चौथी नरक पृथ्वी में दस लाख नरकावास हैं।

इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कितनेक नारकों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कितनेक नारकों की स्थिति दस पल्योपम की कही गई है। चौथी नरक पृथ्वी में दस लाख नरकावास हैं। चौथी पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति दस सागरोपम की होती है। पाँचवी पृथ्वी में किन्हीं – किन्हीं नारकों की जघन्य स्थिति दस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है। असुरेन्द्रों को छोड़कर कितनेक शेष भवनवासी देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति दश पल्योपम कही गई है। बादर वनस्पतिकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है। कितनेक वाणव्यन्तर देवों की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति दश पल्योपम कही गई है। ब्रह्मलोक कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपम कही गई है। लान्तककल्प में कितनेक देवों की जघन्य स्थिति दश सागरोपम कही गई है। वहाँ जो देव घोष, सुघोष, महाघोष, नन्दिघोष, सुस्वर, मनोरम, रम्य, रम्यक्‌, रमणीय, मंगलावर्त और ब्रह्म – लोकावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपम कही गई है। वे देव दश अर्धमासों (पाँच मासों) के बाद आन – प्राण या उच्छ्‌वास – निःश्वास लेते हैं, उन देवों के दश हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं, जो दश भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण प्राप्त करेंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।

 

उपासकों श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाएं कही गई हैं। जैसे – दर्शन श्रावक १, कृतव्रत – कर्मा २, सामायिककृत ३, पौषधोपवास – निरत ४, दिवा ब्रह्मचारी, रात्रि – परिमाणकृत ५, दिवा ब्रह्मचारी भी, रात्रि – ब्रह्मचारी भी, अस्नायी, विकट – भोजी और मौलिकृत ६, सचित्तपरिज्ञात ७, आरम्भपरिज्ञात ८, प्रेष्य – परिज्ञात ९, उद्दिष्टपरिज्ञात १० और श्रमणभूत ११। लोकान्त से एक सौ ग्यारह योजन के अन्तराल पर ज्योतिष्चक्र अवस्थित कहा गया है। जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत से ग्यारह सौ इक्कीस योजन के अन्तराल पर ज्योतिष्चक्र संचार करता है। श्रमण भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे – इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्म, मंडित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास। मूल नक्षत्र ग्यारह तारा वाला कहा गया है। अधस्तन ग्रैवेयक – देवों के विमान एक सौ ग्यारह कहे गए हैं। मन्दर पर्वत धरणी – तल से शिखर तल पर ऊंचाई की अपेक्षा ग्यारहवें भाग से हीन विस्तार वाला कहा गया है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति ग्यारह पल्योपम कही गई है। पाँचवी धूमप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति ग्यारह सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति ग्यारह पल्योपम कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति ग्यारह पल्योपम है। लान्तक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति ग्यारह सागरोपम है। वहाँ पर जो देव ब्रह्म, सुब्रह्म, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मप्रभ, ब्रह्मकान्त, ब्रह्मवर्ण, ब्रह्मलेश्य, ब्रह्म – ध्वज, ब्रह्मशृंग, ब्रह्मसृष्ट, ब्रह्मकूट और ब्रह्मोत्तरावतंसक नाम के विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की स्थिति ग्यारह सागरोपम है। वे देव ग्यारह अर्धमासों के बाद आन – प्राण या उच्छ्‌वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों को ग्यारह हजार वर्ष के बाद आहार की ईच्छा होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो ग्यारह भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।

 

बारह भिक्षु – प्रतिमाएं कही गई हैं। जैसे – एकमासिकी भिक्षुप्रतिमा, दो मासिकी भिक्षुप्रतिमा, तीन मासिकी भिक्षुप्रतिमा, चार मासिकी भिक्षुप्रतिमा, पाँच मासिकी भिक्षुप्रतिमा, छह मासिकी भिक्षुप्रतिमा, सात मासिकी भिक्षुप्रतिमा, प्रथम सप्तरात्रिदिवा भिक्षुप्रतिमा, द्वीतिय सप्तरात्रि – दिवा प्रतिमा, तृतीय सप्तरात्रि दिवा प्रतिमा, अहोरात्रिक भिक्षुप्रतिमा और एकरात्रिक भिक्षुप्रतिमा।

 

सम्भोग बारह प्रकार का है – १. उपधि – विषयक सम्भोग, २. श्रुत – विषयक सम्भोग, ३. भक्त – पान विषयक सम्भोग, ४. अंजली – प्रग्रह सम्भोग, ५. दान – विषयक सम्भोग, ६. निकाचन – विषयक सम्भोग, ७. अभ्युत्थान – विषयक सम्भोग। ८. कृतिकर्म – करण सम्भोग, ९. वैयावृत्य – करण सम्भोग, १०. समवसरण – सम्भोग, ११. संनिषद्या – सम्भोग और १२. कथा – प्रबन्धन सम्भोग।

 

जम्बूद्वीप के पूर्वदिशावर्ती विजयद्वार के स्वामी विजयदेव की विजया राजधानी बारह लाख योजन आयाम – विष्कम्भ वाली है। राम नाम के बलदेव बारह सौ वर्ष पूर्ण आयु का पालन कर देवत्व को प्राप्त हुए। मन्दर पर्वत की चूलिका मूल में बारह योजन विस्तार वाली है। जम्बूद्वीप की वेदिका मूल में बारह योजन विस्तार वाली है। सर्व जघन्य रात्रि (सब से छोटी रात) बारह मुहूर्त्त की होती है। इसी प्रकार सबसे छोटा दिन भी बारह मुहूर्त्त का जानना चाहिए। सर्वार्थसिद्ध महाविमान की उपरिम स्तूपिका (चूलिका) से बारह योजन ऊपर ईषत्‌ प्राग्भार नामक पृथ्वी कही गई है। ईषत्‌ प्राग्भार पृथ्वी के बारह नाम कहे गए हैं। जैसे – ईषत्‌ पृथ्वी, ईषत्‌ प्राग्भार पृथ्वी, तनु पृथ्वी, तनु – तरी पृथ्वी, सिद्ध पृथ्वी, सिद्धालय, मुक्ति, मुक्तालय, ब्रह्म, ब्रह्मावतंसक, लोकप्रतिपूरणा और लोकाग्रचूलिका। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई है। पाँचवी धूमप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति बारह सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई है। लान्तक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति बारह सागरोपम है। वहाँ जो देव माहेन्द्र, माहेन्द्रध्वज, कम्बु, कम्बुग्रीव, पुंख, सुपुंख, महापुंख, पुंड, सुपुंड, महापुंड, नरेन्द्र, नरेन्द्रकान्त और नरेन्द्रोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उनकी उत्कृष्ट स्थिति बारह सागरोपम कही गई है। वे देव छह मासों के बाद आन – प्राण या उच्छ्‌वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों के बारह हजार वर्ष के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बारह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।