तेरह क्रियास्थान

तेरह क्रियास्थान कहे गए हैं। जैसे – अर्थदंड, अनर्थदंड, हिंसादंड, अकस्माद्‌ दंड, दृष्टिविपर्यास दंड, मृषावाद प्रत्यय दंड, अदत्तादान प्रत्यय दंड, आध्यात्मिक दंड, मानप्रत्यय दंड, मित्रद्वेषप्रत्यय दंड, मायाप्रत्यय दंड, लोभप्रत्यय दंड और ईर्यापथिक दंड। सौधर्म – ईशान कल्पों में तेरह विमान – प्रस्तट हैं। सौधर्मावतंसक विमान साढ़े बारह लाख योजन आयाम – विष्कम्भ वाला है। इसी प्रकार ईशानावतंसक विमान भी जानना। जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की जाति कुलकोटियाँ साढ़े बारह लाख हैं। प्राणायु नामक बारहवें पूर्व के तेरह वस्तु नामक अर्थाधिकार कहे गए हैं। गर्भज पंचेन्द्रिय, तिर्यग्योनिक जीवों में तेरह प्रकार के योग या प्रयोग होते हैं। जैसे – सत्य मनःप्रयोग, मृषा मनःप्रयोग, सत्यमृषामनःप्रयोग, असत्यामृषामनःप्रयोग, सत्यवचनप्रयोग, मृषावचनप्रयोग, सत्यमृषावचनप्रयोग, असत्यामृषावचनप्रयोग, औदारिकशरीरकायप्रयोग, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग, वैक्रियशरीरकायप्रयोग, वैक्रिय–मिश्रशरीरकायप्रयोग और कार्मणशरीरकायप्रयोग। सूर्यमंडल एक योजन के इकसठ भागों में से तेरह भाग (से न्यून अर्थात्‌) ४८/६१ योजन के विस्तार वाला कहा गया है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति तेरह पल्योपम कही गई है। पाँचवी धूमप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति तेरह सागरोपम कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति तेरह पल्योपम कही गई है। लान्तक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति तेरह सागरोपम है। वहाँ जो देव वज्र, सुवज्र, वज्रावर्त (वज्रप्रभ), वज्रकान्त, वज्रवर्ण, वज्रलेश्य, वज्ररूप, वज्रशृंग, वज्रसृष्ट, वज्रकूट, वज्रोत्तरावतंसक, वइर, वइरावर्त, वइरप्रभ, वइरकान्त, वइरवर्ण, वइरलेश्य, वइररूप, वइरशृंग, वइरसृष्ट, वइरकूट, वइरोत्तरावतंसक, लोक, लोकावर्त, लोकप्रभ, लोककान्त, लोकवर्ण, लोकलेश्य, लोकरूप, लोकशृंग, लोकसृष्ट, लोककूट और लोकोत्तरावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति तेरह सागरोपम कही गई है। वे तेरह अर्धमासों के बाद आन – प्राण – उच्छ्‌वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों के तेरह हजार वर्ष के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो तेरह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।

 

चौदह भूतग्राम (जीवसमास) कहे गए हैं। जैसे – सूक्ष्म अपर्याप्तक एकेन्द्रिय, सूक्ष्म पर्याप्तक एकेन्द्रिय, बादर अपर्याप्तक एकेन्द्रिय, बादर पर्याप्तक एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक, द्वीन्द्रिय पर्याप्तक त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय असंज्ञी अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय असंज्ञी पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्तक और पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक। चौदह पूर्व कहे गए हैं, जैसे – उत्पाद पूर्व, अग्रायणीय पूर्व, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्ति प्रवाद, ज्ञानप्रवाद – पूर्व। सत्य प्रवाद – पूर्व, आत्मप्रवाद – पूर्व, कर्मप्रवाद – पूर्व, प्रत्याख्यानप्रवाद – पूर्व। विद्यानुवाद – पूर्व, अबन्ध्य – पूर्व, प्राणवाय – पूर्व, क्रियाविशाल – पूर्व तथा लोकबिन्दुसार – पूर्व।

 

अग्रायणीय पूर्व के वस्तु नामक चौदह अर्थाधिकार कहे गए हैं। श्रमण भगवान महावीर की उत्कृष्ट श्रमण – सम्पदा चौदह हजार साधुओं की थी। कर्मों की विशुद्धि की गवेषणा करने वाले उपायों की अपेक्षा चौदह जीवस्थान हैं। मिथ्यादृष्टि स्थान, सासादन सम्यग्दृष्टि स्थान, सम्यग्‌मिथ्यादृष्टि स्थान, अविरत सम्यग्दृष्टि स्थान, विरताविरत स्थान, प्रमत्तसंयत स्थान, अप्रमत्तसंयत स्थान, निवृत्तिबादर स्थान, अनिवृत्तिबादर स्थान, सूक्ष्मसम्पराय उपशामक और क्षपक स्थान, उप – शान्तमोह स्थान, क्षीणमोह स्थान, सयोगिकेवली स्थान और अयोगिकेवली स्थान। भरत और ऐरवत क्षेत्र की जीवाएं प्रत्येक चौदह हजार चार सौ एक योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग प्रमाण लम्बी कही गई हैं। प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के चौदह – चौदह रत्न होते हैं। जैसे – स्त्रीरत्न, सेनापतिरत्न, गृहपतिरत्न, पुरोहितरत्न, अश्वरत्न, हस्तिरत्न, असिरत्न, दंडरत्न, चक्ररत्न, छत्ररत्न, चर्मरत्न, मणिरत्न और काकिणिरत्न। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में चौदह महानदियाँ पूर्व और पश्चिम दिशा से लवणसमुद्र में जाकर मिलती हैं। जैसे – गंगा – सिन्धु, रोहिता – रोहितांसा, हरी – हरिकान्ता, सीता – सीतोदा, नरकान्ता – नारीकान्ता, सुवर्ण – कूला – रूप्यकुला, रक्ता और रक्तवती। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति चौदह पल्योपम कही गई है। पाँचवी पृथ्वी में किन्हीं – किन्हीं नारकों की स्थिति चौदह सागरोपम की है। किन्हीं – किन्हीं असुरकुमार देवों की स्थिति चौदह पल्योपम है। सौधर्म और ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति चौदह पल्योपम है। लान्तक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति चौदह सागरोपम है। महाशुक्र कल्प में कितनेक देवों की जघन्य स्थिति चौदह सागरोपम है। वहाँ जो देव श्रीकान्त श्रीमहित श्रीसौमनस, लान्तक, कापिष्ठ, महेन्द्र, महेन्द्रकान्त और महेन्द्रोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति चौदह सागरोपम है। वे देव सात मासों के बाद आन – प्राण या उच्छ्‌वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों को चौदह हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो चौदह भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।

 

पन्द्रह परमअधार्मिक देव कहे गए हैं – अम्ब, अम्बरिषी, श्याम, शबल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकाल।असिपत्र, धनु, कुम्भ, वालुका, वैतरणी, खरस्वर, महाघोष।

 

नमि अर्हन्‌ पन्द्रह धनुष ऊंचे थे। ध्रुवराहु कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन से चन्द्र लेश्या के पन्द्रहवे – पन्द्रहवे दीप्तिरूप भाग को अपने श्याम वर्ण से आवरण करता रहता है। जैसे – प्रतिपदा के दिन प्रथम भाग को, द्वीतिया के दिन द्वीतिय भाग को, तृतीया के दिन तीसरे भाग को, चतुर्थी के दिन चौथे भाग को, पंचमी के दिन पाँचवे भाग को, षष्ठी के दिन छठे भाग को, सप्तमी के दिन सातवे भाग को, अष्टमी के दिन आठवे भाग को, नवमी के दिन नौवे भाग को, दशमी के दिन दशवे भाग को, एकादशी के दिन ग्यारहवे भाग को, द्वादशी के दिन बारहवे भाग को, त्रयोदशी के दिन तेरहवे भाग को, चतुर्दशी के दिन चौदहवे भाग को और पन्द्रस (अमावस) के दिन पन्द्रहवे भाग को आवरण करके रहता है। वही ध्रुवराहु शुक्ल पक्ष में चन्द्र के पन्द्रहवे – पन्द्रहवे भाग को उपदर्शन कराता रहता है। जैसे प्रतिपदा के दिन पन्द्रहवे भाग को प्रकट करता है, द्वीतिया के दिन दूसरे पन्द्रहवे भाग को प्रकट करता है। इस प्रकार पूर्णमासी के दिन पन्द्रहवे भाग को प्रकट कर पूर्ण चन्द्र को प्रकाशित करता है।