का बहुत प्रेमी था। वह भी अनेक मल्लों को पालता था और प्रतिवर्ष मल्ल-महोत्सव कराता था, जिसमें दूर-दूर के मल्लों को आमंत्रित किया जाता था। उसमें सम्मिलित होने वाले मल्ल अपनी-अपनी कला का प्रदर्शन करते। विजयी मल्ल को राजा सिंहगिरि ढेर सारा सोना-चाँदी आदि देकर पुरस्कृत करता और उसे एक विजय-पताका भी देता, जो उसके विजेता होने का गौरवप्रतीक होती। इस मल्ल-महोत्सव में उज्जयिनी का अट्टणमल्ल ही बाजी मार ले जाता।

 

राजा सिंहगिरि ने सोचा- क्या मेरे राज्य में ऐसा को‌ई मल्ल नहीं हो सकता जो अट्टण को पराजित करके विजय-पताका प्राप्त कर सके? किसी दूसरे देश का मल्ल प्रतिवर्ष बाजी मार ले जाये, इसमें तो मेरे देश का गौरव कम हो जाता । अब वह ऐसे व्यक्ति की तलाश में रहने लगा जिसे मल्ल बनाया जा सके । एक बार वह नदी तट पर टहल रहा था । वहाँ उसे एक हृष्ट-पुष्ट मछु‌आ दिखा‌ई दिया । उसे वह जँच गया। उसने उसे अपनी मल्लशाला में रख लिया । दूध-दही आदि पौष्टिक पदार्थों के सेवन तथा व्यायाम से वह अच्छा मल्ल बन गया। उसका नाम रखा गया मच्छियमल्ल ।

 

अगले वर्ष के मल्ल-महोत्सव में मच्छियमल्ल ने अट्टणमल्ल को पराजित कर दिया। अपनी हार से अट्टणमल्ल बड़ा दुःखी हु‌आ । उसने सोचा-अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ। को‌ई युवा मल्ल बनाना चाहि‌ए जो मेरे गौरव की रक्षा कर सके । इसी उधेड़बुन में वह उज्जयिनी वापस जा रहा था, तभी मार्ग में सौराष्ट्र देश का ’दुरुल्लकुतिया’ नाम का गाँव पड़ा। उसने देखा कि एक हृष्ट-पुष्ट नवयुवक किसान अपने एक हाथ में हल और दूसरे में फलिह लिये चला जा रहा है। उसे वह जँच गया। उसने उससे बातचीत की। युवक किसान मल्ल बनने को राजी हो गया। अट्टणमल्ल ने उस किसान की पत्नी को धन आदि देकर उसके घर की व्यवस्था की और युवा किसान को अपने साथ ले आया । उज्जयिनी आकर उसने इसे नये मल्ल को तैयार किया और नाम रखा फलिहमल्ल, फलिहमल्ल साल-भर में मल्ल-विद्या के सभी दाव पेंच सीखकर कुशल मल्ल बन गया ।

 

अगले वर्ष पुनः सोपारक नगर में मल्ल - महोत्सव हु‌आ। अट्टणमल्ल अपने नये शिष्य फलिहमल्ल के साथ पहुँचा । मच्छियमल्ल भी राजकीय सम्मान के साथ आया । मच्छियमल्ल और फलिहमल्ल की कुश्ती शुरू हु‌ई, दोनों ने अनेक प्रकार के दाव पेंच दिखाये। सुबह से शाम तक दोनों में से को‌ई नहीं हारा। दूसरे दिन फिर कुश्ती होने का निर्णय हु‌आ ।

रात के समय अट्टण ने फलिह से पूछा - ’ बेटा ! तेरे शरीर में कहीं दर्द हो तो बता दे।’ फलिह ने भी कुछ न छिपाकर अपने गुरु को सरल भाव से साफ-साफ बता दिया। अट्टण ने सहस्रपाक आदि तेलों की मालिश करके उसे पुन: तरोताजा बना दिया।

उधर मच्छियमल्ल से भी राजा ने पूछा’ तेरा शरीर कहीं दुखता हो तो बता दे ?’ लेकिन मच्छियमल्ल ने अभिमान में भरकर कह दिया कि ’मेरा शरीर बिल्कुल भी नहीं दुखता। मुझे मालिश की को‌ई जरूरत नहीं है ।’

दूसरे दिन फिर फलिहमल्ल और मच्छियमल्ल की कुश्ती हु‌ई। फलिहमल्ल तो तरोताजा बन चुका था, लेकिन मच्छियमल्ल का शरीर जगह-जगह से दुख रहा था। उसका सारा शरीर दर्द के कारण सुस्त हो रहा था । फलिहमल्ल ने शीघ्र ही उसे परास्त कर दिया ।

परिणामस्वरूप फलिहमल्ल को राजा सिंहगिरि ने भी खूब इनाम दिया और विजय-पताका भी दी। जब वह विजयी होकर उज्जयिनी पहुँचा तो वहाँ भी राजा प्रजा ने उसका खूब सम्मान किया ।

इसी प्रकार सरल चित्त से जो अपने दोषों को न छिपाकर गुरु को साफसाफ बता देते हैं, वे लौकिक और पारलौकिक दोनों क्षेत्रों में सफल होते हैं, जैसे फलिहमल्ल हु‌आ ।