ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियाँ (संरक्षिकाएं) कही गई हैं। जैसे – स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शय्या और आसन का सेवन नहीं करना, स्त्रियों की कथाओं को नहीं करना, स्त्रीगणों का उपासक नहीं होना, स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों और रमणीय अंगों का द्रष्टा और ध्याता नहीं होना, प्रणीत – रस – बहुल भोजन का नहीं करना, अधिक मात्रा में खान – पान या आहार नहीं करना, स्त्रियों के साथ की गई पूर्व रति और पूर्व क्रीड़ाओं का स्मरण नहीं करना, कामोद्दीपक शब्दों को नहीं सूनना, कामोद्दीपक रूपों को नहीं देखना, कामोद्दीपक गन्धों को नहीं सूँघना, कामो – द्दीपक रसों का स्वाद नहीं लेना, कामोद्दीपक रसों का स्वाद नहीं लेना, कामोद्दीपक कोमल मृदुशय्यादि का स्पर्श नहीं करना और सातावेदनीय के उदय से प्राप्त सुख में प्रतिबद्ध (आसक्त) नहीं होना। ब्रह्मचर्य की नौ अगुप्तियाँ (विनाशिकाएं) कही गई हैं। जैसे – स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शय्या और आसन का सेवन करना १, स्त्रियों की कथाओं को कहना – स्त्रियों सम्बन्धी बातें करना २, स्त्रीगणों का उपासक होना ३, स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों और मनोरम अंगों को देखना और उनका चिन्तन करना ४, प्रणीत – रस – बहुल गरिष्ठ भोजन करना ५, अधिक मात्रा में आहार – पान करना ६, स्त्रियों के साथ की गई पूर्व रति और पूर्व क्रीड़ाओं का स्मरण करना ७, कामोद्दीपक शब्दों को सूनना, कामोद्दीपक रूपों को देखना, कामोद्दीपक गन्धों को सूँघना, कामोद्दीपक रसों का स्वाद लेना, कामोद्दीपक कोमल मृदुशय्यादि का स्पर्श करना ८ और सातावेदनीय के उदय से प्राप्त सुख में प्रतिबद्ध (आसक्त) होना ९। नौ ब्रह्मचर्य अध्ययन कहे गए हैं। जैसे – 1. शस्त्रपरिज्ञा, 2. लोकविजय, 3. शीतोष्णीय, 4. सम्यक्त्व, 5. आवन्ती, 6. धूत, 7. विमोह, 8. उपधानश्रुत और 9. महापरिज्ञा I
पुरुषादानीय पार्श्वनाथ तीर्थंकर नौ रत्नी (हाथ) ऊंचे थे। अभिजित् नक्षत्र कुछ अधिक नौ मुहूर्त्त तक चन्द्रमा के साथ योग करता है। अभिजित् आदि नौ नक्षत्र चन्द्रमा का उत्तर दिशा की ओर से योग करते हैं। वे नौ नक्षत्र अभिजित् से लगाकर भरणी तक जानना चाहिए। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से नौ सौ योजन ऊपर अन्तर करके उपरितन भाग में ताराएं संचार करती हैं। जम्बूद्वीप नामक द्वीप में नौ योजन वाले मत्स्य भूतकाल में नदीमुखों से प्रवेश करते थे, वर्तमान में प्रवेश करते हैं और भविष्य में प्रवेश करेंगे। जम्बूद्वीप के विजय नामक पूर्व द्वार की एक – एक बाहु (भूजा) पर नौ – नौ भौम (विशिष्ट स्थान या नगर) कहे गए हैं। वाणव्यन्तर देवों की सुधर्मा नाम की सभाएं नौ योजन ऊंची कही हैं। दर्शनावरणीय कर्म की नौ उत्तर प्रकृतियाँ हैं। निद्रा, प्रचला, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानर्द्वि, चक्षुदर्श – नावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति नौ पल्योपम है। चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति नौ सागरोपम है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति नौ पल्योपम है। सौधर्म – ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति नौ पल्योपम है। ब्रह्मलोक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति नौ सागरोपम है। वहाँ जो देव पक्ष्म, सुपक्ष्म, पक्ष्मावर्त, पक्ष्मप्रभ, पक्ष्मकान्त, पक्ष्मवर्ण, पक्ष्मलेश्य, पक्ष्म – ध्वज, पक्ष्मशृंग, पक्ष्मसृष्ट, पक्ष्मकूट, पक्ष्मोत्तरावतंसक तथा सूर्य, सुसूर्य, सूर्यावर्त, सूर्यप्रभ, सूर्यकान्त, सूर्यवर्ण, सूर्यलेश्य, सूर्यध्वज, सूर्यशृंग, सूर्यसृष्ट, सूर्यकूट, सूर्योत्तरावतंसक, (रुचिर) रुचिरावर्त, रुचिरप्रभ, रुचिरकान्त, रुचिरवर्ण, रुचिरलेश्य, रुचिरध्वज, रुचिरशृंग, रुचिरसृष्ट, रुचिरकूट और रुचिरोत्तरावतंसक नाम वाले विमानों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं, उन देवों की स्थिति नौ सागरोपम कही गई है। वे देव नौ अर्धमासों (साढ़े चार मासों) के बाद आन – प्राण – उच्छ्वास – निःश्वास लेते हैं। उन देवों को नौ हजार वर्षों के बाद आहार की ईच्छा होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो नौ भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण प्राप्त करेंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
श्रमण धर्म दस प्रकार का कहा गया है। जैसे – क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्यवास। चित्त – समाधि के दश स्थान कहे गए हैं। जैसे – जो पूर्व काल में कभी उत्पन्न नहीं हुई, ऐसी सर्वज्ञ – भाषित श्रुत और चारित्ररूप धर्म को जानने की चिन्ता का उत्पन्न होना यह चित्त की समाधि या शान्ति के उत्पन्न होने का पहला स्थान है (१)। जैसा पहले कभी नहीं देखा, ऐसे यथातथ्य स्वप्न का देखना चित्त – समाधि का दूसरा स्थान है (२)। जैसा पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा पूर्व भव का स्मरण करने वाला संज्ञिज्ञान होना यह चित्त – समाधि का तीसरा स्थान है। पूर्व भव का स्मरण होने पर संवेग और निर्वेद के साथ चित्त में परम प्रशमभाव जागृत होता है (३)। जैसा पहले कभी नहीं हुआ, ऐसा देव – दर्शन होना, देवों की दिव्य वैभव – परिवार आदिरूप ऋद्धि का देखना, देवों की दिव्य द्युति (शरीर और आभूषणादि की दीप्ति) का देखना और दिव्य देवानुभाव (उत्तम विक्रियादि के प्रभाव) को देखना यह चित्त – समाधि का चौथा स्थान है, क्योंकि ऐसा देव – दर्शन होने पर धर्म में दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होती है (४)। जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा लोक प्रत्यक्ष जानने वाला अवधिज्ञान उत्पन्न होना वह चित्त – समाधि का पाँचवा स्थान है। अवधिज्ञान के उत्पन्न होने पर मन में एक अपूर्व शान्ति और प्रसन्नता प्रकट होती है (५)। जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा लोक को प्रत्यक्ष देखने वाला अवधिदर्शन उत्पन्न होना यह चित्त – समाधि का छठा स्थान है (६)। जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा (अढ़ाई द्वीप – समुद्रवर्ती संज्ञी, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक) जीवों के मनोगत भावों को जानने वाला मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होना यह चित्त – समाधि का सातवा स्थान है (७)। जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा सम्पूर्ण लोक को प्रत्यक्ष (त्रिकालवर्ती पर्यायों के साथ) जानने वाला केवलज्ञान उत्पन्न होना यह चित्त – समाधि का आठवा स्थान हे (८)। जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा (सर्व चराचर) लोक को देखने वाला केवल – दर्शन उत्पन्न होना, यह चित्त – समाधि का नौवा स्थान है (९)। सर्व दुःखों के विनाशक केवलिमरण से मरना यह चित्त – समाधि का दशवा स्थान है (१०)। इसके होने पर यह आत्मा सर्व सांसारिक दुःखों से मुक्त हो सिद्ध बुद्ध होकर अनन्त सुख को प्राप्त हो जाता है। मन्दर (सुमेरु) पर्वत मूल में दश हजार योजन विष्कम्भ (विस्तार) वाला कहा गया है। अरिष्टनेमि तीर्थंकर दश धनुष ऊंचे थे। कृष्ण वासुदेव दश धनुष ऊंचे थे। राम बलदेव दश धनुष ऊंचे थे।
दश नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करने वाले कहे गए हैं, यथा – मृगशिर, आर्द्रा, पुष्य, तीनों पूर्वाएं (पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वा भाद्रपदा) मूल, आश्लेषा, हस्त और चित्रा।
अकर्मभूमिज मनुष्यों के उपभोग के लिए दश प्रकार के वृक्ष (कल्पवृक्ष) उपस्थित रहते हैं। जैसे – मद्यांग, भृंग, तूर्यांग, दीपांग, ज्योतिरंग, चित्रांग, चित्तरस, मण्यंग, गेहाकार और अनग्नांग।