संक्लिष्ट परिणाम वाले अपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय जीव नामकर्म की पच्चीस उत्तर प्रकृतियों को बाँधते हैं। जैसे – तिर्यग्गतिनाम, विकलेन्द्रिय जातिनाम, औदारिकशरीरनाम, तैजसशरीरनाम, कार्मणशरीरनाम, हुंडकसंस्थान नाम, औदारिकसाङ्गोपाङ्ग नाम, सेवार्त्तसंहनन नाम, वर्णनाम, गन्धनाम, रसनाम, स्पर्शनाम, तिर्यंचा – नुपूर्वीनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, त्रसनाम, बादरनाम, अपर्याप्तकनाम, प्रत्येकशरीरनाम, अस्थिरनाम, अशुभ नाम, दुर्भगनाम, अनादेयनाम, अयशस्कीर्त्ति नाम और निर्माणनाम। गंगा – सिन्धु महानदियाँ पच्चीस कोश पृथुल (मोटी) घड़े के मुख – समान मुख में प्रवेश कर और मकर के मुख की जिह्वा के समान पनाले से नीकल कर मुक्तावली हार के आकार से प्रपातद्रह में गिरती है। इसी प्रकार रक्ता – रक्तवती महानदियाँ भी पच्चीस कोश पृथुल घड़े के मुख समान मुख में प्रवेश कर और मकर के मुख की जिह्वा के समान पनाले से नीकलकर मुक्तावली – हार के आकार से प्रपातद्रह में गिरती हैं। लोकबिन्दुसार नामक चौदहवें पूर्व के वस्तुनामक पच्चीस अर्थाधिकार कहे गए हैं। इस रत्नप्रभापृथ्वी में कितनेक नारकियों की स्थिति पच्चीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवी महातमः प्रभापृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति पच्चीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति पच्चीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्पमें कितनेक देवों की स्थिति २५ पल्योपम है। मध्यम – अधस्तनग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति २५ सागरोपम है। जो देव अधस्तन – उपरिमग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति पच्चीस सागरोपम है। वे देव साढ़े बारह मासों के बाद आन – प्राण या श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों के पच्चीस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है।कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो पच्चीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे I
दशासूत्र (दशाश्रुतस्कन्ध), (बृहत्) कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र के छब्बीस उद्देशनकाल कहे गए हैं। जैसे – दशासूत्र के दश, कल्पसूत्र के छह और व्यवहारसूत्र के दश। अभव्यसिद्धिक जीवों के मोहनीय कर्म के छब्बीस कर्मांश (प्रकृतियाँ) सता में कहे गए हैं। जैसे – मिथ्यात्व मोहनीय, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुष वेद, नपुंसकवेद, हास्य, अरति, रति, भय, शोक और जुगुप्सा। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति छब्बीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवीं महातमःपृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति छब्बीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति छब्बीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्प में रहने वाले कितनेक देवों की स्थिति छब्बीस पल्योपम है। मध्यम – मध्यम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति छब्बीस सागरोपम है। जो देव मध्यम – अधस्तनग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति छब्बीस सागरोपम है। वे देव तेरह मासों के बाद आन – प्राण या उच्छ्वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों के छब्बीस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो छब्बीस भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परि – निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्वदुःखों का अन्त करेंगे।
अनगार – निर्ग्रन्थ साधुओं के सत्ताईस गुण हैं। जैसे – प्राणातिपात – विरमण, मृषावाद – विरमण, अदत्तादान – विरमण, मैथुन – विरमण, परिग्रह – विरमण, श्रोत्रेन्द्रिय – निग्रह, चक्षुरिन्द्रिय – निग्रह, घ्राणेन्द्रिय – निग्रह, जिह्वेन्द्रिय – निग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय – निग्रह, क्रोधविवेक, मानविवेक, मायाविवेक, लोभविवेक, भावसत्य, करणसत्य, योगसत्य, क्षमा, विरागता, मनःसमाहरणता, वचनसमाहरणता, कायसमाहरणता, ज्ञानसम्पन्नता, दर्शनसम्पन्नता, चारित्रसम्पन्नता, वेदनातिसहनता और मारणान्तिकातिसहनता। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में अभिजित् नक्षत्र को छोड़कर शेक्ष नक्षत्रों के द्वारा मास आदि का व्यवहार प्रवर्तता है। नक्षत्र मास सत्ताईस दिन – रात की प्रधानता वाला कहा गया है। सौधर्म – ईशान कल्पों में उनके विमानों की पृथ्वी सत्ताईस सौ योजन मोटी कही गई है। वेदक सम्यक्त्व के बन्ध रहित जीव के मोहनीय कर्म को सत्ताईस प्रकृतियों की सत्ता कही गई है। श्रावण सुदी सप्तमी के दिन सूर्य सत्ताईस अंगुल की पौरुषी छाया करके दिवस क्षेत्र (सूर्य से प्रकाशित आकाश) की ओर लौटता हुआ और रजनी क्षेत्र (प्रकाश की हानि करता और अन्धकार को) बढ़ाता हुआ संचार करता है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है। अधस्तन सप्तम महातमः प्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकियों की स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है। मध्यम – उपरिम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है। जो देव मध्यम ग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है। ये देव साढ़े तेरह मासों के बाद आन – प्राण अर्थात् उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं। उन देवों को सत्ताईस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सत्ताईस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
आचारप्रकल्प अट्ठाईस प्रकार का है। मासिकी आरोपणा, सपंचरात्रिमासिकी आरोपणा, सदशरात्रि – मासिकी आरोपणा, सपंचदशरात्रिमासिकी आरोपणा, सविशतिरात्रिकोमासिकी आरोपणा, सपंचविशत्तिरात्रि – मासिकी आरोपणा। इसी प्रकार छ द्विमासिकी आरोपणा, ६ त्रिमासिकी आरोपणा, ६ चतुर्मासिकी आरोपणा, उपघातिका आरोपणा, अनुपघातिका आरोपणा, कृत्स्ना आरोपणा, अकृत्स्ना आरोपणा, यह अट्ठाईस प्रकार का आचारप्रकल्प है। आचरित दोष की शुद्धि न हो जावे तब तक यह – आचारणीय है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीवों के मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता कही गई है। जैसे – सम्य – क्त्ववेदनीय, मिथ्यात्ववेदनीय, सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय, सोलहकषाय और नौ नोकषाय। आभिनिबोधिकज्ञान अट्ठाईस प्रकार का कहा गया है। जैसे – श्रोत्रेन्द्रिय – अर्थावग्रह, चक्षुरिन्द्रिय – अर्थावग्रह, घ्राणेन्द्रिय – अर्थावग्रह, जिह्वेन्द्रिय – अर्थावग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय – अर्थावग्रह, नोइन्द्रिय – अर्थावग्रह, श्रोत्रेन्द्रिय – व्यंजनावग्रह, घ्राणेन्द्रिय – व्यंजनावग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय – व्यंजनावग्रह, श्रोत्रेन्द्रिय – ईहा, चक्षुरिन्द्रिय – ईहा, घ्राणेन्द्रिय – ईहा, जिह्वेन्द्रिय – ईहा, स्पर्शनेन्द्रिय – ईहा, नोइन्द्रिय – ईहा, श्रोत्रेन्द्रिय – अवाय, चक्षुरिन्द्रिय – अवाय, घ्राणेन्द्रिय – अवाय, जिह्वेन्द्रिय – अवाय, स्पर्शनेन्द्रिय – अवाय, नोइन्द्रिय – अवाय, श्रोत्रेन्द्रिय – धारणा, चक्षुरिन्द्रिय – धारणा, घ्राणेन्द्रिय – धारणा, जिह्वेन्द्रिय – धारणा, स्पर्शनेन्द्रिय – धारणा और नोइन्द्रिय धारणा। ईशानकल्प में अट्ठाईस लाख विमानावास कहे गए हैं। देवगति को बाँधने वाला जीव नामकर्म की अट्ठाईस उत्तरप्रकृतियों को बाँधता है। वे इस प्रकार हैं – देव – गतिनाम, पंचेन्द्रियजातिनाम, वैक्रियशरीरनाम, तैजसशरीरनाम, कार्मरगशरीरनाम, समचतुरस्रसंस्थाननाम, वैक्रिय – शरीराङ्गोपाङ्गनाम, वर्णनाम, गन्धनाम, रसनाम, स्पर्शनाम, देवानुपूर्वीनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, पराघात – नाम, उच्छ्वासनाम, प्रशस्त विहायोगतिनाम, त्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, प्रत्येकशरीरनाम, स्थिर – अस्थिर नामों में से कोई एक, शुभ – अशुभ नामों में से कोई एक, आदेय – अनादेय नामों में से कोई एक, सुभगनाम, सुस्वर – नाम, यशस्कीर्त्तिनाम और निर्माण नाम। इसी प्रकार नरकगति को बाँधने वाला जीव भी नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों को बाँधता है। किन्तु वह प्रशस्त प्रकृतियों के स्थान पर अप्रशस्त प्रकृतियों को बाँधता है। जैसे – अप्रशस्त विहायोगतिनाम, हुंडकसंस्थाननाम, अस्थिरनाम, दुर्भगनाम, अशुभनाम, दुःस्वरनाम, अनादेयनाम, अयशस्कीर्त्तिनाम और निर्माणनाम। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवी पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति अट्ठाईस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमारों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम है। उपरितन – अधस्तन ग्रैवेयक विमानवासी देवों की जघन्य स्थिति अट्ठाईस सागरोपम है। जो देव मध्यम – उपरिम ग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति अट्ठाईस सागरोपम है। वे देव चौदह मासों के बाद आन – प्राण या उच्छ्वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों को अट्ठाईस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो अट्ठाईस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।