मन्दर पर्वत के पूर्वी चरमान्त भाग से गोस्तुप आवास पर्वत का पश्चिमी चरमान्त भाग सतासी हजार योजन के अन्तर वाला है। मन्दर पर्वत के दक्षिणी चरमान्त भाग से दकभास आवास पर्वत का उत्तरी चरमान्त सतासी हजार योजन के अन्तर वाला है। इसी प्रकार मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से शंख आवास पर्वत का दक्षिणी चरमान्त भाग सतासी हजार योजन के अन्तर वाला है। और इसी प्रकार मन्दर पर्वत के उत्तरी चरमान्त से दकसीम आवास पर्वत का दक्षिणी चरमान्त भाग सतासी हजार योजन के अन्तर वाला है। आद्य ज्ञानावरण और अन्तिम (अन्तराय) कर्म को छोड़कर शेष छहों कर्मप्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियाँ सतासी कही गई हैं। महाहिमवन्त कूट के उपरिम अन्त भाग से सौगन्धिक कांड का अधस्तन चरमान्त भाग ८७०० योजन अन्तर वाला है। इसी प्रकार रुक्मी कूट के ऊपरी भाग से सौगन्धिक कांड के अधोभाग का अन्तर भी सतासी सौ योजन है।
प्रत्येक चन्द्र और सूर्य के परिवार में अठासी – अठासी महाग्रह कहे गए हैं। दृष्टिवाद नामक बारहवे अंग के सूत्रनामक दूसरे भेद में अठासी सूत्र कहे गए हैं। जैसे ऋजुसूत्र, परिणता – परिणत सूत्र, इस प्रकार नन्दीसूत्र के अनुसार अठासी सूत्र कहना चाहिए। मन्दर पर्वत के पूर्वी चरमान्त भाग से गोस्तूप आवास पर्वत का पूर्वी चरमान्त भाग ८८०० योजन अन्तर वाला कहा गया है। इसी प्रकार चारों दिशाओं में आवास पर्वतों का अन्तर जानना चाहिए। बाहरी उत्तर दिशा से दक्षिण दिशा को जाता हुआ सूर्य प्रथम छह मास में चवालीसवे मण्डल में पहुँचने पर मुहूर्त्त के इकसठिये अठासी भाग दिवस क्षेत्र (दिन) को घटाकर और रजनीक्षेत्र (रात) को बढ़ाकर संचार करता है। दक्षिण दिशा से उत्तर दिशा को जाता हुआ सूर्य दूसरे छह मास पूरे करके चवालीसवे मण्डल में पहुँचने पर मुहूर्त्त के इकसठिये अठासी भाग रजनी क्षेत्र (रात) के घटाकर और दिवस क्षेत्र (दिन) के बढ़ाकर संचार करता है।
कौशलिक ऋषभ अर्हत् इसी अवसर्पिणी के तीसरे सुषमदुषमा आरे के पश्चिम भाग में नवासी अर्धमासों (३ वर्ष, ८ मास, १५ दिन) के शेष रहने पर कालगत होकर सिद्ध, बुद्ध, कर्म – मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। श्रमण भगवान महावीर इसी अवसर्पिणी के चौथे दुःषमसुषमा काल के अन्तिम भाग में नवासी अर्धमासों (३ वर्ष, ८ मास, १५ दिन) के शेष रहने पर कालगत होकर सिद्ध, बुद्ध, कर्ममुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। चातुरन्त चक्रवर्ती हरिषेण राजा ८९०० वर्ष महासाम्राज्य पद पर आसीन रहे। शान्तिनाथ अर्हत् के संघ में ८९०० आर्यिकाओं की उत्कृष्ट आर्यिकासम्पदा थी।
शीतल अर्हत् नब्बे धनुष ऊंचे थे। अजित अर्हत् के नब्बे गण और नब्बे गणधर थे। इसी प्रकार शान्ति जिन के नब्बे गण और नब्बे गणधर थे। स्वयम्भू वासुदेव ने नब्बे वर्ष में पृथ्वी को विजय किया था। सभी वृत्त वैताढ्य पर्वतों के ऊपरी शिखर से सौगन्धिककाण्ड का नीचे का चरमान्त भाग ९००० योजन अन्तर वाला है।
पर – वैयावृत्यकर्म प्रतिमाएं इक्यानवे कही गई हैं। कालोद समुद्र परिक्षेप की अपेक्षा कुछ अधिक इक्यानवे लाख योजन है। कुन्थु अर्हत् के संघ में ९१०० नियत क्षेत्र को विषय करने वाले अवधिज्ञानी थे। आयु और गोत्रकर्म को छोड़कर शेष छह कर्मप्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियाँ इक्यानवे कही गई हैं। प्रतिमाएं बानवे कही गई हैं। स्थविर इन्द्रभूति बानवे वर्ष की आयु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, (कर्ममुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित) हुए। मन्दर पर्वत के बहुमध्य देशभाग से गोस्तूप आवासपर्वत का पश्चिमी चरमान्त भाग बानवे हजार योजन के अन्तर वाला है। इसी प्रकार चारों ही आवासपर्वतों का अन्तर जानना चाहिए।
चन्द्रप्रभ अर्हत् के तिरानवे गण और तिरानवे गणधर थे। शान्ति अर्हत् के संघ में ९३०० चतुर्दशपूर्वी थे। दक्षिणायन में उत्तरायण को जाते हुए, अथवा उत्तरायण से दक्षिणायन को लौटते हुए तिरानवे मण्डल पर परिभ्रमण करता हुआ सूर्य सम अहोरात्र को विषम करता है।