कल्पों में विमान सात – सात सौ योजन ऊंचे

चन्द्रप्रभ अर्हत्‌ डेढ़ सौ धनुष ऊंचे थे। आरण कल्प में डेढ़ सौ विमानावास कहे गए हैं। अच्युत कल्प भी डेढ़ सौ विमानावास वाला कहा गया है। सुपार्श्व अर्हत्‌ दो सौ धनुष ऊंचे थे। सभी महाहिमवन्त और रुक्मी वर्षधर पर्वत दो – दो सौ योजन ऊंचे हैं और वे सभी दो – दो गव्यूति उद्वेध वाले हैं इस जम्बूद्वीप में दो सौ कांचनक पर्वत कहे गए हैं। पद्मप्रभ अर्हत्‌ अढ़ाई सौ धनुष ऊंचे थे। असुरकुमार देवों के प्रासादावतंसक अढ़ाई सौ योजन ऊंचे कहे गए हैं। सुमति अर्हत्‌ तीन सौ धनुष ऊंचे थे। अरिष्टनेमि अर्हत्‌ तीनसौ वर्ष कुमारवास में रहकर मुण्डित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए। वैमानिक देवों के विमान – प्राकार तीन – तीन सौ योजन ऊंचे हैं। श्रमण भगवान महावीर के संघ में तीन सौ चतुर्दशपूर्वी मुनि थे। पाँच सौ धनुष की अवगाहना वाले चरमशरीरी सिद्धि को प्राप्त पुरुषों (सिद्धों) के जीवप्रदेशों की अवगाहना कुछ अधिक तीन सौ धनुष की होती है। पुरुषादानीय पार्श्व अर्हन्‌ के साढ़े तीन सौ चतुर्दशपूर्वीयों की सम्पदा थी। अभिनन्दन अर्हन्‌ साढ़े तीन सौ धनुष ऊंचे थे। संभव अर्हत्‌ चार सौ धनुष ऊंचे थे। सभी निषध और नीलवन्त वर्षधर पर्वत चार – चार सौ योजन ऊंचे तथा वे चार – चार सौ गव्यूति उद्वेध (गहराई) वाले हैं। सभी वक्षार पर्वत निषध और नीलवन्त वर्षधर पर्वतों के समीप चार – चार सौ योजन ऊंचे और चार – चार सौ गव्यूति उद्वेध वाले कहे गए हैं। आनत और प्राणत इन दो कल्पों में दोनों के मिलाकर चार सौ विमान कहे गए हैं। श्रमण भगवान महावीर के चार सौ अपराजित वादियों की उत्कृष्ट वादिसम्पदा थी। वे वादी देव, मनुष्य और असुरों में से किसी से भी वाद में पराजित होने वाले नहीं थे। अजित अर्हन्‌ साढ़े चार सौ धनुष ऊंचे थे। चातुरन्त चक्रवर्ती सगर राजा साढ़े चार सौ धनुष ऊंचे थे।

 

सभी वक्षार पर्वत सीता – सीतोदा महानदियों के और मन्दर पर्वत के समीप पाँच – पाँच सौ योजन ऊंचे और पाँच – पाँच सौ गव्यूति उद्वेध वाले कहे गए हैं। सभी वर्षधर कूट पाँच – पाँच सौ योजन ऊंचे और मूल में पाँच – पाँच सौ योजन विष्कम्भ वाले कहे गए हैं। कौशलिक ऋषभ अर्हत्‌ पाँच सौ धनुष ऊंचे थे। चातुरन्त चक्रवर्ती राजा भरत पाँच सौ धनुष ऊंचे थे। सौमनस, गन्धमादन, विद्युत्प्रभ और मालवन्त ये चारों वक्षार पर्वत मन्दर पर्वत के समीप पाँच – पाँच सौ योजन ऊंचे और पाँच – पाँच सौ गव्यूति उद्वेध वाले हैं। हरि और हरिस्सह कूट को छोड़कर शेष सभी वक्षार पर्वत – कूट पाँच – पाँच सौ योजन ऊंचे और मूल में पाँच – पाँच सौ योजन आयाम – विष्कम्भ वाले कहे गए हैं। बलकूट को छोड़कर सभी नन्दनवन के कूट पाँच – पाँच सौ योजन ऊंचे और मूल में पाँच – पाँच सौ योजन आयाम – विष्कम्भ वाले कहे गए हैं। सौधर्म और ईशान दोनों कल्पों में सभी विमान पाँच – पाँच सौ योजन ऊंचे हैं।

 

सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों में विमान छह सौ योजन ऊंचे कहे गए हैं। क्षुल्लक हिमवन्त कूट के उपरिम चरमान्त से क्षुल्लक हिमवन्त वर्षधर पर्वत का समधरणीतल छह सौ योजन अन्तर वाला है। इसी प्रकार शिखरी कूट का भी अन्तर जानना चाहिए। पार्श्व अर्हत्‌ के छह सौ अपराजित वादियों की उत्कृष्ट वादिसम्पदा थी जो देव, मनुष्य और असुरों में से किसी से भी वाद में पराजित होने वाले नहीं थे। अभिचन्द्र कुलकर छह सौ धनुष ऊंचे थे। वासुपूज्य अर्हत्‌ छह सौ पुरुषों के साथ मुण्डित होकर अनगा से अनगारिता में प्रव्रजित हुए थे।

 

ब्रह्म और लान्तक इन दो कल्पों में विमान सात – सात सौ योजन ऊंचे हैं। श्रमण भगवान महावीर के संघ में सात सौ वैक्रिय लब्धिधारी साधु थे। अरिष्टनेमि अर्हत्‌ कुछ कम सात सौ वर्ष केवलिपर्याय में रहकर सिद्ध, बुद्ध, कर्ममुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। महाहिमवन्त कूट के ऊपरी चरमान्त भाग से महाहिमवन्त वर्षधर पर्वत का समधरणी तल सात सौ योजन अन्तर वाला कहा गया है। इसी प्रकार रुक्मी कूट का भी अन्तर जानना चाहिए।

 

महाशुक्र और सहस्रार इन दो कल्पों में विमान आठ सौ योजन ऊंचे हैं। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम कांड के मध्यवर्ती आठ सौ योजनों में वानव्यवहार भौमेयक देवों के विहार कहे गए हैं। श्रमण भगवान महावीर के कल्याणमय गति और स्थिति वाले तथा भविष्य में मुक्ति प्राप्त करने वाले अनु – त्तरीपपातिक मुनियों की उत्कृष्ट सम्पदा आठ सौ थी। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से आठ सौ योजन की ऊंचाई पर सूर्य परिभ्रमण करता है अरिष्टनेमि अर्हत्‌ के अपराजित वादियों की उत्कृष्ट वादिसम्पदा आठ सौ थी, जो देव, मनुष्य और असुरों में से किसी से भी वाद में पराजित होने वाले नहीं थे।