जो मूर्च्छारहित है। आरंभ और परिग्रह रहित है। तथा क्रोध – मान – माया – लोभ से विरत है। वही श्रमण है। एक असंयम, राग और द्वेष दो, तीन दण्ड, तीन गौरव, तीन गुप्ति, तीन विराधना, चार कषाय – चार ध्यान – चार संज्ञा – चार विकथा, पाँच क्रिया – पाँच समिति – पाँच महाव्रत छह जीवनिकाय, छह लेश्या, सात भय, आठ मद, नव ब्रह्मचर्यगुप्ति, दशविध श्रमणधर्म, एकादश उपासकप्रतिमा, बारह भिक्षुप्रतिमा, तेरह क्रियास्थान, चौदह भूतग्राम, पंद्रह परमाधामी, सोलह गाथा अध्ययन, सत्तरहविध असंयम, अट्ठारह अब्रह्म, एगूणवीस ज्ञात अध्ययन, बीस असमाधि स्थान, एकवीस शबलदोष, बाईस परीषह, तेईस सूत्रकृत अध्ययन, चोबीस देव, पंचवीस भावना, छब्बीस दसा कल्प व्यवहार उदेसनकाल सत्ताईस अनगारगुण, अट्ठाईस आचार प्रकल्प एगूणतीस पापश्रुतप्रसंग, तीस मोहनीयस्थान, इकतीस सिद्धों के गुण, बत्तीस योग संग्रह और तैंतीस आशातना – इन सब संख्या वाले पदार्थों में तथा इसी प्रकार के अन्य पदार्थों में, जो जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित हैं तथा शाश्वत अवस्थित और सत्य हैं, किसी प्रकार की शंका या कांक्षा न करके हिंसा आदि से निवृत्ति करनी चाहिए एवं विशिष्ट एकाग्रता धारण करनी चाहिए। इस प्रकार नियाणा से रहित होकर, ऋद्धि आदि के गौरव से दूर रह कर, निर्लोभ होकर तथा मूढ़ता त्याग कर जो अपने मन, वचन और काय को संवृत्त करता हुआ श्रद्धा करता है, वही वास्तव में साधु है।
श्रीवीरवर – महावीर के वचन से की गई परिग्रहनिवृत्ति के विस्तार से यह संवरवर – पादप बहुत प्रकार का है। सम्यग्दर्शन इसका विशुद्ध मूल है। धृति इसका कन्द है। विनय इसकी वेदिका है। तीनों लोकों में फैला हुआ विपुल यश इसका सघन, महान और सुनिर्मित स्कन्ध है। पाँच महाव्रत इसकी विशाल शाखाएं हैं। भावनाएं इस संवरवृक्ष की त्वचा है। धर्मध्यान, शुभयोग तथा ज्ञान रूपी पल्लवों के अंकुरों को यह धारण करने वाला है। बहु – संख्यक उत्तरगुण रूपी फूलों से यह समृद्ध है। यह शील के सौरभ से सम्पन्न है और वह सौरभ ऐहिक फल की वाञ्छा से रहित सत्प्रवृत्तिरूप है। यह संवरवृक्ष अनास्रव फलों वाला है। मोक्ष की इसका उत्तम बीजसार है। यह मेरु पर्वत के शिखर पर चूलिका के समान मोक्ष के निर्लोभता स्वरूप मार्ग का शिखर है। इस प्रकार का अपरिग्रह रूप उत्तम संवरद्वार रूपी जो वृक्ष है, वह अन्तिम संवरद्वार है। ग्राम, आकर, नगर, खेड़, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन अथवा आश्रम में रहा हुआ कोई भी पदार्थ हो, चाहे वह अल्प मूल्य वाला हो या बहुमूल्य हो, प्रमाण में छोटा हो अथवा बड़ा हो, वह भले त्रसकाय हो या स्थावर काय हो, उस द्रव्यसमूह को मन से भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, चाँदी, सोना, क्षेत्र, वास्तु भी ग्रहण करना नहीं कल्पता। दासी, दास, भृत्य, प्रेष्य, घोड़ा, हाथी, बैल आदि भी ग्रहण करना नहीं कल्पता। यान, गाड़ी, युग्य, शयन और छत्र भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, न कमण्डलु, न जूता, न मोरपींछी, न वीजना और तालवृन्त ग्रहण करना कल्पता है। लोहा, रांगा, तांबा, सीसा, कांसा, चाँदी, सोना, मणि और मोती का आधार सीपसम्पुट, शंख, उत्तम दाँत, सींग, शैल – पाषाण, उत्तम काच, वस्त्र और चर्मपात्र – इन सब को भी ग्रहण करना नहीं कल्पता। ये सब मूल्यवान पदार्थ दूसरे के मन में ग्रहण करने की तीव्र आकांक्षा उत्पन्न करते हैं, आसक्तिजनक हैं, उन्हें सँभालने और बढ़ाने की ईच्छा उत्पन्न करते हैं, किन्तु साधु को नहीं कल्पता कि वह इन्हें ग्रहण करे। इसी प्रकार पुष्प, फल, कन्द, मूल आदि तथा सन जिनमें सत्तरहवाँ है, ऐसे समस्त धान्यों को भी परिग्रह – त्यागी साधु औषध, भैषज्य या भोजन के लिए त्रियोग – मन, वचन, काय से ग्रहण न करे। नहीं ग्रहण करने का क्या कारण है ? अनन्त ज्ञान और दर्शन के धारक, शील, गुण, विनय, तप और संयम के नायक, जगत के समस्त प्राणियों पर वात्सल्य धारण करने वाले, त्रिलोक पूजनीय, तीर्थंकर जिनेन्द्र देवों ने अपने केवलज्ञान से देखा है कि ये पुष्प, फल आदि त्रस जीवों की योनि हैं। योनि का उच्छेद करना योग्य नहीं है। इसी कारण उत्तम मुनि पुष्प, फल आदि का परिवर्जन करते हैं। और जो भी ओदन, कुल्माष, गंज, तर्पण, मंथु, आटा, भूंजी हुई धानी, पलल, सूप, शष्कुली, वेष्टिम, वरसरक, चूर्णकोश, गुड़ पिण्ड, शिखरिणी, बड़ा, मोदक, दूध, दहीं, घी, मक्खन, तेल, खाजा, गुड़, खाँड़, मिश्री, मधु, मद्य, माँस और अनेक प्रकार के व्यंजन, छाछ आदि वस्तुओं का उपाश्रय में, अन्य किसी के घर में अथवा अटवी में सुविहित – परिग्रहत्यागी, शोभन आचार वाले साधुओं को संचय करना नहीं कल्पता है। इसके अतिरिक्त जो आहार औद्देशिक हो, स्थापित हो, रचित हो, पर्यवजात हो, प्रकीर्ण, प्रादुष्करण, प्रामित्य, मिश्रजात, क्रीतकृत्, प्राभृत दोषवाला हो, जो दान के लिए या पुण्य के लिए बनाया गया हो, जो पाँच प्रकार के श्रमणों अथवा भिखारियों को देने के लिए तैयार किया गया हो, जो पश्चात्कर्म अथवा पुरःकर्म दोष से दूषित हो, जो नित्यकर्म – दूषित हो, जो म्रक्षित, अतिरिक्त मौखर, स्वयंग्राह अथवा आहृत हो, मृत्तिकोपलिप्त, आच्छेद्य, अनिसृष्ट हो अथवा जो आहार मदनत्रयोदशी आदि विशिष्ट तिथियों में यज्ञ और महोत्सवों में, उपाश्रय के भीतर या बाहर साधुओं को देने के लिए रखा हो, जो हिसा – सावद्य दोषों से युक्त हो, ऐसा भी आहार साधु को लेना नहीं कल्पता है। तो फिर किस प्रकार का आहार साधु के लिए ग्रहण करने योग्य है ? जो आहारादि एकादश पिण्डपात से शुद्ध हो, जो खरीदना, हनन करना और पकाना, इन तीन क्रियाओं से कृत, कारित और अनुमोदन से निष्पन्न नौ कोटियों से पूर्ण रूप से शुद्ध हो, जो एषणा के दस दोषों से रहित हो, जो उद्गम और उत्पादनारूप एषणा दोष से रहित हो, जो सामान्य रूप से निर्जीव हुए, जीवन से च्युत हो गया हो, आयुक्षय के कारण जीवनक्रियाओं से रहित हो, शरीरोपचय से रहित हो, अत एव जो प्रासुक हो, संयोग और अंगार नामक मण्डल – दोष से रहित हो, धूम – दोष से रहित हो, जो छह कारणों में से किसी कारण से ग्रहण किया गया हो और छह कायों की रक्षा के लिए स्वीकृत किया गया हो, ऐसे प्रासुक आहारादि से प्रतिदिन निर्वाह करना चाहिए। आगमानुकूल चारित्र का परिपालन करने वाले साधु को यदि अनेक प्रकार के ज्वर आदि रोग और आतंक या व्याधि उत्पन्न हो जाए, वात, पित्त या कफ या अतिशय प्रकोप हो जाए, अथवा सन्निपात हो जाए और इसके कारण उज्ज्वल, प्रबल, विपुल – दीर्घकाल तक भोगने योग्य कर्कश एवं प्रगाढ़ दुःख उत्पन्न हो जाए और वह दुःख अशुभ या कटुक द्रव्य के समान असुख हो, परुष हो, दुःखमय दारुण फल वाला हो, महान भय उत्पन्न करने वाला हो, जीवन का अन्त करने वाला और समग्र शरीर में परिताप उत्पन्न करने वाला हो, तो ऐसा दुःख उत्पन्न होने की स्थिति में भी स्वयं अपने लिए अथवा दूसरे साधु के लिए औषध, भैषज्य, आहार तथा पानी का संचय करके रखना नहीं कल्पता। पात्रधारी सुविहित साधु के पास जो पात्र, भाँड, उपधि और उपकरण होते हैं, जैसे – पात्र, पात्रबन्धन, पात्र केसरिका, पात्रस्थापनिका, पटल, रजस्राण, गोच्छक, तीन प्रच्छाद, रजोहरण, चोलपट्टक, मुखानन्तक, ये सब भी संयम की वृद्धि के लिए होते हैं तथा वात, ताप, धूप, डाँस – मच्छर और शीत से रक्षण के लिए हैं। इन सब उपकरणों को राग और द्वेष से रहित होकर साधु को धारण करने चाहिए। सदा इनका प्रतिलेखन, प्रस्फोटन और प्रमार्जन करना चाहिए। दिन में और रात्रि में सतत अप्रमत्त रहकर भाजन, भाण्ड, उपधि और उपकरणों को रखना और ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार के आचार का परिपालन करने के कारण वह साधु संयमवान, विमुक्त, निःसंग, निष्परिग्रहरुचि, निर्मम, निःस्नेहबन्धन, सर्वपापविरत, वासी – चन्दनकल्प समान भावना वाला, तृण, मणि, मुक्ता और मिट्टी के ढेले को समान मानने वाला रूप, सन्मान और अपमान में समता का धारक, पापरूपी रज को उपशान्त करने वाला, राग – द्वेष को शान्त करने वाला, ईर्या आदि पाँच समितियों से युक्त, सम्यग्दृष्टि और समस्त प्राणों – द्वीन्द्रियादि त्रस प्राणियों और भूतों पर समभाव धारण करने वाला होता है। वही वास्तव में साधु है। वह साधु श्रुत का धारक, ऋजु – और संयमी है। वह साधु समस्त प्राणियों के लिए शरणभूत होता है, समस्त जगद्वर्ती जीवों का वत्सल होता है। वह सत्यभाषी, संसार – के अन्त में स्थित, संसार का उच्छेद करने वाला, सदा के लिए मरण आदि का पारगामी और सब संशयों का पारगामी होता है। आठ प्रवचनमाताओं के द्वारा आठ कर्मों की ग्रन्थि को खोलने वाला, आठ मदों का मथन करने वाला एवं स्वकीय सिद्धान्त में निष्णात होता है। वह सुख – दुःख में विशेषता रहित होता है। आभ्यन्तर और बाह्य तप रूप उपधान में सम्यक् प्रकार से उद्यत रहता है, क्षमावान्, इन्द्रियविजेता, स्वकीय और परकीय हित में निरत, ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान – भाण्ड – मात्र – निक्षेपणसमिति और मल – मूत्र – श्लेष्म – संधान – नासिकामलजल्ल आदि के प्रतिष्ठापन की समिति से युक्त, मनोगुप्ति से, वचनगुप्ति से और कायगुप्ति से युक्त, विषयों की ओर उन्मुख इन्द्रियों का गोपन करने वाला, ब्रह्मचर्य की गुप्ति से युक्त, समस्त प्रकार के संग का त्यागी, सरल, तपस्वी, क्षमागुण के कारण सहनशील, जितेन्द्रिय, सद्गुणों से शोभित या शोधित, निदान से रहित, चित्तवृत्ति को संयम की परिधि से बाहर न जाने देने वाला, ममत्व से विहीन, अकिंचन, स्नेहबन्धन को काटने वाला और कर्म के उपलेप से रहित होता है। मुनि आगे कही जाने वाली उपमाओं से मण्डित होता है – कांसे के उत्तम पात्र समान रागादि के बन्ध से मुक्त होता है। शंख के समान निरंजन, कच्छप की तरह इन्द्रियों का गोपन करने वाला। उत्तम शुद्ध स्वर्ण के समान शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त। कमल के पत्ते के सदृश निर्लेप। चन्द्रमा के समान सौम्य, सूर्य के समान देदीप्यमान, मेरु के समान अचल, सागर के समान क्षोभरहित, पृथ्वी के समान समस्त स्पर्शों को सहन करने वाला। तपश्चर्या के तेज से दीप्त प्रज्वलित अग्नि के सदृश देदीप्य – मान, गोशीर्ष चन्दन की तरह शीतल, सरोवर के समान प्रशान्तभाव वाला, अच्छी तरह घिस कर चमकाए हुए निर्मल दर्पणतल के समान स्वच्छ, गजराज की तरह शूरवीर, वृषभ की तरह अंगीकृत व्रतभार का निर्वाह करने वाला, मृगाधिपति सिंह के समान परीषहादि से अजेय, शरत्कालीन जल के सदृश स्वच्छ हृदय वाला, भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त, गेंडे के सींग के समान अकेला, स्थाणु की भाँति ऊर्ध्वकाय, शून्यगृह के समान अप्रतिकर्म, वायुरहित घर में स्थित प्रदीप की तरह निश्चल, छूरे की तरह एक धार वाला, सर्प के समान एकदृष्टि वाला, आकाश के समान स्वावलम्बी। पक्षी के सदृश विप्रमुक्त, सर्प के समान दूसरों के लिए निर्मित स्थान में रहने वाला। वायु के समान अप्रतिबद्ध। देहविहीन जीव के समान अप्रतिहत गति वाला होता है। (मुनि) ग्राम में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि तक विचरता है, क्योंकि वह जितेन्द्रिय होता है, परीषहों को जीतने वाला, निर्भय, विद्वान, सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों में वैराग्य युक्त होता है, वस्तुओं के संचय से विरत, मुक्त, लघु, जीवन मरण की आशा से मुक्त, चारित्र – परिणाम के विच्छेद से रहित, निरतिचार, अध्यात्मध्यान में निरत, उपशान्तभाव तथा एकाकी होकर धर्म आचरण करे। परिग्रहविरमणव्रत के परिरक्षण हेतु भगवान ने यह प्रवचन कहा है। यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकारी है, आगामी भवों में उत्तम फल देने वाला है और भविष्य में कल्याण करने वाला है। यह शुद्ध, न्याययुक्त, अकुटिल, सर्वोत्कृष्ट और समस्त दुःखों तथा पापों को सर्वथा शान्त करने वाला है। अपरिग्रह महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं। उनमें से प्रथम भावना इस प्रकार है – श्रोत्रेन्द्रिय से, मन के अनुकूल होने के कारण भद्र शब्दों को सूनकर (साधु को राग नहीं करना चाहिए)। वे शब्द कौन से, किस प्रकार के हैं ? उत्तम मुरज, मृदंग, पणव, दुर्दर, कच्छभी, वीणा, विपंची और वल्लकी, बध्धीसक, सुघोषा, घंटा, नन्दी, सूसर – परिवादिनी, वंश, तूणक एवं पर्वक नामक वाद्य, तंत्री, तल, ताल, इन सब बाजों के नाद को (सून कर) तथा नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल, मुष्टिमल्ल, विदूषक, कथक, प्लवक, रास गाने वाले आदि द्वारा किये जाने वाले नाना प्रकार की मधुर ध्वनि से युक्त सुस्वर गीतों को (सून कर) तथा कंदोरा, मेखला, कलापक, प्रतरक, प्रहेरक, पादजालक एवं घण्टिका, खिंखिनी, रत्नोरुजालक, क्षुद्रिका, नेउर, चरणमालिका, कनकनिगड और जालक इन सब की ध्वनि सूनकर तथा लीलापूर्वक चलती हुई स्त्रियों की चाल से उत्पन्न एवं तरुणी रमणियों के हास्य की, बोलों की तथा स्वर – घोलनायुक्त मधुर तथा सुन्दर आवाज को और स्नेहीजनों द्वारा भाषित प्रशंसा – वचनों को एवं इसी प्रकार के मनोज्ञ एवं सुहावने वचनों को (सूनकर) उनमें साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, गृद्धि नहीं करनी चाहिए, मुग्ध नहीं होना चाहिए, उनके लिए स्व – पर का परिहनन नहीं करना चाहिए, लुब्ध नहीं होना चाहिए, तुष्ट नहीं होना चाहिए, हँसना नहीं चाहिए, ऐसे शब्दों का स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त श्रोत्रेन्द्रिय के लिए अमनोज्ञ एवं पापक शब्द को सूनकर रोष नहीं करना। वे शब्द – कौन से हैं ? आक्रोश, परुष, वचन, खिंसना – निन्दा, अपमान, तर्जना, निर्भर्त्सना, दीप्तवचन, त्रासजनक वचन, अस्पष्ट उच्च ध्वनि, रुदनध्वनि, रटित, क्रन्दन, निर्घुष्ट, रसित, विलाप के शब्द – इन सब शब्दों में तथा इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ एवं पापक शब्दों में साधु को रोष नहीं करना चाहिए, उनकी हीलना, या निन्दा नहीं करनी चाहिए, जन – समूह के समक्ष उन्हें बूरा नहीं करना चाहिए, अमनोज्ञ शब्द उत्पन्न करने वाली वस्तु का छेदन, भेदन या नष्ट नहीं करना चाहिए। अपने अथवा दूसरे के हृदय में जुगुप्सा उत्पन्न नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय (संयम) की भावना से भावित अन्तःकरण वाला साधु मनोज्ञ एवं अमनोज्ञरूप शुभ – अशुभ शब्दों में राग – द्वेष के संवर वाला, मन – वचन और काय का गोपन करने वाला, संवरयुक्त एवं गुप्तेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करे। द्वितीय भावना चक्षुरिन्द्रिय का संवर है। चक्षुरिन्द्रिय से मनोज्ञ एवं भद्र सचित्त द्रव्य, अचित्त द्रव्य और मिश्र द्रव्य के रूपों को देख कर वे रूप चाहे काष्ठ पर हों, वस्त्र पर हों, चित्र – लिखित हों, मिट्टी आदि के लेप से बनाए गए हों, पाषण पर अंकित हों, हाथीदाँत आदि पर हों, पाँच वर्ण के और नाना प्रकार के आकार वाले हों, गूँथ कर माला आदि की तरह बनाए गए हों, वेष्टन से, चपड़ी आदि भरकर अथवा संघात से – फूल आदि की तरह एक – दूसरे को मिलाकर बनाए गए हों, अनेक प्रकार की मालाओं के रूप हों और वे नयनों तथा मन को अत्यन्त आनन्द प्रदान करने वाले हों (तथापि उन्हें देखकर राग नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए)। इसी प्रकार वनखण्ड, पर्वत, ग्राम, आकर, नगर तथा विकसित नीलकमलों एवं कमलों से सुशोभित और मनोहर तथा जिनमें अनेक हंस, सारस आदि पक्षियों के युगल विचरण कर रहे हों, ऐसे छोटे जलाशय, गोलाकार वावड़ी, चौकोर वावड़ी, दीर्घिका, नहर, सरोवरों की कतार, सागर, बिलपंक्ति, लोहे आदि की खानों में खोदे हुए गडहों की पंक्ति, खाई, नदी, सर, तडाग, पानी की क्यारी अथवा उत्तम मण्डप, विविध प्रकार के भवन, तोरण, चैत्य, देवालय, सभा, प्याऊ, आवसथ, सुनिर्मित शयन, आसन, शिबिका, रथ, गाड़ी, यान, युग्य, स्यन्दन और नर – नारियों का समूह, ये सब वस्तुएं यदि सौम्य हों, आकर्षक रूपवाली दर्शनीय हों, आभूषणों से अलंकृत और सुन्दर वस्त्रों से विभूषित हों, पूर्व में की हुई तपस्या के प्रभाव से सौभाग्य को प्राप्त हों तो (इन्हें देखकर) तथा नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक, विदूषक, कथावाचक, प्लवक, रास करने वाले व वार्ता कहने वाले, चित्रपट लेकर भिक्षा माँगने वाले, वाँस पर खेल करने वाले, तूणा बजाने वाले, तूम्बे की वीणा बजाने वाले एवं तालाचरों के विविध प्रयोग देखकर तथा बहुत से करतबों को देखकर। इस प्रकार के अन्य मनोज्ञ तथा सुहावने रूपों में साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, अनुरक्त नहीं होना चाहिए, यावत् उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए इसके सिवाय चक्षुरिन्द्रिय से अमनोज्ञ और पापकारी रूपों को देखकर (रोष नहीं करना चाहिए)। वे (अमनोज्ञ रूप) कौन – से हैं ? वात, पित्त, कफ और सन्निपात से होने वाले गंडरोग वाले को, अठारह प्रकार के कुष्ठ रोग वाले को, कुणि को, जलोदर के रोगी को, खुजली वाले को, श्लीपद रोग के रोगी को, लंगड़े को, वामन को, जन्मान्ध को, काणे को, विनिहत चक्षु को जिसकी एक या दोनों आँखें नष्ट हो गई हों, पिशाचग्रस्त को अथवा पीठ से सरक कर चलने वाले, विशिष्ट चित्तपीड़ा रूप व्याधि या रोग से पीड़ित को तथा विकृत मृतक – कलेवरों को या बिलबिलाते कीड़ों से युक्त सड़ी – गली द्रव्यराशि को देखकर अथवा इनके सिवाय इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ और पापकारी रूपों को देखकर श्रमण को उन रूपों के प्रति रुष्ट नहीं होना चाहिए, यावत् अवहेलना आदि नहीं करनी चाहिए और मन में जुगुप्सा – धृणा भी नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए। इस प्रकार चक्षुरिन्द्रियसंवर रूप भावना से भावित अन्तःकरण वाला होकर मुनि यावत् धर्म का आचरण करे। घ्राणेन्द्रिय से मनोज्ञ और सुहावना गंध सूँघकर (रागादि नहीं करना चाहिए)। वे सुगन्ध क्या – कैसे हैं ? जल और स्थल में उत्पन्न होने वाले सरस पुष्प, फल, पान, भोजन, उत्पलकुष्ठ, तगर, तमालपत्र, सुगन्धित त्वचा, दमनक, मरुआ, इलायची का रस, पका हुआ मांसी नामक सुगन्ध वाला द्रव्य – जटामासी, सरस गोशीर्ष चन्दन, कपूर, लवंग, अगर, कुंकुम, कक्कोल, उशीर, श्वेत, चन्दन, श्रीखण्ड आदि द्रव्यों के संयोग से बनी श्रेष्ठ धूप की सुगन्ध को सूँघकर तथा भिन्न – भिन्न ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले कालोचित सुगन्ध वाले एवं दूर – दूर तक फैलने वाली सुगन्ध से युक्त द्रव्यों में और इसी प्रकार की मनोहर, नासिका को प्रिय लगने वाली सुगन्ध के विषय में मुनि को आसक्त नहीं होना चाहिए, यावत् अनुरागादि नहीं करना चाहिए। उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त घ्राणेन्द्रिय से अमनोज्ञ और असुहावने गंधों को सूँघकर (रोष आदि नहीं करना चाहिए)। वे दुर्गन्ध कौन – से हैं ? मरा हुआ सर्प, घोड़ा, हाथी, गाय तथा भेड़िया, कुत्ता, मनुष्य, बिल्ली, शृंगाल, सिंह और चिता आदि के मृतक सड़े – गले कलेवरों की, जिसमें कीड़े बिलबिला रहे हों, दूर – दूर तक बदबू फैलाने वाली गन्ध में तथा इसी प्रकार के और भी अमनोज्ञ और असुहावनी दुर्गन्धों के विषय में साधु को रोष नहीं करना चाहिए यावत् इन्द्रियों को वशीभूत करके धर्म का आचरण करना चाहिए। रसना – इन्द्रिय से मनोज्ञ एवं सुहावने रसों का आस्वादन करके (उनमें आसक्त नहीं होना चाहिए)। वे रस कैसे हैं ? घी – तैल आदि में डुबा कर पकाए हुए खाजा आदि पकवान, विविध प्रकार के पानक, तेल अथवा घी से बने हुए मालपूवा आदि वस्तुओं में, जो अनेक प्रकार के नमकीन आदि रसों से युक्त हों, मधु, माँस, बहुत प्रकार की मज्जिका, बहुत व्यय करके बनाया गया, खट्टी दाल, सैन्धाम्ल, दूध, दहीं, सरक, मद्य, उत्तम प्रकार की वारुणी, सीधु तथा पिशायन नामक मदिराएं, अठारह प्रकार के शाक वाले ऐसे अनेक प्रकार के मनोज्ञ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त अनेक द्रव्यों से निर्मित भोजन में तथा इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ एवं लुभावने रसों में साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, यावत् उनका स्मरण तथा विचार भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जिह्वा – इन्द्रिय से अमनोज्ञ और असुहावने रसों का, आस्वाद करके (रोष आदि नहीं करना चाहिए)। वे अमनोज्ञ रस कौन – से हैं ? अरस, विरस, ठण्डे, रूखे, निर्वाह के अयोग्य भोजन – पानी को तथा रात – वासी, व्यापन्न, सड़े हुए, अमनोज्ञ, तिक्त, कटु, कसैले, खट्टे, शेवालरहित पुराने पानी के समान एवं नीरस पदार्थों में तथा इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ तथा अशुभ रसों में साधु को रोष धारण नहीं करना चाहिए यावत् संयतेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करना चाहिए। स्पर्शनेन्द्रिय से मनोज्ञ और सुहावने स्पर्शों को छूकर (रागभाव नहीं धारण करना चाहिए)। वे मनोज्ञ स्पर्श कौन – से हैं ? जलमण्डप, हार, श्वेत चन्दन, शीतल निर्मल जल, विविध पुष्पों की शय्या, खसखस, मोती, पद्मनाल, चन्द्रमा की चाँदनी तथा मोर – पिच्छी, तालवृन्त, वीजना से की गई सुखद शीतल पवन में, ग्रीष्मकाल में सुखद स्पर्श वाले अनेक प्रकार के शयनों और आसनों में, शिशिरकाल में आवरण गुण वाले अंगारों से शरीर को तपाने, धूप स्निग्ध पदार्थ, कोमल और शीतल, गर्म और हल्के, शरीर को सुख और मन को आनन्द देने वाले हों, ऐसे सब स्पर्शों में तथा इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ और सुहावने स्पर्शों में श्रमण को आसक्त नहीं होना चाहिए, अनुरक्त नहीं होना चाहिए, गृद्ध नहीं होना चाहिए, मुग्ध नहीं होना चाहिए और स्व – परहित का विघात नहीं करना चाहिए, लुब्ध नहीं होना चाहिए, तल्लीनचित्त नहीं होना चाहिए, उनमें सन्तोषानुभूति नहीं करनी चाहिए, हँसना नहीं चाहिए, यहाँ तक कि उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त स्पर्शनेन्द्रिय से अमनोज्ञ एवं पापक – असुहावने स्पर्शों को छूकर (रुष्ट – द्विष्ट नहीं होना चाहिए)। वे स्पर्श कौन – से हैं ? वध, बन्धन, ताड़न आदि का प्रहार, अंकन, अधिक भार का लादा जाना, अंग – भंग होना या किया जाना, शरीर में सूई या नख का चुभाया जाना, अंग की हीनता होना, लाख के रस, नमकीन तैल, उबलते शीशे या कृष्णवर्ण लोहे से शरीर का सीचा जाना, काष्ठ के खोड़े में डाला जाना, डोरी के निगड बन्धन से बाँधा जाना, हथकड़ियाँ पहनाई जाना, कुंभी में पकाना, अग्नि से जलाया जाना, शेफत्रोटन लिंगच्छेद, बाँधकर ऊपर से लटकाना, शूली पर चढ़ाया जाना, हाथी के पैर से कुचला जाना, हाथ – पैर – कान – नाक – होठ और शिर में छेद किया जाना, जीभ का बाहर खींचा जाना, अण्डकोश – नेत्र – हृदय – दाँत या आंत का मोड़ा जाना, गाड़ी में जोता जाना, बेंत या चाबुक द्वारा प्रहार किया जाना, एड़ी, घुटना या पाषाण का अंग पर आघात होना, यंत्र में पीला जाना, अत्यन्त खुजली होना, करेंच का स्पर्श होना, अग्नि का स्पर्श, बिच्छू के डंक का, वायु का, धूप का या डाँस – मच्छरों का स्पर्श होना, कष्टजनक आसन, स्वाध्यायभूमि में तथा दुर्गन्धमय, कर्कश, भारी, शीत, उष्ण एवं रूक्ष आदि अनेक प्रकार के स्पर्शों में और इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ स्पर्शों में साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिए, उनकी हीलना, निन्दा, गर्हा और खिंसना नहीं करनी चाहिए, अशुभ स्पर्श वाले द्रव्य का छेदन – भेदन, स्व – पर का हनन और स्व – पर में धृणावृत्ति भी उत्पन्न नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार स्पर्शनेन्द्रियसंवर की भावना से भावित अन्तःकरण वाला, मनोज्ञ और अमनोज्ञ अनुकूल और प्रतिकूल स्पर्शों की प्राप्ति होने पर राग – द्वेषवृत्ति का संवरण करने वाला साधु मन, वचन और काय से गुप्त होता है। इस भाँति साधु संवृतेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करे। इस प्रकार से यह पाँचवां संवरद्वार – सम्यक् प्रकार से मन, वचन और काय से परिरक्षित पाँच भावना रूप कारणों से संवृत्त किया जाए तो सुरक्षित होता है। धैर्यवान् और विवेकवान् साधु को यह योग जीवनपर्यन्त निरन्तर पालनीय है। यह आस्रव को रोकने वाला, निर्मल, मिथ्यात्व आदि छिद्रों से रहित होने के कारण अपरिस्रावी, संक्लेशहीन, शुद्ध और समस्त तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात है। इस प्रकार यह पाँचवां संवरद्वार शरीर द्वारा स्पृष्ट, पालित, अतिचाररहित शुद्ध किया हुआ, परिपूर्णता पर पहुँचाया हुआ, वचन द्वारा कीर्तित किया हुआ, अनुपालित तथा तीर्थंकरों की आज्ञा के अनुसार आराधित होता है। ज्ञातमुनि भगवान ने ऐसा प्रतिपादन किया है। युक्तिपूर्वक समझाया है। यह प्रसिद्ध, सिद्ध और भवस्थ सिद्धों का उत्तम शासन कहा गया है, समीचीन रूप से उपदिष्ट है। ऐसा मैं कहता हूँ।
ये पाँच संवररूप महाव्रत सैकड़ों हेतुओं से विस्तीर्ण हैं। अरिहंत – शासन में ये संवरद्वार संक्षेप में पाँच हैं। विस्तार से इनके पच्चीस भेद हैं। जो साधु ईर्यासमिति आदि या ज्ञान और दर्शन से रहित है, कषाय और इन्द्रिय – संवर से संवृत है, जो प्राप्त संयमयोग का यत्नपूर्वक पालन और अप्राप्त संयमयोग के लिए यत्नशील है, सर्वथा विशुद्ध श्रद्धानवान् है, वह इन संवरों की आराधना करके मुक्त होगा।
प्रश्नव्याकरण में एक श्रुतस्कन्ध है, एक सदृश दस अध्ययन हैं। उपयोगपूर्वक आहारपानी ग्रहण करने वाले साधु के द्वारा, जैसे आचारांग का वाचन किया जाता है, उसी प्रकार एकान्तर आयंबिल युक्त तपस्यापूर्वक दस दिनों में इन का वाचन किया जाता है।