नारकियों की स्थिति तीस सागरोपम

स्थविर मण्डितपुत्र तीस वर्ष श्रमण – पर्याय का पालन करके सिद्ध, बुद्ध हुए, यावत्‌ सर्व दुःखों से रहित हुए। एक – एक अहोरात्र (दिन – रात) मुहूर्त्त – गणना की अपेक्षा तीस मुहूर्त्त का कहा गया है। इन तीस मुहूर्त्तों के तीस नाम हैं। जैसे – रौद्र, शक्त, मित्र, वायु, सुपीत, अभिचन्द्र, माहेन्द्र, प्रलम्ब, ब्रह्म, सत्य, आनन्द, विजय, विश्वसेन, प्राजापत्य, उपशम, ईशान, तष्ट, भावितात्मा, वैश्रवण, वरुण, शतऋषभ, गन्धर्व, अग्नि वैशायन, आतप, आवर्त, तष्टवान, भूमह (महान), ऋषभ, सर्वार्थसिद्ध और राक्षस। अठारहवें अर अर्हन्‌ तीस धनुष ऊंचे थे। सहस्रार देवेन्द्र देवराज के तीस हजार सामानिक देव कहे गए हैं। पार्श्व अर्हन्‌ तीस वर्ष तक गृह – वास में रहकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए। श्रमण भगवान महावीर तीस वर्ष तक गृहवास में रहकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए। रत्नप्रभा पृथ्वी में तीस लाख नारकावास हैं। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति तीस पल्योपम है। अधस्तन सातवी पृथ्वी में कितनेक नारकियों की स्थिति तीस सागरोपम है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तीस पल्योपम है। उपरिम – उपरिम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति तीस सागरोपम कही गई है। जो देव उपरिम मध्यम ग्रैवेयक विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीस सागरोपम है। वे देव पन्द्रह मासों के बाद आन – प्राण और उच्छ्‌वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों के तीस हजार वर्ष के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो तीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।

 

सिद्धों के आदि गुण अर्थात्‌ सिद्धत्व पर्याय प्राप्त करने के प्रथम समय में होने वाले गुण इकतीस कहे गए हैं। जैसे – क्षीण आभिनिबोधिकज्ञानावरण, क्षीणश्रुतज्ञानावरण, क्षीणअवधिज्ञानावरण, क्षीणमनःपर्यवज्ञानावरण, क्षीणकेवलज्ञानावरण, क्षीणचक्षुदर्शनावरण, क्षीणअचक्षुदर्शनावरण, क्षीण अवधिदर्शनावरण, क्षीण केवलदर्शना – वरण, क्षीण निद्रा, क्षीण निद्रानिद्रा, क्षीण प्रचला, क्षीण प्रचलाप्रचला, क्षीणस्त्यानर्द्धि, क्षीण सातावेदनीय, क्षीण असातावेदनीय, क्षीण दर्शनमोहनीय, क्षीण चारित्रमोहनीय, क्षीण नरकायु, क्षीण तिर्यगायु, क्षीण मनुष्यायु, क्षीण देवायु, क्षीण उच्चगोत्र, क्षीण नीचगोत्र, क्षीण शुभनाम, क्षीण अशुभनाम, क्षीण दानान्तराय, क्षीण लाभान्तराय, क्षीण भोगान्तराय, क्षीण उपभोगान्तराय और क्षीण वीर्यान्तराय।

 

मन्दर पर्वत धरणीतल पर परिक्षेप (परिधि) की अपेक्षा कुछ कम इकत्तीस हजार छह सौ तेईस योजन कहा गया है। जब सूर्य सब से बाहरी मण्डल में जाकर संचार करता है, तब इस भरत – क्षेत्र – गत मनुष्य को इकत्तीस हजार आठ सौ इकत्तीस और एक योजन के साठ भागों में से तीस भाग की दूरी से वह सूर्य दृष्टिगोचर होता है। अभिवर्धित मास में रात्रि – दिवस की गणना से कुछ अधिक इकत्तीस रात – दिन कहे गए हैं। सूर्यमास रात्रि – दिवस की गणना से कुछ विशेष हीन इकत्तीस रात – दिन का कहा गया है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति इकत्तीस पल्योपम है। अधस्तन सातवी पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति इकत्तीस सागरोपम है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति इकत्तीस पल्योपम की है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति इकत्तीस पल्योपम है। विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की जघन्य स्थिति इकत्तीस सागरोपम है। जो देव उपरिम – उपरिम ग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति इकत्तीस सागरोपम है। वे देव साढ़े पन्द्रह मासों के बाद आन – प्राण या उच्छ्‌वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों के इकत्तीस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो इकत्तीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।

 

बत्तीस योग – संग्रह (मोक्ष – साधक मन, वचन, काय के प्रशस्त व्यापार) हैं। इनके द्वारा मोक्ष की साधना सुचारु रूप से सम्पन्न होती है। वे योग इस प्रकार हैं –आलोचना – व्रत – शुद्धि के लिए शिष्य अपने दोषों की गुरु के आगे आलोचना करे। निरपलाप – शिष्य – कथित दोषों को आचार्य किसी के आगे न कहे। आपत्सु दृढ़धर्मता – आपत्तियों के आने पर साधक अपने धर्म से दृढ़ रहे। अनिश्रितोपधान – दूसरे के आश्रय की अपेक्षा न करके तपश्चरण करे। शिक्षा – सूत्र और अर्थ का पठन – पाठन एवं अभ्यास करे। निष्प्रतिकर्मता – शरीर की सजावट – शृंगारादि न करे। अज्ञानता – यश, ख्याति, पूजादि के लिए अपने तप को प्रकट न करे, अज्ञात रखे। अलोभता – भक्त – पान एवं वस्त्र, पान आदि में निर्लोभ वृत्ति रखे। तितिक्षा – भूख, प्यास आदि परीषहों को सहन करे। अर्जव – अपने व्यवहार को निश्छल और सरस रखे। शुचि – सत्य बोलने और संयम पालने में शुद्धि रखे। सम्यग्दृष्टि – सम्यग्दर्शन को शंका – कांक्षादि दोषों को दूर करते हुए शुद्ध रखे। समाधि – चित्त को संकल्प – विकल्पों से रहित शांत रखे। आचारोपगत – अपने आचरण को मायाचार रहित रखे। विनयोपगत – विनय – युक्त रहे, अभिमान न करे।