छह पृथ्वीयों में चौहत्तर लाख नारकावास

श्रमण भगवान महावीर चातुर्मास प्रमाण वर्षाकाल के बीस दिन अधिक एक मास (पचास दिन) व्यतीत हो जाने पर और सत्तर दिनों के शेष रहने पर वर्षावास करते थे। पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत्‌ परिपूर्ण सत्तर वर्ष तक श्रमण – पर्याय का पालन करके सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। वासुपूज्य अर्हत्‌ सत्तर धनुष ऊंचे थे। मोहनीय कर्म की अबाधाकाल से रहित सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम – प्रमाण कर्मस्थिति और कर्म – निषेक कहे गए हैं। देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र के सामानिक देव सत्तर हजार कहे गए हैं।

 

(पंच सांवत्सरिक युग के) चतुर्थ चन्द्र संवत्सर की हेमन्त ऋतु के इकहत्तर रात्रि – दिन व्यतीत होने पर सूर्य सबसे बाहरी मंडल (चार क्षेत्र) से आवृत्ति करता है। अर्थात्‌ दक्षिणायन से उत्तरायण की और गमन करना प्रारम्भ करता है। वीर्यप्रवाद पूर्व के इकहत्तर प्राभृत (अधिकार) कहे गए हैं। अजित अर्हन्‌ इकहत्तर लाख पूर्व वर्ष अगार – वास में रहकर मुण्डित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए। इसी प्रकार चातुरन्त चक्रवर्ती सगर राजा भी इकहत्तर लाख पूर्व वर्ष अगार – वास में रहकर मुण्डित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए।

 

सुपर्णकुमार देवों के बहत्तर लाख आवास (भवन) कहे गए हैं। लवण समुद्र की बाहरी वेला को बहत्तर हजार नाग धारण करते हैं। श्रमण भगवान महावीर बहत्तर वर्ष की सर्व आयु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त होकर सर्व दुःखों से रहित हुए। आभ्यन्तर पुष्करार्ध द्वीप में बहत्तर चन्द्र प्रकाश करते थे, प्रकाश करते हैं और आगे प्रकाश करेंगे। इसी प्रकार बहत्तर सूर्य तपते थे, तपते हैं और आगे तपेंगे। प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के बहत्तर हजार उत्तम पुर (नगर) कहे गए हैं। बहत्तर कलाएं कही गई हैं। जैसे – १. लेखकला, २. गणितकला, ३. रूपकला, ४. नाट्यकला, ५. गीतकला, ६. वाद्यकला, ७. स्वरगतकला, ८. पुष्करगतकला, ९. समतालकला, १०. द्युतकला, ११. जनवादकला, १२. सुरक्षाविज्ञान, १३. अष्टापदकला, १४. दकमृत्तिकाकला, १५. अन्नविधिकला, १६. पानविधिकला, १७. वस्त्रविधिकला, १८. शयनविधि, १९. आर्या – विधि, २०. प्रहेलिका, २१. मागधिका, २२. गाथाकला, २३. श्लोककला, २४. गन्धयुति। २५. मधुसिक्थ, २६. आभरणविधि, २७. तरुणीप्रतिकर्म, २८. स्त्रीलक्षण, २९. पुरुषलक्षण, ३०. अश्व – लक्षण, ३१. गजलक्षण, ३२. बलोकेलक्षण, ३३. कुर्क्कुटलक्षण, ३४. मेढ़लक्षण, ३५. चक्रलक्षण, ३६. छत्रलक्षण, ३७. दंडलक्षण, ३८. असिलक्षण, ३९. मणिलक्षण, ४०. काकणीलक्षण, ४१. चर्मलक्षण, ४२. चन्द्रचर्या, ४३. सूर्य – चर्या, ४४. राहुचर्या, ४५. ग्रहचर्या, ४६. सौभाग्यकर, ४७. दौर्भाग्यकर, ४८. विद्यागत। ४९. मन्त्रगत, ५०. रहस्यगत, ५१. सभास, ५२. चारकला, ५३. प्रतिचारकला, ५४. व्यूहकला, ५५. प्रति – व्यूहकला, ५६. स्कन्धावारमान, ५७. नगरमान, ५८. वास्तुमान, ५९. स्कन्धावारनिवेश, ६०. वस्तुनिवेश, ६१. नगर – निवेश, ६२. बाण चलाने की कला, ६३. तलवार की मूठ आदि बनाना, ६४. अश्वशिक्षा, ६५. हस्तिशिक्षा, ६६. धनु – र्वेद, ६७. हिरण्यपाक, ६८. बाहुयुद्ध, दंडयुद्ध, मुष्टियुद्ध, यष्टियुद्ध, सामान्य युद्ध, नियुद्ध, युद्धातियुद्ध आदि युद्धों का जानना, ६९. सूत्रखेड, नालिकाखेड, वर्त्तखेड, धर्मखेड, चर्मखेड आदि खेलों का जानना, ७०. पत्रच्छेद्य, कटकछेद्य, ७१. संजीवनी विद्या, ७२. पक्षियों की बोली जानना। सम्मूर्च्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति बहत्तर हजार वर्ष की कही गई है।

 

हरिवर्ष और रम्यकवर्ष की जीवाएं तेहत्तर – तेहत्तर हजार नौ सौ एक योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से साढ़े सत्तरह भाग प्रमाण लम्बी कही गई है। विजय बलदेव तेहत्तर लाख वर्ष की सर्व आयु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए।

 

स्थविर अग्निभूति गणधर चौहत्तर वर्ष की सर्व आयु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। निषध वर्षधर पर्वत के तिगिंछ द्रह से शीतोदा महानदी कुछ अधिक चौहत्तर सौ योजन उत्तराभिमुखी बह कर महान्‌ घटमुख से प्रवेश कर वज्रमयी, चार योजन लम्बी और पचास योजन चौड़ी जिह्विका से नीकलकर मुक्तावलि हार के आकार वाले प्रवाह से भारी शब्द के साथ वज्रतल वाले कुंड में गिरती है। इसी प्रकार सीता नदी भी नीलवन्त वर्षधर पर्वत के केशरी द्रह से कुछ अधिक चौहत्तर सौ योजन दक्षिणाभिमुखी बहकर महान घटमुख से प्रवेश कर वज्रमयी चार योजन लम्बी पचास योजन चौड़ी जिह्विका से नीकलकर मुक्तावली हार के आकार वाले प्रवाह से भारी शब्द के साथ वज्रतल वाले कुंड में गिरती है। चौथी को छोड़कर शेष छह पृथ्वीयों में चौहत्तर लाख नारकावास कहे गए हैं।