तीर्थंकर भगवंतों के चौंतीस अतिशय

धृतिमति – अपनी बुद्धि में धैर्य रखे, दीनता न करे। संवेग – संसार से भयभीत रहे और निरन्तर मोक्ष की अभिलाषा रखे। प्रणिधि – हृदय में माया शल्य न रखे। सुविधि – अपने चारित्र का विधि – पूर्वक सत्‌ – अनुष्ठान अर्थात्‌ सम्यक्‌ परिपालन करे। संवर – कर्मों के आने के द्वारों (कारणों) का संवरण अर्थात्‌ निरोध करे। आत्मदोषोपसंहार – अपने दोषों का निरोध करे – दोष न लगने दे। सर्वकामविरक्तता – सर्व विषयों से विरक्त रहे। मूलगुण – प्रत्याख्यान – अहिंसादि मूल गुण विषयक प्रत्याख्यान करे। उत्तर – गुण – प्रत्याख्यान – इन्द्रिय – निरोध आदि उत्तर – गुण – विषयक प्रत्याख्यान करे। व्युत्सर्ग – वस्त्र – पात्र आद बाहरी उपधि और मूर्च्छा आदि आभ्यन्तर उपधि को त्यागे। अप्रमाद – अपने दैवसिक और रात्रिक आवश्यकों के पालन आदि में प्रमाद न करे। लवालव – प्रतिक्षण अपनी सामाचारी के परिपालन में सावधान रहे। ध्यान – संवरयोग – धर्म और शुक्लध्यान की प्राप्ति के लिए आस्रव – द्वारों का संवर करे। मारणान्तिक कर्मोदय के होने पर भी क्षोभ न करे, मनमें शान्ति रखे। संग – परिज्ञा – संग (परिग्रह) की परिज्ञा करे अर्थात्‌ उसके स्वरूप को जानकर त्याग करे। प्रायश्चित्तकरण – अपने दोषों की शुद्धि के लिए नित्य प्रायश्चित्त करे। मारणान्तिक – आराधना – मरने के समय संलेखना – पूर्वक ज्ञान – दर्शन, चारित्र और तप की विशिष्ट आराधना करे। यह बत्रीस योग संग्रह हैं। 

 

बत्तीस देवेन्द्र कहे गए हैं। जैसे – १. चमर, २. बली, ३. धरण, ४. भूतानन्द, यावत्‌ (५. वेणुदेव, ६. वेणुदाली ७. हरिकान्त, ८. हरिस्सह, ९. अग्निशिख, १०. अग्निमाणव, ११. पूर्ण, १२. वशिष्ठ, १३. जलकान्त, १४. जलप्रभ, १५. अमितगति, १६. अमितवाहन, १७. वैलम्ब, १८. प्रभंजन) १९. घोष, २०. महाघोष, २१. चन्द्र, २२. सूर्य, २३. शक्र, २४. ईशान, २५. सनत्कुमार, यावत्‌ (२६. माहेन्द्र, २७. ब्रह्म, २८. लान्तक, २९. शुक्र, ३०. सहस्रार) ३१. प्रणत, ३२. अच्युत। कुन्थु अर्हत्‌ के बत्तीस अधिक बत्तीस सौ (३२३२) केवलि जिन थे। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति बत्तीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवी पृथ्वी में कितनेक नारकियों की स्थिति बत्तीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति बत्तीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बत्तीस पल्योपम है। जो देव विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उनमें से कितनेक देवों की स्थिति बत्तीस सागरोपम है। वे देव सोलह मासों के बाद आन – प्राण या उच्छ्‌वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों के बत्तीस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बत्तीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व कर्मों का अन्त करेंगे।

 

असुरेन्द्र असुरराज चमर की राजधानी चमरचंचा नगरी में प्रत्येक द्वार के बाहर तैंतीस – तैंतीस भौम (नगर के आकार वाले विशिष्ट स्थान) कहे गए हैं। महाविदेह वर्ष (क्षेत्र) कुछ अधिक तैंतीस हजार योजन विस्तार वाला है। जब सूर्य सर्वबाह्य मंडल से भीतर की ओर तीसरे मंडल पर आकर संचार करता है, तब वह इस भरत क्षेत्रगत मनुष्य के कुछ विशेष कम तैंतीस हजार योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति तैंतीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवी पृथ्वी के काल, महाकाल, रौरुक और महारौरुक नारकावासों के नारकों की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम कही गई है। उसी सातवी पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरक में नारकों की अजघन्य – अनुत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम स्थिति कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तैंतीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति तैंतीस पल्योपम है। विजय – वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार अनुत्तर विमानों में देवों की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम है। जो देव सर्वार्थसिद्ध नामक पाँचवे अनुत्तर महाविमान में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की अजघन्य – अनुत्कृष्ट स्थिति पूरे तैंतीस सागरोपम कही गई है। वे देव तैंतीस अर्धमासों के बाद आन – प्राण अथवा उच्छ्‌वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों के तैंतीस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव तैंतीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि सर्वार्थसिद्ध महाविमान के देव तो नियम से एक भव ग्रहण करके मुक्त होते हैं और विजयादि शेष चार विमानों के देवों में से कोई एक भव ग्रहण करके मुक्त होता है और कोई दो मनुष्य भव ग्रहण करके मुक्त होता है।

 

तीर्थंकर भगवंतों के चौंतीस अतिशय कहे गए हैं। जैसे – १. नख और केश आदि का नहीं बढ़ना। २. रोगादि से रहित, मल रहित निर्मल देहलता होना। ३. रक्त और माँस का गाय के दूध के समान श्वेत वर्ण होना। ४. पद्मकमल के समान सुगन्धित उच्छ्‌वास निःश्वास होना। ५. माँस – चक्षु से अदृश्य प्रच्छन्न आहार और नीहार होना। ६. आकाश में धर्मचक्र का चलना। ७. आकाश में तीन छत्रों का घूमते हुए रहना। ८. आकाश में उत्तम श्वेत चामरों का ढोला जाना। ९. आकाश के समान निर्मल स्फटिक मय पादपीठयुक्त सिंहासन का होना। १०. आकाश में हजार लघु पताकाओं से युक्त इन्द्रध्वज का आगे – आगे चलना। ११. जहाँ – जहाँ भी अरहंत भगवंत ठहरते या बैठते हैं, वहाँ – वहाँ यक्ष देवों के द्वारा पत्र, पुष्प, पल्लवों से व्याप्त, छत्र, ध्वजा, घंटा और पताका से युक्त श्रेष्ठ अशोक वृक्ष का निर्मित होना। १२. मस्तक के कुछ पीछे तेजमंडल (भामंडल) का होना, जो अन्धकार में भी दशों दिशाओं को प्रकाशित करता है। १३. जहाँ भी तीर्थंकरों का विहार हो, उस भूमिभाग का बहुसम और रमणीय होना। १४. विहार – स्थल के काँटों का अधोमुख हो जाना। १५. सभी ऋतुओं का शरीर के अनुकूल सुखद स्पर्श वाली होना। १६. जहाँ तीर्थंकर बिराजते हैं, वहाँ की एक योजन भूमि का शीतल, सुखस्पर्श – युक्त सुगन्धित पवन से सर्व ओर संप्रमार्जन होना। १७. मन्द, सुगन्धित जल – बिन्दुओं से मेघ के द्वारा भूमि का धूलि – रहित होना। १८. जल और स्थल में खिलने वाले पाँच वर्ण के पुष्पों से घुटने प्रमाण भूमिभाग के पुष्पोपचार होना, अर्थात्‌ आच्छादित किया जाना। १९. अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का अभाव होना। २०. मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का प्रादुर्भाव होना। २१. धर्मोपदेश के समय हृदय को प्रिय लगने वाला और एक योजन तक फैलने वाला स्वर होना। २२. अर्धमागधी भाषा में भगवान का धर्मोपदेश देना। २३. वह अर्धमागधी भाषा बोली जाती हुई सभी आर्य अनार्य पुरुषों के लिए तथा द्विपद पक्षी और चतुष्पद मृग, पशु आदि जानवरों के लिए और पेट के बल रेंगने वाले सर्पादि के लिए अपनी – अपनी हीतकर, शिवकर, सुखद भाषारूप से परिणत हो जाती है। २४. पूर्वबद्ध वैर वाले भी (मनुष्य) देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व और महोरग भी अरहंतों के पादमूल में प्रशान्त चित्त होकर हर्षित मन से धर्म श्रवण करते हैं। २५. अन्य तीर्थिक प्रावचनिक पुरुष भी आकर भगवान की वन्दना करते हैं। २६. वे वादी लोग भी अरहंत के पादमूल में वचन – रहित (निरुत्तर) हो जाते हैं। २७. जहाँ – जहाँ से भी अरहंत भगवंत विहार करते हैं, वहाँ – वहाँ पच्चीस योजन तक ईति – भीति नहीं होती है। २८. मनुष्यों को मारने वाली मारी (प्लेग आदि भयंकर बीमारी) नहीं होती है। २९. स्वचक्र (अपने राज्य की सेना) का भय नहीं होता। ३०. परचक्र (शत्रु की सेना) का भय नहीं होता। ३१. अतिवृष्टि (भारी जलवर्षा) नहीं होती। ३२. अनावृष्टि नहीं होती। ३३. दुभिक्ष (दुष्काल) नहीं होता। ३४. भगवान के विहार से पूर्व उत्पन्न हुई व्याधियाँ भी शीघ्र ही शान्त हो जाती है और रक्त – वर्षा आदि उत्पात नहीं होते हैं। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र चौंतीस कहे गए हैं। जैसे – महाविदेह में बत्तीस, भारत क्षेत्र एक और ऐरवत क्षेत्र एक। (इसी प्रकार) जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में चौंतीस दीर्घ वैताढ्य कहे गए हैं। जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्कृष्ट रूप से चौंतीस तीर्थंकर (एक साथ) उत्पन्न होते हैं। असुरेन्द्र असुरराज चमर के चौंतीस लाख भवनावास कहे गए हैं। पहली, पाँचवी, छठी और सातवी इन चार पृथ्वीयों में चौंतीस लाख नारकावास कहे गए हैं।