भरत और ऐरवत क्षेत्रों में एक एक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल

भरत और ऐरवत क्षेत्रों में एक एक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में चौपन चौपन उत्तम पुरुष उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। जैसे – चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव और नौ वासुदेव। अरिष्टनेमि अर्हन्‌ चौपन रात – दिन छद्मस्थ श्रमणपर्याय पालकर केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी जिन हुए। श्रमण भगवान महावीर ने एक दिन में एक आसन से बैठे हुए चौपन प्रश्नों के उत्तररूप व्याख्यान दिए थे। अनन्त अर्हन्‌ के चौपन गण और चौपन गणधर थे।

 

मल्ली अर्हन्‌ पचपन हजार वर्ष की परमायु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त भाग से पूर्वी विजयद्वार के पश्चिमी चरमान्त भाग का अन्तर पचपन हजार योजन का कहा गया है। इसी प्रकार चारों ही दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित द्वारों का अन्तर जानना चाहिए। श्रमण भगवान महावीर अन्तिम रात्रि में पुण्य – काल विपाक वाले पचपन और पाप – फल विपाक वाले पचपन अध्ययनों का प्रतिपादन करके सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। पहली और दूसरी इन दो पृथ्वीयों में पचपन लाख नारकावास कहे गए हैं। दर्शनावरणीय नाम और आयु इन तीन कर्मप्रकृतियों की मिलाकर पचपन उत्तर प्रकृतियाँ कही गई हैं।

 

जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमाओं के परिवार वाले छप्पन नक्षत्र चन्द्र के साथ योग करते थे, करते हैं और करेंगे। विमल अर्हत्‌ के छप्पन गण और छप्पन गणधर थे।

 

आचारचूलिका को छोड़कर तीन गणिपिटकों के सत्तावन अध्ययन हैं। जैसे आचाराङ्ग के अन्तिम निशीथ अध्ययन को छोड़कर प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ, द्वीतिय श्रुतस्कन्ध के आचारचूलिका को छोड़कर पन्द्रह, दूसरे सूत्र – कृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह, द्वीतिय श्रुतस्कन्ध के सात और स्थानाङ्ग के दश, इस प्रकार सर्व सतावन अध्ययन हैं। गोस्तुभ आवास पर्वत के पूर्वी चरमान्त से वड़वामुख महापाताल के बहुमध्य देशभाग का बिना किसी बाधा के सत्तावन हजार योजन अन्तर कहा गया है। इसी प्रकार दकभास और केतुक का, संख और यूपक का और दकसीम तथा ईश्वर नामक महापाताल का अन्तर जानना चाहिए। मल्लि अर्हत्‌ के संघ में सतावन सौ मनःपर्यवज्ञानी मुनि थे। महाहिमवन्त और रुक्मी वर्षधर पर्वत की जीवाओं का घनःपृष्ठ सतावन हजार दो सौ तेरानवे योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से दश भाग प्रमाण परिक्षेप (परिधि) रूप से कहा गया है।

 

पहली, दूसरी और पाँचवी इन तीन पृथ्वीयों में अट्ठावन लाख नारकावास कहे गए हैं। ज्ञानावरणीय, वेदनीय, आयु, नाम, अन्तराय इन पाँच कर्मप्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियाँ अट्ठावन कही गई हैं गोस्तुभ आवास पर्वत के पश्चिमी चरमान्त भाग से वड़वामुख महापाताल के बहुमध्य देश – भाग का अन्तर अट्ठावन हजार योजन बिना किसी बाधा के कहा गया है। इसी प्रकार चारों ही दिशाओं में जानना चाहिए।

 

चंद्रसंवत्सर (चन्द्रमा की गति की अपेक्षा से माने जाने वाले संवत्सर) की एक एक ऋतु रात – दिन की गणना से उनसठ रात्रि – दिन की कही गई है। संभव अर्हन्‌ उनसठ हजार पूर्व वर्ष अगार के मध्य (गृहस्थावस्था में) रहकर मुण्डित हो अगार त्यागकर अनगारिता में प्रव्रजित हुए। मल्लि अर्हन्‌ के संघ में उनसठ सौ (५९००) अवधिज्ञानी थे।

 

सूर्य एक एक मण्डल को साठ – साठ मुहूर्त्तों से पूर्ण करता है। लवणसमुद्र के अग्रोदक (१६,००० ऊंची वेला के ऊपर वाले जल) को साठ हजार नागराज धारण करते हैं विमल अर्हन्‌ साठ धनुष ऊंचे थे। बलि वैरोचनेन्द्र के साठ हजार सामानिक देव कहे गए हैं। ब्रह्म देवेन्द्र देवराज के साठ हजार सामानिक देव कहे गए हैं। सौधर्म और ईशान इन दो कल्पों में साठ लाख विमानावास कहे गए हैं।

 

पंचसंवत्सर वाले युग के ऋतु – मासों से गिनने पर इकसठ ऋतु मास होते हैं। मन्दर पर्वत का प्रथम काण्ड इकसठ हजार योजन ऊंचा कहा गया है। चन्द्रमंडल विमान एक योजन के इकसठ भागों से विभाजित करने पर पूरे छप्पन भाग प्रमाण सम – अंश कहा गया है। इसी प्रकार सूर्य भी एक योजन के इकसठ भागों से विभाजित करने पर पूरे अड़तालीस भाग प्रमाण सम – अंश कहा गया है।

 

पंचसांवत्सरिक युग में बासठ पूर्णिमाएं और बासठ अमावस्याएं कही गई हैं। वासुपूज्य अर्हन्‌ के बासठ गण और बासठ गणधर कहे गए हैं। शुक्लपक्ष में चन्द्रमा दिवस – दिवस (प्रतिदिन) बासठवे भाग प्रमाण एक – एक कला से बढ़ता और कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन इतना ही घटता है। सौधर्म और ईशान इन दो कल्पों में पहले प्रस्तट में पहली आवलिका (श्रेणी) में एक एक दिशा में बासठ – बासठ विमानावास कहे गए हैं। सभी वैमानिक विमान – प्रस्तट प्रस्तटों की गणना से बासठ कहे गए हैं।