ब्रह्मचर्य अठारह प्रकार का है। औदारिक (शरीर वाले मनुष्य – तिर्यंचों के) कामभोगों को नहीं मन से स्वयं सेवन करता है, नहीं अन्य को मन से सेवन कराता है और न मन से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है। औदारिक – कामभोगों को नहीं वचन से स्वयं सेवन करता है, नहीं अन्य को वचन से सेवन कराता है और नहीं सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना करता है। औदारिक – कामभोगों को नहीं स्वयं काय से सेवन करता है, नहीं अन्य को काय से सेवन कराता है और नहीं काय से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है। दिव्य काम – भोगों को नहीं स्वयं मन से सेवन करता है, नहीं अन्य को मन से सेवन कराता है और नहीं मन से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है। दिव्य कामभोगों को नहीं स्वयं वचन से सेवन करता है, नहीं अन्य को वचन से सेवन कराता है और नहीं सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना करता है। दिव्य कामभोगों को नहीं स्वयं काय से सेवन करता है, नहीं अन्य को काय से सेवन कराता है और नहीं काय से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है। अरिष्टनेमि अर्हन्त की उत्कृष्ट श्रमण – सम्पदा अठारह हजार साधुओं की थी। श्रमण भगवान महावीर ने सक्षुद्रक – व्यक्त – सभी श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अठारह स्थान कहे हैं।
चूलिका – सहित भगवद – आचाराङ्ग सूत्र पद – प्रमाण से अठारह हजार पद हैं। ब्राह्मीलिपि के लेखन विधान अठारह प्रकार के कहे गए हैं। जैसे ब्राह्मीलिपि, यावनीलिपि, दोषउपरि कालिपि, खरोष्ट्रिकालिपि, खरशाविकालिपि, प्रहारातिकालिपि, उच्चत्तरिकालिपि, अक्षरपृष्ठिकालिपि, भोगवति कालिपि, वैणकियालिपि, निह्नविकालिपि, अंकलिपि, गणितलिपि, गन्धर्वलिपि (भूतलिपि), आदर्शलिपि, माहेश्वरीलिपि, दामिलिपि, पोलिन्दीलिपि। अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व के अठारह वस्तु नामक अर्थाधिकार कहे गए हैं। धूमप्रभा नामक पाँचवी पृथ्वी की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजन है। पौष और आषाढ़ मास में एक बार उत्कृष्ट रात और दिन अठारह मुहूर्त्त के होते हैं। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की उत्कृष्ट स्थिति अठारह पल्योपम कही गई है। कितनेक असुर – कुमार देवों की स्थिति अठारह पल्योपम कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति अठारह पल्योपम है। सहस्रार कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति अठारह सागरोपम है। आनत कल्प में कितनेक देवों की जघन्य स्थिति अठारह सागरोपम है। वहाँ जो देव काल, सुकाल, महाकाल, अंजन, रिष्ट, साल, समान, द्रुम, महाद्रुम, विशाल, सुशाल, पद्म, पद्मगुल्म, कुमुदगुल्म, नलिन, नलिनगुल्म, पुण्डरीक, पुण्डरीकगुल्म और सहस्रारावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की स्थिति अठारह सागरोपम कही गई है। वे देव नौ मासों के बाद आन – प्राण या उच्छ्वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों के अठारह हजार वर्ष के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो अठारह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के (प्रथम श्रुतस्कन्ध के) उन्नीस अध्ययन कहे गए हैं। जैसे – १. उत्क्षिप्तज्ञात, २. संघाट, ३. अंड, ४. कूर्म, ५. शैलक, ६. तुम्ब, ७. रोहिणी, ८. मल्ली, ९. माकंदी, १०. चन्द्रिमा। ११. दावद्रव, १२. उदकज्ञात, १३. मंडूक, १४. तेतली, १५. नन्दिफल, १६. अपरकंका, १७. आकीर्ण, १८. सुंसुमा और १९. पुण्डरीकज्ञात।
जम्बूद्वीप में सूर्य उत्कृष्ट एक हजार नौ सौ योजन ऊपर और नीचे तपते हैं। शुक्र महाग्रह पश्चिम दिशा से उदित होकर उन्नीस नक्षत्रों के साथ सहगमन करता हुआ पश्चिम दिशा में अस्तगत होता है। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप की कलाएं उन्नीस छेदनक (भागरूप) कही गई हैं। उन्नीस तीर्थंकर अगार – वास में रहकर फिर मुंडित होकर अगार से अनगार प्रव्रज्या को प्राप्त हुए – गृहवास त्यागकर दीक्षित हुए। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति उन्नीस पल्योपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति उन्नीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति उन्नीस पल्योपम है। आनत कल्प में कितनेक देवों की उत्कृष्ट स्थिति उन्नीस सागरोपम है। प्राणत कल्प में कितनेक देवों की जघन्य स्थिति उन्नीस सागरोपम कही गई है। वहाँ जो देव आनत, प्राणत, नत, विनत, घन, सुषिर, इन्द्र, इन्द्रकान्त और इन्द्रोत्तरावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति उन्नीस सागरोपम कही गई है। वे देव साढ़े नौ मासों के बाद आन – प्राण या उच्छ्वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों के उन्नीस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो उन्नीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
बीस असमाधिस्थान हैं। १. दव – दव करते हुए जल्दी जल्दी चलना, २. अप्रमार्जितचारी होना, ३. दुष्प्रमार्जितचारी होना, ४. अतिरिक्त शय्या आसन रखना, ५. रात्निक साधुओं का पराभव करना, ६. स्थविर साधुओं को दोष लगाकर उनका उपघात या अपमान करना, ७. भूतों (एकेन्द्रिय जीवों) का व्यर्थ उपघात करना, ८. सदा रोष – युक्त प्रवृत्ति करना, ९. अतिक्रोध करना, १०. पीठ पीछे दूसरे का अवर्णवाद करना, ११. सदा ही दूसरों के गुणों का विलोप करना, जो व्यक्ति दास या चोर नहीं है, उसे दास या चोर आदि कहना, १२. नित्य नए अधिकरणों को उत्पन्न करना। १३. क्षमा किये हुए या उपशान्त हुए अधिकरणों को पुनः पुनः जागृत करना, १४. सरजस्क हाथ – पैर रखना, सरजस्क हाथ वाले व्यक्ति से भिक्षा ग्रहण करना और सरजस्क स्थण्डिल आदि पर चलना, सरजस्क आसनादि पर बैठना, १५. अकाल में स्वाध्याय करना और काल में स्वाध्याय नहीं करना, १६. कलह करना, १७. रात्रि में उच्च स्वर से स्वाध्याय और वार्तालाप करना, १८. गण या संघ में फूट डालने वाले वचन बोलना, १९. सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक खाते – पीते रहना तथा २०. एषणासमिति का पालन नहीं करना और अनैषणीय भक्त – पान को ग्रहण करना। मुनिसुव्रत अर्हत् बीस धनुष ऊंचे थे। सभी घनोदधिवातवलय बीस हजार योजन मोटे कहे गए हैं। प्राणत देवराज देवेन्द्र के सामानिक देव बीस हजार कहे गए हैं। नपुंसक वेदनीय कर्म की, नवीन कर्मबन्ध की अपेक्षा स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम कही गई है। प्रत्याख्यान पूर्व के बीस वस्तु नामक अर्थाधिकार कहे गए हैं। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी मंडल (आर – चक्र) बीस कोड़ा – कोड़ी सागरोपम काल परिमित कहा गया है। अभिप्राय यह है कि दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का अवसर्पिणी काल मिलकर बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक कालचक्र कहलाता है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति बीस पल्योपम कही गई है। छठी तमःप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति बीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति बीस पल्योपम की कही गई है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बीस पल्योपम है। प्राणत कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम है। आरण कल्प में देवों की जघन्य स्थिति बीस सागरोपम है। वहाँ जो देव सात, विसात, सुविसात, सिद्धार्थ, उत्पल, भित्तिल, तिगिंछ, दिशासौवस्तिक, प्रलम्ब, रुचिर, पुष्प, सुपुष्प, पुष्पावर्त्त, पुष्पप्रभ, पुष्पदकान्त, पुष्पवर्ण, पुष्पलेश्य, पुष्पध्वज, पुष्पशृंग, पुष्पसिद्ध (पुष्पसृष्ट) और पुष्पोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम है। वे देव दश मासों के बाद आन – प्राण या उच्छ्वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों की बीस हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परमनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।