छह नक्षत्र पन्द्रह मुहूर्त्त तक चन्द्र के साथ संयोग करके रहने वाले कहे गए हैं। जैसे – शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा। ये छह नक्षत्र पन्द्रह मुहूर्त्त तक चन्द्र से संयुक्त रहते हैं।
चैत्र और आसौज मास में दिन पन्द्रह – पन्द्रह मुहूर्त्त का होता है। इसी प्रकार चैत्र और आसौज मास में रात्रि भी पन्द्रह – पन्द्रह मुहूर्त्त की होती है। विद्यानुवाद पूर्व के वस्तु नामक पन्द्रह अर्थाधिकार कहे गए हैं। मनुष्यों के पन्द्रह प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं। जैसे – सत्यमनःप्रयोग, मृषामनःप्रयोग, सत्यमृषामनःप्रयोग, असत्यमृषामनःप्रयोग, सत्यवचनप्रयोग, मृषावचनप्रयोग, सत्यमृषावचनप्रयोग, असत्यामृषावचनप्रयोग, औदारिक – शरीरकायप्रयोग, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग, वैक्रियशरीरकायप्रयोग, वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग, आहारक – शरीरकायप्रयोग, आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग और कार्मणशरीरकायप्रयोग। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम कही गई है। पाँचवी धूमप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति पन्द्रह सागरोपम की है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम की है। सौधर्म ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम है। महाशुक्र कल्प में कितनेक देवों की स्थिति पन्द्रह सागरोपम है। वहाँ जो देव नन्द, सुनन्द, नन्दावर्त, नन्दप्रभ, नन्दकान्त, नन्दवर्ण, नन्दलेश्य, नन्दध्वज, नन्दशृंग, नन्दसृष्ट, नन्दकूट और नन्दोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह सागरोपम है। वे देव साढ़े सात मासों के बाद आन – प्राण – उच्छ्वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों को पन्द्रह हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं, जो पन्द्रह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
सोलह गाथा – षोडशक कहे गए हैं। जैसे – समय, वैतालीय, उपसर्ग परिज्ञा, स्त्री – परिज्ञा, नरकविभक्ति, महावीरस्तुति, कुशीलपरिभाषित, वीर्य, धर्म, समाधि, मार्ग, समवसरण, यथातथ्य, ग्रन्थ, यमकीय और सोलहवीं गाथा कषाय सोलह कहे गए हैं। जैसे – अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुबन्धी माया, अनन्ता – नुबन्धी लोभ, अप्रत्याख्यानकषाय क्रोध, अप्रत्याख्यानकषाय मान, अप्रत्याख्यानकषाय माया, अप्रत्याख्यानकषाय लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण मान, प्रत्याख्यानावरण माया, प्रत्याख्यानावरण लोभ, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया और संज्वलन लोभ। मन्दर पर्वत के सोलह नाम कहे गए हैं। जैसे – १. मन्दर, २. मेरु, ३. मनोरम, ४. सुदर्शन, ५. स्वयम्प्रभ, ६. गिरिराज, ७. रत्नोच्चय, ८. प्रियदर्शन, ९. लोकमध्य, १०. लोकनाभि। ११. अर्थ, १२. सूर्यावर्त, १३. सूर्यावरण, १४. उत्तर, १५. दिशादि और १६. अवंतस।
पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् की उत्कृष्ट श्रमण – सम्पदा सोलह हजार श्रमणों की थी। आत्मप्रवाद पूर्व के वस्तु नामक सोलह अर्थाधिकार कहे गए हैं। चमरचंचा और बलीचंचा नामक राजधानियों के मध्य भाग में उतार – चढ़ाव रूप अवतारिकालयन वृत्ताकार वाले होने से सोलह हजार आयाम – विष्कम्भ वाले कहे गए हैं। लवणसमुद्र के मध्य भाग में जल के उत्सेध की वृद्धि सोलह हजार योजन कही गई है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति सोलह पल्योपम कही गई है। पाँचवी धूमप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकियों की स्थिति सोलह सागरोपम की कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति सोलह पल्योपम कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति सोलह पल्योपम है। महाशुक्र कल्प में कितनेक देवों की स्थिति सोलह सागरोपम है। वहाँ जो देव आवर्त, व्यावर्त, नन्द्यावर्त, महानन्द्यावर्त, अंकुश, अंकुशप्रलम्ब, भद्र, सुभद्र, महाभद्र, सर्वतोभद्र और भद्रोत्तरावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सोलह सागरोपम है। वे देव आठ मासों के बाद आन – प्राण या उच्छ्वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों को सोलह हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सोलह भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परि – निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
सत्तरह प्रकार का असंयम है। पृथ्वीकाय असंयम, अप्काय असंयम, तेजस्काय असंयम, वायुकाय असंयम, वनस्पतिकाय असंयम, द्वीन्द्रिय असंयम, त्रीन्द्रिय असंयम, चतुरिन्द्रिय असंयम, पंचेन्द्रिय असंयम, अजीवकाय असंयम, प्रेक्षा असंयम, उपेक्षा असंयम, अपहृत्य असंयम, अप्रमार्जना असंयम, मनः असंयम, वचन असंयम, काय असंयम। सत्तरह प्रकार का संयम कहा गया है। जैसे – पृथ्वीकाय संयम, अप्काय संयम, तेजस्काय संयम, वायुकाय संयम, वनस्पतिकाय संयम, द्वीन्द्रिय संयम, त्रीन्द्रिय संयम, चतुरिन्द्रिय संयम, पंचेन्द्रिय संयम, अजीवकाय संयम, प्रेक्षा संयम, उपेक्षा संयम, अपहृत्य संयम, प्रमार्जना संयम, मनः संयम, वचन संयम, काय संयम। मानुषोत्तर पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊंचा कहा गया है। सभी वेलन्धर और अनुवेलन्धर नागराजों के आवास पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊंचे कहे गए हैं। लवणसमुद्र की सर्वाग्र शिखा सत्तरह हजार योजन ऊंची कही गई है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमि भाग से कुछ अधिक सत्तरह हजार योजन ऊपर जाकर तत्पश्चात् चारण ऋद्धिधारी मुनियों की नन्दीश्वर, रुचक आदि द्वीपों में जाने के लिए तिरछी गति होती है। असुरेन्द्र असुरराज चमर का तिगिंछिकूट नामक उत्पात पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊंचा कहा गया है। असुरेन्द्र बलि का रुचकेन्द्र नामक उत्पात पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊंचा कहा गया है। मरण सत्तरह प्रकार का है। आवीचिमरण, अवधिमरण, आत्यन्तिकमरण, वलन्मरण, वशार्तमरण, अन्तः शल्यमरण, तद्भवमरण, बालमरण, पंडितमरण, बालपंडितमरण, छद्मस्थमरण, केवलिमरण, वैहायसमरण, गृद्ध – स्पृष्ट या गृद्धपृष्ठमरण, भक्तप्रत्याख्यानमरण, इंगिनीमरण, पादपोपगमनमरण। सूक्ष्मसम्पराय भाव में वर्तमान सूक्ष्मसम्पराय भगवान केवल सत्तरह कर्म – प्रकृतियों को बाँधते हैं। जैसे – आभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यवज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुर्दर्शनावरण अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, सातावेदनीय, यशस्कीर्तिनामकर्म, उच्चगोत्र, दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। सहस्रार कल्प में देवों की जघन्य स्थिति सत्तरह सागरोपम है। वहाँ जो देव, सामान, सुसामान, महासामान पद्म, महापद्म, कुमुद, महाकुमुद, नलिन, महानलिन, पौण्डरीक, महापौण्डरीक, शुक्र, महाशुक्र, सिंह, सिंहकान्त, सिंहबीज और भावित नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सत्तरह सागरोपम की होती है। वे देव साढ़े आठ मासों के बाद आन – प्राण या उच्छ्वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों के सत्तरह हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सत्तरह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।