छह लेश्याएं कही गई हैं

छह लेश्याएं कही गई हैं। जैसे – कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजो लेश्या, पद्म लेश्या, शुक्ल लेश्या। (संसारी) जीवों के छह निकाय कहे गए हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। छह प्रकार के बाहिरी तपःकर्म हैं। अनशन, ऊनोदर्य, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, कायक्लेश और संलीनता। छह प्रकार के आभ्यन्तर तप हैं। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग। छह छाद्मस्थिक समुद्‌घात कहे गए हैं। जैसे – वेदना समुद्‌घात कषाय समुद्‌घात, मारणान्तिक समुद्‌घात, वैक्रिय समुद्‌घात, तैजस समुद्‌घात और आहारक – समुद्‌घात। अर्थावग्रह छह प्रकार का कहा गया है। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय – अर्थावग्रह, चक्षुरिन्द्रिय – अर्थावग्रह, घ्राणेन्द्रिय – अर्थावग्रह, जिह्वेन्द्रिय – अर्थावग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय – अर्थावग्रह और नोइन्द्रिय – अर्थावग्रह। कृत्तिका नक्षत्र छह तारा वाला है। आश्लेषा नक्षत्र तारा वाला है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति छह पल्योपम कही गई है। तीसरी वालुकाप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति छह सागरोपम कही गई है। कितनेक असुर कुमारों की स्थिति छह पल्योपम कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितने देवों की स्थिति छह पल्योपम कही गई है। सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति छह सागरोपम है। उनमें जो देव स्वयम्भू, स्वयम्भूरमण, घोष, सुघोष, महाघोष, कृष्टिघो, वीर, सुवीर, वीरगत, वीर – श्रेणिक, वीरावर्त, वीरप्रभ, वीरकांत, वीरवर्ण, वीरलेश्य, वीरध्वज, वीरशृंग, वीरसृष्ट, वीरकूट और वीरोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति छह सागरोपम कही गई है। वे देव तीन मासों के बाद आन – प्राण या उच्छ्‌वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों के छह हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो छह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।

 

सात भयस्थान कहे गए हैं। जैसे – इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मात्‌ भय, आजीवभय, मरणभय और अश्लोकभय। सात समुद्‌घात कहे गए हैं, जैसे – वेदनासमुद्‌घात, कषायसमुद्‌घात, मारणान्तिक – समुद्‌घात, वैक्रिय समुद्‌घात, आहारक समुद्‌घात और केवलिसमुद्‌घात। श्रमण भगवान महावीर सात रत्नि – हाथ प्रमाण शरीर से ऊंचे थे। इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सात वर्षधर पर्वत कहे गए हैं। जैसे – क्षुल्लहिमवंत, महाहिमवंत, निषध, नीलवंत, रूक्मी, शिखरी और मन्दर। इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सात क्षेत्र हैं। जैसे – भरत, हैमवत, हरिवर्ष, महाविदेह, रम्यक्‌, ऐरण्यवत और ऐरवत। बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीणमोह वीतराग मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का वेदन करते हैं। मघा नक्षत्र सात तारा वाला कहा गया है। कृत्तिका आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा की और द्वार वाले कहे गए हैं पाठान्तर के अनुसार – अभिजित्‌ आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा की और द्वार वाले कहे गए हैं। मघा आदि सात नक्षत्र दक्षिण दिशा की ओर द्वार वाले कहे गए हैं। अनुराधा आदि सात नक्षत्र पश्चिम दिशा की ओर द्वार वाले कहे गए हैं। धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र उत्तर दिशा की ओर द्वार वाले कहे गए हैं। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकियों की स्थिति सात पल्योपम कही गई है। तीसरी वालुकाप्रभा पृथ्वी में नारयिकों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम कही गई है। चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में नारकियों की जघन्य स्थिति सात सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति सात पल्योपम कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति सात पल्योपम कही गई है। सनत्कुमार कल्प में कितनेक देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम कही गई है। माहेन्द्र कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक सात सागरोपम कही गई है। ब्रह्मलोक में कितनेक देवों की स्थिति कुछ अधिक सात सागरोपम है। उनमें जो देव सम, समप्रभ, महाप्रभ, प्रभास, भासुर, विमल, कांचनकूट और सनत्कुमारावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम है। वे देव साढ़े तीन मासों के बाद आण – प्राण – उच्छ्‌वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों की सात हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सात भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।

 

आठ मदस्थान कहे गए हैं। जैसे – जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपोमद, श्रुतमद, लाभमद और ऐश्वर्यमद। आठ प्रवचन – माताएं कही गई हैं। जैसे – ईयासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान – भाण्ड – मात्र निक्षेपणासमिति, उच्चार – प्रस्रवण – खेल सिंधारण – परिष्ठापनासमिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति। वाणव्यन्तर देवों के चैत्यवृक्ष आठ योजन ऊंचे कहे गए हैं। (उत्तरकुरु में स्थित पार्थिव) जम्बूनामक सुदर्शन वृक्ष आठ योजन ऊंचा कहा गया है। (देवकुरु में स्थित) गरुड़ देव का आवासभूत पार्थिव कूटशाल्मली वृक्ष आठ योजन ऊंचा कहा गया है। जम्बूद्वीप की जगती (प्राकार के सामान वाली) आठ योजन ऊंची कही गई है। केवलि समुद्‌घात आठ समय वाला कहा गया है, जैसे – केवलि भगवान प्रथम समय में दण्ड समुद्‌घात करते हैं, दूसरे समय में कपाट समुद्‌घात करते हैं, तीसरे समय में मन्थान समुद्‌घात करते हैं, चौथे समय में मन्थान के अन्तरालों को पूरते हैं, अर्थात्‌ लोकपूरण समुद्‌घात करते हैं। पाँचवे समय में मन्थान के अन्तराल से आत्म – प्रदेशों का प्रतिसंहार (संकोच) करते हैं, छठे समय में मन्थानसमुद्‌घात का प्रतिसंहार करते हैं, सातवे समय में कपाट समुद्‌घात का प्रतिसंहार करते हैं और आठवे समय में दण्डसमुद्‌घात का प्रतिसंहार करते हैं। तत्पश्चात्‌ उनके आत्मप्रदेश शरीरप्रमाण हो जाते हैं। पुरुषादानीय अर्थात्‌ पुरुषों के द्वारा जिनका नाम आज भी श्रद्धा और आदर – पूर्वक स्मरण किया जाता है, ऐसे पार्श्वनाथ तीर्थंकर देव के आठ गण और आठ गणधर थे। यथा – शुभ, शुभघोष, वशिष्ठ, ब्रह्मचारी, सोम, श्रीधर, वीरभद्र और यश।

 

आठ नक्षत्र चन्द्रमा के साथ प्रमर्द योग करते हैं। जैसे – कृत्तिका १, रोहिणी २, पुनर्वसु ३, मघा ४, चित्रा ५, विशाखा ६, अनुराधा ७ और ज्येष्ठा ८। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति आठ पल्योपम की कही गई है। चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति आठ सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति आठ पल्योपम कही है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति आठ पल्योपम कही गई है। ब्रह्मलोक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति आठ सागरोपम कही गई है। वहाँ जो देव अर्चि १, अर्चिमाली २, वैरोचन ३, प्रभंकर ४, चन्द्राभ ५, सूराभ ६, सुप्रतिष्ठाभ ७, अग्नि – अर्च्याभ ८, रिष्टाभ ९, अरुणाभ १०, और अनुत्तरावतंसक ११, नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति आठ सागरोपम कही गई है। वे देव आठ अर्धमासों (पखवाड़ों) के बाद आन – प्राण या उच्छ्‌वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों के आठ हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव आठ भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।