चक्रवर्ती राजा के छयानवे – छयानवे करोड़ ग्राम

निषध और नीलवन्त वर्षधर पर्वतों की जीवाएं चौरानवे हजार एक सौ छप्पन योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में से दो भाग प्रमाण लम्बी कही गई हैं। अजित अर्हत्‌ के संघ में ९४०० अवधिज्ञानी थे।

 

सुपार्श्व अर्हत्‌ के पंचानवे गण और पंचानवे गणधर थे। इस जम्बूद्वीप के चरमान्त भाग से चारों दिशाओं में लवण समुद्र के भीतर पंचानवे – पंचानवे हजार योजन अवगाहन करने पर चार महापाताल हैं। जैसे – १. वड़वामुख, २. केतुक, ३. यूपक और ४. ईश्वर। लवण समुद्र के उभय पार्श्व पंचानवे – पंचानवे प्रदेश पर उद्वेध (गहराई) और उत्सेध (ऊंचाई) वाले कहे गए हैं। कुन्थु अर्हत्‌ पंचानवे हजार वर्ष की परमायु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, कर्ममुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। स्थविर मौर्यपुत्र पंचानवे वर्ष की आयु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, कर्ममुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए।

 

प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के छयानवे – छयानवे करोड़ ग्राम थे। वायुकुमार देवों के छयानवे लाख आवास (भवन) कहे गए हैं। व्यावहारिक दण्ड अंगुल के माप से छयानवे अंगुल – प्रमाण होता है। इसी प्रकार धनुष, नालिका, युग, अक्ष और मुशल भी जानना चाहिए। आभ्यन्तर मण्डल पर सूर्य के संचार करते समय आदि (प्रथम) मुहूर्त्त छयानवे अंगुल की छाया वाला कहा गया है।

 

मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त भाग से गोस्तुभ आवास – पर्वत का पश्चिमी चरमान्त भाग सतानवे हजार योजन अन्तर वाला कहा गया है। इसी प्रकार चारों ही दिशाओं में जानना चाहिए। आठों कर्मों की उत्तर प्रकृतियाँ सतानवे कही गई हैं। चातुरन्त चक्रवर्ती हरिषेण राजा कुछ कम ९७०० वर्ष अगार – वास में रहकर मुण्डित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए।

 

नन्दनवन के ऊपरी चरमान्त भाग से पांडुक वन के नीचले चरमान्त भाग का अन्तर अट्ठानवे हजार योजन का है। मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त भाग से गोस्तुभ आवास पर्वत का पूर्वी चरमान्त भाग अट्ठानवे हजार योजन अन्तर वाला कहा गया है। इसी प्रकार चारों ही दिशाओं में अवस्थित आवास पर्वतों का अन्तर जानना चाहिए। दक्षिण भरतक्षेत्र का धनःपृष्ठ कुछ कम ९८०० योजन आयाम (लम्बाई) की अपेक्षा कहा गया है। उत्तर दिशा से सूर्य प्रथम छह मास दक्षिण की ओर आता हुआ उनचासवे मंडल के उपर आकर मुहूर्त्त के इकसठिये अट्ठानवे भाग दिवस क्षेत्र (दिन) के घटाकर और रजनी – क्षेत्र (रात) के बढ़ाकर संचार करता है। इसी प्रकार दक्षिण दिशा से सूर्य दूसरे छह मास उत्तर की ओर जाता हुआ उनचासवे मंडल के ऊपर आकर मुहूर्त्त के अट्ठानवे इकसठ भाग रजनीक्षेत्र (रात) के घटाकर और दिवस क्षेत्र (दिन) के बढ़ाकर संचार करता है। रेवती से लेकर ज्येष्ठा तक के उन्नीस नक्षत्रों के तारे अट्ठानवे हैं।

 

मन्दर पर्वत निन्यानवे हजार योजन ऊंचा कहा गया है। नन्दनवन के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त ९९०० योजन अन्तर वाला कहा गया है। इसी प्रकार नन्दनवन के दक्षिणी चरमान्त से उत्तरी चरमान्त ९९०० योजन अन्तर वाला है। उत्तर दिशा में सूर्य का प्रथम मंडल आयाम – विष्कम्भ की अपेक्षा कुछ अधिक निन्यानवे हजार योजन कहा गया है। दूसरा सूर्य – मंडल भी आयाम – विष्कम्भ की अपेक्षा कुछ अधिक निन्यानवे हजार योजन कहा गया है। तीसरा सूर्यमंडल भी आयाम – विष्कम्भ की अपेक्षा कुछ अधिक निन्यानवे हजार योजन कहा गया है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अंजन कांड के अधस्तन चरमान्त भाग से वाणव्यन्तर भौमेयक देवों के विहारों (आवासों) का उपरिम अन्तभाग ९९०० योजन अन्तर वाला कहा गया है।

 

दशदशमिका भिक्षुप्रतिमा एक सौ रात – दिनों में और साढ़े पाँचसौ भिक्षादत्तियों से यथासूत्र, यथामार्ग, यथातत्त्व से स्पृष्ट, पालित, शोभित, तीरित, कीर्तित और आराधित होती है। शतभिषक्‌ नक्षत्र के एक सौ तारे होते हैं। सुविधि पुष्पदन्त अर्हत्‌ सौ धनुष ऊंचे थे। पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत्‌ एक सौ वर्ष की समग्र आयु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, कर्ममुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो सर्व दुःखों से रहित हुए। इसी प्रकार स्थविर आर्य सुधर्मा भी सौ वर्ष की सर्व आयु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, कर्ममुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो सर्व दुःखों से रहित हुए। सभी दीर्घ वैताढ्य पर्वत एक – एक सौ गव्यूति ऊंचे हैं। सभी क्षुल्लक हिमवन्त और शिखरी वर्षधर पर्वत एक – एक सौ योजन ऊंचे हैं। तथा ये सभी वर्षधर पर्वत सौ – सौ गव्यूति उद्वेध वाले हैं। सभी कांचनक पर्वत एक – एक सौ योजन ऊंचे कहे गए हैं तथा वे सौ – सौ गव्यूति उद्वेध वाले और मूल में एक – एक सौ योजन विष्कम्भ वाले हैं।