अंजना महेन्द्रपुर के महाराज महेन्द्र की पुत्री थी। इसकी माता का नाम हृदयसुन्दरी था। महाराज महेन्द्र के प्रश्नकीर्ति आदि सौ पुत्र तथा एक पुत्री राजकुमारी अंजना थी। जब रूपवती अंजना के विवाह का प्रसंग आया, तब मन्त्री ने राजा से कहा-राजन्‌ ! राजकुमारी के लि‌ए बहुत खोज करने पर दो राजकुमार ही समुचित जँचे हैं। एक हैं हिरण्याभ राजा के पुत्र विद्युत्‌प्रभ तथा दूसरे हैं विद्याधर महाराज प्रह्लाद के पुत्र पवनंजय । दोनों में अन्तर यह है कि जहाँ विद्युत्‌प्रभ की आयु केवल अठारह वर्ष की ही शेष है, वह चरमशरीरी भी हैं; वहाँ पवनंजय दीर्घजीवी हैं। 

 

राजा ने दीर्घजीवी और सुयोग्य समझकर पवनंजय के साथ राजकुमारी का सम्बन्ध कर दिया। यथासमय पवनंजय की बारात लेकर महाराज प्रह्लाद वहाँ आ पहुँचे। विवाह में केवल तीन दिन की देरी थी कि एक दिन पवनंजय के मन में अपनी भावी पत्नी को देखने की उत्सुकता जागी। बस, फिर क्या था, अपने मित्र प्रहसित को लेकर अंजना के राजमहलों के पास पहुँचकर दीवार की ओट में छिपकर अंजना को देखने लगे। 

 

उस समय अंजना अपनी सखियों से घिरी बेठी थी। सखियाँ भी अंजना के सामने उसके भावी पति की ही चर्चा कर रही थीं। चर्चा में जब एक सखी पवनंजय की सराहना कर रही थी तो दूसरी विद्युत्‌प्रभ की प्रशंसा कर रही थी। उस समय अंजना के मुँह से सहसा निकला--विद्युतप्रभ को धन्य है जो भोगों को त्यागकर मोक्ष प्राप्त करेगा । अंजना के ये शब्द पवनंजय के कानों में काँटे से चुभे सोचा--हो न हो, यह विद्युत्‌प्रभ के प्रति आकर्षित है, अन्यथा मेरी अवगणना करके उसकी सराहना क्‍यों करती? एक बार तो मन में आया कि इसका अभी परित्याग कर दूँ, पर दूसरे ही क्षण सोचा अभी इसे छोड़कर चला जा‌ऊँगा तो इससे मेरे पिता का वचन भंग होगा, मेरे कुल का अपयश होगा। अच्छा यह रहेगा कि शादी करके मैं इसका परित्याग कर दूँ। यही सोचकर अपने निर्णय को मन ही मन समेटे अंजना से विवाह करके अपने नगर में आ गया, पर अंजना के महलों में पवनंजय ने पैर भी नहीं रखा। पति की पराड़मुखता से अंजना का व्यथित होना स्वाभाविक ही था, पर वह पवनंजय के रूठने का कारण समझ नहीं पा रही थी। वह सोचती मेरी ओर से को‌ई त्रुटि हो ग‌ई हो, ऐसा मुझे लगता तो नहीं है। वह बहुत सोचती, किन्तु पति की नाराजगी का को‌ई कारण उसकी समझ में न आता। 

 

एक बार अंजना के पिता के यहाँ से जेवर, मिष्ठान्न और राजसी पोशाक पवनंजय के लि‌ए आये। अंजना ने वह सामग्री पवनंजय के पास दासी के हाथ भेजी पवनंजय देखकर आग बबूला हो उठा। कुछ वस्तु‌एं नष्ट कर दीं और कुछ वस्तु‌एं चाण्डालों को देकर अंजना के प्रति आक्रोश प्रदर्शित किया दासी ने जब आकर सारी बात अंजना से कही, तब उसके दुःख का पार नहीं रहा। अपने भाग्य को दोष देती हु‌ई और पति के प्रति शुभकामना व्यक्त करती हु‌ई वह समय बिताने लगी। यों बारह वर्ष पूरे हो गये। एक बार लंकेश्वर रावण ने राजा प्रह्लाद से कहलाया कि इन दिनों वरुण काफी उद्दण्ड हो गया है, उस पर काबू पाना है, अत: आप सेना लेकर वहाँ जा‌इये। प्रह्लाद जब जाने लगे तब अपने पिता को रोककर पवनंजय स्वयं युद्ध में जाने के लि‌ए तैयार हु‌ए। माता पिता को प्रणाम कर जाने लगे, परन्तु विदा लेने अंजना के महलों में फिर भी नहीं आये। व्यथित हृदय अंजना पति को समरांगण में जाते समय शकुन देने के लि‌ए हाथ में दही से भरा स्वर्ण कटोरा लिये द्वार के पास एक ओर खड़ी हो ग‌ई। पवनंजय ने जब उसे देखा तब उससे न रहा गया। सभी तरह से अपमानित करता हु‌आ बुदबुदाया- अभी कुलटा ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा है ऐसे समय में भी अपशकुन करने चली आयी अंजना आँखों में आँसू बहाती हु‌ई महलों में चली ग‌ई, फिर भी पति के प्रति उसने को‌ई अनिष्ट कामना नहीं की, केवल अपने भाग्य को ही दोष देती रही। 

 

पवनंजय वहाँ से आगे चले। मार्ग में एक वृक्ष के नीचे रात्रि विश्राम किया। अधिक तनाव होने से रात का पहला प्रहर बीतने पर भी नींद नहीं आ रही थी। लेटे लेटे करवटें बदलते रहे। उस समय एक चकवा चकवी का जोड़ा अलग-अलग टहनियों पर आ बैठा था। चकवी अपने साथी के वियोग में बुरी तरह करुण क्रन्दन कर रही थी। उसक दिल बहलाने वाला आक्रन्दन सुनकर पवनंजय के दिल में उथल-पुथल मच गयी। चिंतन ने मोड़ लिया। सोचा--एक रात के प्रिय वियोग में ही इस चकवी की यह दशा है तो उस बेचारी अंजना पर क्‍या बीतती होगी, जिस निरपराध का बारह वर्षों से मैंने बिल्कुल बहिष्कार कर रखा है? मेरा मुँह भी उसने पूर्णत: नहीं देखा है। अतः मुझे उससे मिलना चाहि‌ए। पवनंजय ने अपने मित्र प्रहसित से सारी मनोव्यथा कही । मित्र ने भी उसकी पवित्रता में को‌ई सन्देह नहीं करने को कहा तथा यह भी कहा, इतना निरादर सहकर भी आपके प्रति कल्याण कामना लिये शकुन देने आयी, इससे अधिक और उसके सतीत्व का क्या प्रमाण होगा? मित्र को साथ लेकर पवनंजय छावनी से विद्या बल द्वारा आकाशमार्ग से चल पड़े और अंजना के महलों में एक प्रहर में ही पहुँच गये। अंजना उन्हें देखते ही हर्षित हो ग‌ई । वह खुशी के आँसू बहाने लगी। पवनंजय ने अतीत को भूल जाने के लि‌ए कहा। शेष रात्रि महलो में रहकर पवनंजय प्रात:काल छावनी में जाते समय अपने हाथ की अंगूठी निशानी के रूप में देकर चले गये। 

 

सात महीने युद्ध में लग गये, पवनंजय वापस नहीं आये । पीछे से अंजना को गर्भवती देखकर उसकी सास केतुमती आग बबूला हो उठी। उसे व्यभिचारिणी करार दे दिया गया। अंजना ने बहुत विनम्रता से सारी बात कही, पर माने कौन? प्रह्लाद ने देश निष्कासन का आदेश दे डाला । पवनंजय जब तक नहीं आ जाये, तब तक अंजना ने वहीं रखने को कहा, परन्तु उसकी इस प्रार्थना को भी स्वीकार नहीं किया गया। काले कपड़े पहनाकर काले रथ में बिठलाकर केतुमती ने अंजना को उसके पीहर महेन्द्रपुर की ओर वन में छोड़ आने के लि‌ए सारथी को आदेश दे दिया। सारथी भी उसे जंगल में छोड़ आया। 

 

अंजना महेन्द्रपुर की ओर चली। रास्ते में शुभ संयोग से एक महामुनि के दर्शन हु‌ए। मुनि ने धैर्य रखने की प्रेरणा दी। अंजना अपनी सखी तुल्य दासी ‘वसंततिलका’ को लेकर पीहर की ओर बढ़ी । कष्ट के समय पीहर में आश्रय पाने में अंजना संकोच कर रही थी, पर वसंततिलका के आग्रह से वहाँ पहुँची । काले वस्त्रों में अंजना को देखकर माता पिता, भा‌ई भौजा‌इयाँ, यहाँ तक कि नगर निवासी भी उसे रखना तो दूर, पानी पिलाने को भी तैयार नहीं हु‌ए। दिन कहकर थोडे ही बदलते हैं। सभी ने इस निर्णय पर अपने आप को अटल रखा कि ऐसी व्यभिचारिणी से हमारा क्या सम्बन्ध है। इसका तो मुँह भी नहीं देखना चाहि‌ए। उसे वहाँ भी आश्रय नहीं मिला।

 

अंजना अपने कृतकर्मों को दोष देती हु‌ई अपनी सखी के साथ जंगल में जा पहुँची। वहाँ एक गुफा का आश्रय लेकर धर्मध्यान में अपने दिन बिताने लगी। गुफा में ही अंजना ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। पुत्र का जन्म होते ही सारी स्थितियों ने मोड लिया। हनुपुर का स्वामी राजा प्रतिसूर्य, जो अंजना का मामा था, संयोगवश वहाँ आ पहुँचा। अंजना को विमान में बिठाकर अपने नगर में ले आया। अंजना के पुत्र का नाम रखा हनुमान । बारह महीनों तक पवनंजय और वरुण का युद्ध चलता रहा। वरुण को परास्त कर विजय दुन्दुभि बजाते हु‌ए पवनंजय अपने नगर में आये। माता-पिता से मिले, परंतु अंजना को नहीं देखकर बात का भेद जानना चाहा। बात का भेद जानने पर पवनंजय को भारी अनुताप हु‌आ। उन्होंने अंजना के न मिलने तक कुछ भी नहीं खाने पीने की प्रतिज्ञा की। चारों ओर अंजना का पता लगाने के लि‌ए लोग दौडे। अंत में हनुपुर नगर से धूमधाम के साथ अंजना को आदित्यपुर नगर में ले आये। सास-ससुर आदि सबने अपने किये हु‌ए कार्य पर अनुताप किया। हनुमान को देखकर सभी पुलकित हो उठे। प्रह्लाद की मृत्यु के बाद पवनंजय महाराज ने अतुल राज्य वैभव का उपभोग किया तथा अंत में दोनों ने दीक्षा ली और स्वर्गगामी बने। 

 

त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र, पर्व ७