पापश्रुतप्रसंग – पापों के उपार्जन करने वाले शास्त्रों का श्रवण – सेवन उनतीस प्रकार का है। जैसे – भौमश्रुत, उत्पातश्रुत, स्वप्नश्रुत, अन्तरिक्षश्रुत, अंगश्रुत, स्वरश्रुत, व्यंजनश्रुत, लक्षणश्रुत। भौमश्रुत तीन प्रकार का है, जैसे – सूत्र, वृत्ति और वार्तिक। इन तीन भेदों से उपर्युक्त भौम, उत्पात आदि आठों प्रकार के श्रुत के चौबीस भेद होते हैं। विकथानुयोगश्रुत, विद्यानुयोगश्रुत, मंत्रानुयोगश्रुत, योगानुयोगश्रुत और अन्यतीर्थिकप्रवृत्तानुयोग। आषाढ़ मास रात्रि – दिन की गणना की अपेक्षा उनतीस रात – दिन का कहा गया है। (इसी प्रकार) भाद्रपद – मास, कार्तिक मास, पौष मास, फाल्गुन मास और वैशाख मास भी उनतीस – उतनीस रात – दिन के कहे गए हैं। चन्द्र दिन मुहूर्त्त गणना की अपेक्षा कुछ अधिक उनतीस मुहूर्त्त का कहा गया है। प्रशस्त अध्यवसान (परिणाम) से युक्त सम्यग्दृष्टि भव्य जीव तीर्थंकरनाम – सहित नामकर्म की उनतीस प्रकृतियों को बाँधकर नियम से वैमानिक देवों में देवरूप से उत्पन्न होता है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति उनतीस पल्योपम की है। अधस्तन सातवी पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति उनतीस सागरोपम की है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति उनतीस पल्योपम की है सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति उनतीस पल्योपम है। उपरिम – मध्यमग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति उनतीस सागरोपम है। जो देव उपरिम – अधस्तनग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति उनतीस सागरोपम है। वे देव उनतीस अर्धमासों के बाद आन – प्राण या उच्छ्वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों के उनतीस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो उनतीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
मोहनीय कर्म बंधने के कारणभूत तीस स्थान कहे गए हैं। जैसे – जो कोई व्यक्ति स्त्री – पशु आदि त्रस – प्राणियों को जल के भीतर प्रविष्ट कर और पैरों के नीचे दबाकर जल के द्वारा उन्हें मारता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। जो व्यक्ति किसी मनुष्य आदि के शिर को गीले चर्म से वेष्टित करता है, तथा निरन्तर तीव्र अशुभ पापमय कार्यों को करता रहता है, वह महामोहनीय कर्म बाँधता है। जो कोई किसी प्राणी के सुख को हाथ से बन्द कर उसका गला दबाकर धुरधुराते हुए उसे मारता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो कोई अग्नि को जलाकर, या अग्नि का महान आरम्भ कर किसी मनुष्य – पशु आदि को उसमें जलाता है या अत्यन्त धूमयुक्त अग्निस्थान में प्रविष्ट कर धूएं से उसका दम घोंटता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो किसी प्राणी के उत्तमाङ्ग – शिर पर मुद्गर आदि से प्रहार करता है अथवा अति संक्लेश युक्त चित्त से उसके माथे को फरसा आदि से काटकर मार डालता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो कपट करके किसी मनुष्य का घात करता है और आनन्द से हँसता है, किसी मंत्रित फल को खिलाकर अथवा डंडे से मारता है, वह महामोहनीय कर्म बाँधता है। जो गूढ (गुप्त) पापाचरण करने वाला मायाचार से अपनी माया को छिपाता है, असत्य बोलता है और सूत्रार्थ का अपलाप करता है, वह महामोहनीय कर्म बाँधता है। जो अपने किये ऋषिघात आदि घोर दुष्कर्म को दूसरे पर लादता है, अथवा अन्य व्यक्ति के द्वारा किये गए दुष्कर्म को किसी दूसरे पर आरोपित करता है कि तुमने यह दुष्कर्म किया है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है I ‘यह बात असत्य है’ ऐसा जानता हुआ भी जो सभा में सत्यामृषा (जिसमें सत्यांश कम है और असत्यांश अधिक है ऐसी) भाषा बोलता है और लोगों से सदा कलह करता रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। राजा को जो मंत्री – अमात्य अपने ही राजा की दारों (स्त्रियों) को, अथवा धन आने के द्वारों को विध्वंस करके और अनेक सामन्त आदि को विक्षुब्ध करके राजा को अनाधिकारी करके राज्य पर, रानियों पर या राज्य के धन – आगमन के द्वारों पर स्वयं अधिकार जमा लेता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जिसका सर्वस्व हरण कर लिया है, वह व्यक्ति भेंट आदि लेकर और दिन वचन बोलकर अनुकूल बनाने के लिए यदि किसी के समीप आता है, ऐसे पुरुष के लिए जो प्रतिकूल वचन बोलकर उसके भोग – उपभोग के साधनों को विनष्ट करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो पुरुष स्वयं अकुमार होते हुए भी ‘मैं कुमार हूँ’ ऐसा कहता है और स्त्रियों में गृद्ध और उनके अधीन रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो कोई पुरुष स्वयं अब्रह्मचारी होते हुए भी ‘मैं ब्रह्मचारी हूँ’ ऐसा बोलता है, वह बैलों के मध्य में गधे के समान विस्वर (बेसुरा) नाद (शब्द) करता – रेंकता हुआ महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। तथा उक्त प्रकार से जो अज्ञानी पुरुष अपना ही अहित करने वाले मायाचारयुक्त बहुत अधिक असत्य वचन बोलता है और स्त्रियों के विषयों में आसक्त रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो राजा आदि की ख्याति से अर्थात् ‘यह उस राजा का या मंत्री आदि का सगासम्बन्धी है’ ऐसी प्रसिद्धि से अपना निर्वाह करता हो अथवा आजीविका के लिए जिस राजा के आश्रय में अपने को समर्पित करता है, अर्थात् उसकी सेवा करता है और फिर उसी के धन में लुब्ध होता है, वह पुरुष महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। किसी ऐश्वर्यशाली पुरुष के द्वारा, अथवा जन – समूह के द्वारा कोई अनीश्वर (ऐश्वर्यरहित निर्धन) पुरुष ऐश्वर्यशाली बना दिया गया, तब उस सम्पत्ति – विहीन पुरुष के अतुल (अपार) लक्ष्मी हो गई यदि वह ईर्ष्या द्वेष से प्रेरित होकर, कलुषता – युक्त चित्त से उस उपकारी पुरुष के या जन – समूह के भोग – उपभोगादि में अन्तराय या व्यवच्छेद डालने का विचार करता है, तो वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जैसे सर्पिणी (नागिन) अपने ही अंडों को खा जाती है, उसी प्रकार जो पुरुष अपना ही भला करने वाले स्वामी का, सेनापति का अथवा धर्मपाठक का विनाश करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो राष्ट्र के नायक का या निगम (विशाल नगर) के नेता का अथवा, महायशस्वी सेठ का घात करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो बहुत जनों के नेता का, दीपक के समान उनके मार्गदर्शक का और इसी प्रकार के अनेक जनों के उपकारी पुरुष का घात करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो दीक्षा लेने के लिए उपस्थित या उद्यत पुरुष को, भोगों से विरक्त जनों को, संयमी मनुष्य को या परम तपस्वी व्यक्ति को अनेक प्रकारों से भड़का कर धर्म से भ्रष्ट करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो अज्ञानी पुरुष अनन्तज्ञानी अनन्तदर्शी जिनेन्द्रों का अवर्णवाद करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो दुष्ट पुरुष न्याय – युक्त मोक्षमार्ग का अपकार करता है और बहुत जनों को उससे च्युत करता है, तथा मोक्षमार्ग की निन्दा करता हुआ अपने आपको उसमें भावित करता है, अर्थात उन दुष्ट विचारों से लिप्त करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो अज्ञानी पुरुष, जिन – जिन आचार्यों और उपाध्यायों से श्रुत और विनय धर्म को प्राप्त करता है, उन्हीं की यदि निन्दा करता है, अर्थात् ये कुछ नहीं जानते, ये स्वयं चारित्र से भ्रष्ट हैं, इत्यादि रूप से उनकी बदनामी करता है, तो वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो आचार्य, उपाध्याय एवं अपने उपकारक जनों को सम्यक् प्रकार से संतृप्त नहीं करता है अर्थात् सम्यक् प्रकार से उनकी सेवा नहीं करता है, पूजा और सन्मान नहीं करता है, प्रत्युत अभिमान करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। अबहुश्रुत (अल्पश्रुत का धारक) जो पुरुष अपने को बड़ा शास्त्रज्ञानी कहता है, स्वाध्यायवादी और शास्त्र – पाठक बतलाता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो अतपस्वी होकर भी अपने को महातपस्वी कहता है, वह सब से महाचोर (भाव – चोर होने के कारण) महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। उपकार (सेवा – शुश्रूषा) के लिए किसी रोगी, आचार्य या साधु के आने पर स्वयं समर्थ होते हुए भी जो ‘यह मेरा कुछ भी कार्य नहीं करता है’, इस अभिप्राय से उसकी सेवा आदि कर अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता है इस मायाचार में पटु, वह शठ कलुषितचित्त होकर (भवान्तर में) अपनी अबोधि का कारण बनता हुआ महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो पुनः पुनः स्त्री – कथा, भोजन – कथा आदि विकथाएं करके मंत्र – यंत्रादि का प्रयोग करता है या कलह करता है, और संसार से पार ऊतारने वाले सम्यग्दर्शनादि सभी तीर्थों के भेदन करने के लिए प्रवृत्ति करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो अपनी प्रशंसा के लिए मित्रों के निमित्त अधार्मिक योगों का अर्थात् वशीकरणादि प्रयोगों का बार – बार उपयोग करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो मनुष्य – सम्बन्धी अथवा पारलौकिक देवभव सम्बन्धी भोगों में तृप्त नहीं होता हुआ बार – बार उनकी अभिलाषा करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो अज्ञानी देवों की ऋद्धि (विमानादि सम्पत्ति), द्युति (शरीर और आभूषणों की कान्ति), यश और वर्ण (शोभा) का, तथा उनके बल – वीर्य का अवर्णवाद करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो देवों, यक्षों और गृह्यकों (व्यन्तरों) को नहीं देखता हुआ भी ‘मैं उनकों देखता हूँ‘ ऐसा कहता है, वह जिनदेव के समान अपनी पूजा का अभिलाषी अज्ञानी पुरुष महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है।