जब सूर्य सबसे भीतरी मण्डल में आकर संचार करता है, तब इस भरत क्षेत्रगत मनुष्य को सैंतालीस हजार दो सौ तिरेसठ योजन और एक योजन के साठ भागों में इक्कीस भाग की दूरी से सूर्य दृष्टिगोचर होता है। अग्निभूति स्थविर तैंतालीस वर्ष गृहवास में रहकर मुण्डित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए।
प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के अड़तालीस हजार पट्टण कहे गए हैं। धर्म अर्हत् के अड़तालीस गण और अड़तालीस गणधर थे। सूर्यमण्डल एक योजन के इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग प्रमाण विस्तार वाला कहा गया है।
सप्त – सप्तमिका भिक्षुप्रतिमा उनचास रात्रि – दिवसों से और एक सौ छियानवे भिक्षाओं से यथासूत्र यथामार्ग से (यथाकल्प से, यथातत्व से, सम्यक् प्रकार काय से स्पर्श कर, पालकर, शोधन कर, पार कर, कीर्तन कर, आज्ञा से अनुपालन करे) आराधित होती है। देवकुरु और उत्तरकुरु में मनुष्य उनचास रात – दिनों में पूर्ण यौवन से सम्पन्न होते हैं। त्रीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट स्थिति उनचास रात – दिन की कही गई है।
मुनिसुव्रत अर्हत् के संघ में पचास हजार आर्यिकाएं थीं। अनन्तनाथ अर्हत् पचास धनुष ऊंचे थे। पुरुषोत्तम वासुदेव पचास धनुष ऊंचे थे। सभी दीर्घ वैताढ्य पर्वत मूल में पचास योजन विस्तार वाले कहे गए हैं। लान्तक कल्प में पचास हजार विमानावास कहे गए हैं। सभी तिमिस्र गुफाएं और खण्डप्रपात गुफाएं पचास – पचास योजन लम्बी कही गई हैं। सभी कांचन पर्वत शिखरतल पर पचास – पचास योजन विस्तार वाले कहे गए हैं।
नवों ब्रह्मचर्यों के इक्यावन उद्देशन काल कहे गए हैं। असुरेन्द्र असुरराज चमर की सुधर्मा सभा इक्यावन सौ खम्भों से रचित है। इसी प्रकार बलि की सभा भी जानना चाहिए। सुप्रभ बलदेव इक्यावन हजार वर्ष की परमायु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। दर्शनावरण और नाम कर्म इन दोनों कर्मों की इक्यावन उत्तर कर्मप्रकृतियाँ हैं।
मोहनीय कर्म के बावन नाम कहे गए हैं। जैसे – क्रोध, कोप, रोष, द्वेष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, चंडिक्य, भंडन, विवाद, मान, मद, दर्प, स्तम्भ, आत्मोत्कर्ष, गर्व, परपरिवाद, अपकर्ष, परिभव, उन्नत, उन्नाम, माया, उपधि, निकृति, वलय, गहन, न्यवम, कल्क, कुरुक, दंभ, कूट, जिम्ह, किल्बिष, अनाचरणता, गूहनता, वंचनता, पलिकुंच – नता, सातियोग, लोभ, ईच्छा, मूर्च्छा, कांक्षा, गृद्धि, तृष्णा, भिध्या, अभिध्या, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा, नन्दी, राग। गोस्तूभ आवास पर्वत के पूर्वी चरमान्त भाग से वडवामुख महापाताल का पश्चिमी चरमान्त बाधा के बिना बावन हजार योजन अन्तर वाला कहा गया है। इसी प्रकार लवण समुद्र के भीतर अवस्थित दकभास केतुक का, शंख नामक जूपक का और दकसीम नामक ईश्वर का, इन चारों महापाताल कलशों का भी अन्तर जानना चाहिए ज्ञानावरणीय, नाम और अन्तराय इन तीनों कर्मप्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियाँ बावन हैं। सौधर्म, सनत्कुमार और माहेन्द्र इन तीन कल्पों में बावन लाख विमानावास हैं।
देवकुरु और उत्तरकुरु की जीवाएं तिरेपन – तिरेपन हजार योजन से कुछ अधिक लम्बी कही गई हैं। महा – हिमवन्त और रुक्मी वर्षधर पर्वतों की जीवाएं तिरेपन – तिरेपन हजार नौ सौ इकतीस योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग प्रमाण लम्बी कही गई हैं। श्रमण भगवान महावीर के तिरेपन अनगार एक वर्ष श्रमणपर्याय पालकर महान् विस्तीर्ण एवं अत्यन्त सुखमय पाँच अनुत्तर महाविमानों में देवरूप में उत्पन्न हुए। सम्मूर्च्छिम उरपरिसर्प जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तिरेपन हजार वर्ष कही गई है।