चौथे अब्रह्म नामक आस्रवद्वार के अनन्तर यह पाँचवां परिग्रह है। अनेक मणियों, स्वर्ण, कर्केतन आदि रत्नों, बहुमूल्य सुगंधमय पदार्थ, पुत्र और पत्नी समेत परिवार, दासी – दास, भृतक, प्रेष्य, घोड़े, हाथी, गाय, भैंस, ऊंट, गधा, बकरा और गवेलक, शिबिका, शकट, रथ, यान, युग्य, स्यन्दन, शयन, आसन, वाहन तथा कुप्य, धन, धान्य, पेय पदार्थ, भोजन, आच्छादन, गन्ध, माला, वर्तन – भांडे तथा भवन आदि के अनेक प्रकार के विधानों को (भोग लेने पर भी) और हजारों पर्वतों, नगरों, निगमों, जनपदों, महानगरों, द्रोणमुखों, खेट, कर्बटों, मडंबो, संबाहों तथा पत्तनों से सुशोभित भरतक्षेत्र को भोग कर भी अर्थात् सम्पूर्ण भारतवर्ष का आधिपत्य भोग लेने पर भी, तथा – जहाँ के निवासी निर्भय निवास करते हैं ऐसी सागरपर्यन्त पृथ्वी को एकच्छत्र – अखण्ड राज्य करके भोगने पर भी (परिग्रह से तृप्ति नहीं होती)। परिग्रह वृक्ष सरीखा है। कभी और कहीं जिसका अन्त नहीं आता ऐसी अपरिमित एवं अनन्त तृष्णा रूप महती ईच्छा ही अक्षय एवं अशुभ फल वाले इस वृक्ष के मूल हैं। लोभ, कलि और क्रोधादि कषाय इसके महा – स्कन्ध हैं। चिन्ता, मानसिक सन्ताप आदि की अधिकता से यह विस्तीर्ण शाखाओं वाला है। ऋद्धि, रस और साता रूप गौरव ही इसके विस्तीर्ण शाखाग्र हैं। निकृति, ठगाई या कपट ही इस वृक्ष के त्वचा, पत्र और पुष्प हैं। काम – भोग ही इस वृक्ष के पुष्प और फल हैं। शारीरिक श्रम, मानसिक खेद और कलह ही इसका कम्पायमान अग्रशिखर है। यह परिग्रह राजा – महाराजाओं द्वारा सम्मानित है, बहुत लोगों का हृदय – वल्लभ है और मोक्ष के निर्लोभता रूप मार्ग के लिए अर्गला के समान है, यह अन्तिम अधर्मद्वार है।
उस परिग्रह नामक अधर्म के गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं। वे नाम इस प्रकार हैं – परिग्रह, संचय, चय, उपचय, निधान, सम्भार, संकर, आदर, पिण्ड, द्रव्यसार, महेच्छा, प्रतिबन्ध, लोभात्मा, महर्धिका, उपकरण, संरक्षणा, भार, संपातोत्पादक, कलिकरण्ड, प्रविस्तर, अनर्थ, संस्तव, अगुप्ति या अकीर्ति, आयास, अवियोग, अमुक्ति, तृष्णा, अनर्थक, आसक्ति और असन्तोष है।
उस परिग्रह को लोभ से ग्रस्त परिग्रह के प्रति रुचि रखने वाले, उत्तम भवनों में और विमानों में निवास करने वाले ममत्वपूर्वक ग्रहण करते हैं। नाना प्रकार से परिग्रह को संचित करने की बुद्धि वाले देवों के निकाय यथा – असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार तथा अणपन्निक, यावत् पतंग और पिशाच, यावत् गन्धर्व, ये महर्द्धिक व्यन्तर देव तथा तिर्यक्लोक में निवास करने वाले पाँच प्रकार के ज्योतिष्क देव, बृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र और शनैश्चर, राहु, केतु और बुध, अंगारक, अन्य जो भी ग्रह ज्योतिष्चक्र में संचार करते हैं, केतु, गति में प्रसन्नता अनुभव करने वाले, अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्र देवगण, नाना प्रकार के संस्थान वाले तारागण, स्थिर लेश्या अढ़ाई द्वीप से बाहर के ज्योतिष्क और मनुष्य क्षेत्र के भीतर संचार करने वाले, जो तिर्यक् लोक के ऊपरी भाग में रहने वाले तथा अविश्रान्त वर्तुलाकार गति करने वाले हैं। ऊर्ध्वलोक में निवास करने वाले वैमानिक देव दो प्रकार के हैं – कल्पो – पपन्न और कल्पातीत। सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत, ये उत्तम कल्प – विमानों में वास करने वाले – कल्पोपपन्न हैं। नौ ग्रैवेयकों और पाँच अनुत्तर विमानों में रहने वाले दोनों प्रकार के देव कल्पातीत हैं। ये विमानवासी देव महान ऋद्धि के धारक, श्रेष्ठ सुरवर हैं। ये चारों निकायों के, अपनी – अपनी परिषद् सहित परिग्रह को ग्रहण करते हैं। ये सभी देव भवन, हस्ती आदि वाहन, रथ आदि अथवा घूमे के विमान आदि यान, पुष्पक आदि विमान, शय्या, भद्रासन, सिंहासन प्रभृति आसन, विविध प्रकार के वस्त्र एवं उत्तम प्रहरण को, अनेक प्रकार की मणियों के पंचरंगी दिव्य भाजनों को, विक्रियालब्धि से ईच्छानुसार रूप बनाने वाली कामरूपा अप्सराओं के समूह को, द्वीपों, समुद्रों, दिशाओं, विदिशाओं, चैत्यों, वनखण्डों और पर्वतों को, ग्रामों और नगरों को, आरामों, उद्यानों और जंगलों को, कूप, सरोवर, तालाब, वापी – वावड़ी, दीर्घिका – लम्बी वावड़ी, देवकुल, सभा, प्रपा और वस्ती को और बहुत – से कीर्तनीय धर्मस्थानों को ममत्वपूर्वक स्वीकार करते हैं। इस प्रकार विपुल द्रव्यवाले परिग्रह को ग्रहण करके इन्द्रों सहित देवगण भी न तृप्ति को और न सन्तुष्टि को अनुभव कर पाते हैं। ये सब देव अत्यन्त तीव्र लोभ से अभिभूत संज्ञावाले हैं, अतः वर्षधरपर्वतों, इषुकार पर्वत, वृत्तपर्वत, कुण्डलपर्वत, रुचकवर, मानुषोत्तर पर्वत, कालोदधि समुद्र, लवणसमुद्र, सलिला, ह्रदपति, रतिकर पर्वत, अंजनक पर्वत, दधिमुख पर्वत, अवपात पर्वत, उत्पात पर्वत, काञ्चनक, चित्र – विचित्रपर्वत, यमकवर, शिखरी, कूट आदि में रहनेवाले ये देव भी तृप्ति नहीं पाते। वक्षारों में तथा अकर्मभूमियों में और सुविभक्त भरत, ऐरवत आदि पन्द्रह कर्मभूमियों में जो भी मनुष्य निवास करते हैं, जैसे – चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, माण्डलिक राजा, ईश्वर – बड़े – बड़े ऐश्वर्यशाली लोग, तलवर, सेनापति, इभ्य, श्रेष्ठी, राष्ट्रिक, पुरोहित, कुमार, दण्डनायक, माडम्बिक, सार्थवाह, कौटुम्बिक और अमात्य, ये सब और इनके अतिरिक्त अन्य मनुष्य परिग्रह का संचय करते हैं। वह परिग्रह अनन्त या परिणामशून्य है, अशरण है, दुःखमय अन्त वाला है, अध्रुव है, अनित्य है, एवं अशाश्वत है, पापकर्मों का मूल है, ज्ञानीजनों के लिए त्याज्य है, विनाश का मूल कारण है, अन्य प्राणियों के वध और बन्धन का कारण है, इस प्रकार वे पूर्वोक्त देव आदि धन, कनक, रत्नों आदि का संचय करते हुए लोभ से ग्रस्त होते हैं और समस्त प्रकार के दुःखों के स्थान इस संसार में परिभ्रमण करते हैं। परिग्रह के लिए बहुत लोग सैकड़ों शिल्प या हुन्नर तथा लेखन से लेकर शकुनिरुत – पक्षियों की बोली तक की, गणित की प्रधानता वाली बहत्तर कलाएं सिखते हैं। नारियाँ रति उत्पन्न करने वाले चौंसठ महिलागुणों को सीखती है। कोई असि, कोई मसिकर्म, कोई कृषि करते हैं, कोई वाणिज्य सीखते हैं, कोई व्यवहार की शिक्षा लेते हैं। कोई अर्थशास्त्र – राजनीति आदि की, कोई धनुर्वेद की, कोई वशीकरण की शिक्षा करते हैं। इसी प्रकार के परिग्रह के सैकड़ों कारणों – में प्रवृत्ति करते हुए मनुष्य जीवनपर्यन्त नाचते रहते हैं। और जिनकी बुद्धि मन्द है, वे परिग्रह का संचय करते हैं। परिग्रह के लिए लोग प्राणियों की हिंसा के कृत्य में प्रवृत्त होते हैं। झूठ बोलते हैं, दूसरों को ठगते हैं, निकृष्ट वस्तु को मिलावट करके उत्कृष्ट दिखलाते हैं और परकीय द्रव्य में लालच करते हैं। स्वदार – गमन में शारीरिक एवं मानसिक खेद को तथा परस्त्री की प्राप्ति न होने पर मानसिक पीड़ा को अनुभव करते हैं। कलह – लड़ाई तथा वैर – विरोध करते हैं, अपमान तथा यातनाएं सहन करते हैं। ईच्छाओं और चक्रवर्ती आदि के समान महेच्छाओं रूपी के समान महेच्छाओं रूपी पीपासा से निरन्तर प्यासे बने रहते हैं। तृष्णा तथा गृद्धि तथा लोभ में ग्रस्त रहते हैं। वे त्राणहीन एवं इन्द्रियों तथा मन के निग्रह से रहित होकर क्रोध, मान, माया और लोभ का सेवन करते हैं। इस निन्दनीय परिग्रह में ही नियम से शल्य, दण्ड, गौरव, कषाय, संज्ञाएं होती हैं, कामगुण, आस्रवद्वार, इन्द्रियविकार तथा अशुभ लेश्याएं होती हैं। स्वजनों के साथ संयोग होते हैं और परिग्रहवान असीम – अनन्त सचित्त, अचित्त एवं मिश्र – द्रव्यों को ग्रहण करने की ईच्छा करते हैं। देवों, मनुष्यों और असुरों – सहित इस त्रस – स्थावररूप जगत में जिनेन्द्र भगवंतों ने (पूर्वोक्त स्वरूप वाले) परिग्रह का प्रतिपादन किया है। (वास्तव में) परिग्रह के समान अन्य कोई पाश नहीं है।
परिग्रह में आसक्त प्राणी परलोक में और इस लोक में नष्ट – भ्रष्ट होते हैं। अज्ञानान्धकार में प्रविष्ट होते हैं। तीव्र मोहनीयकर्म के उदय से मोहित मति वाले, लोभ के वश में पड़े हुए जीव त्रस, स्थावर, सूक्ष्म और बादर पर्यायों में तथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक अवस्थाओं में यावत् चार गति वाले संसार – कानन में परिभ्रमण करते हैं। परिग्रह का यह इस लोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी फल – विपाक अल्प सुख और अत्यन्त दुःख वाला है। घोर भय से परिपूर्ण है, अत्यन्त कर्म – रज से प्रगाढ़ है, दारुण है, कठोर है और असाता का हेतु है। हजारों वर्षों में इससे छूटकारा मिलता है। किन्तु इसके फल को भोगे बिना छूटकारा नहीं मिलता। इस प्रकार ज्ञातकुलनन्दन महात्मा वीरवर जिनेश्वर देव ने कहा है। अनेक प्रकार की चन्द्रकान्त आदि मणियों, स्वर्ण, कर्केतन आदि रत्नों तथा बहुमूल्य अन्य द्रव्यरूप यह परिग्रह मोक्ष के मार्गरूप मुक्ति – निर्लोभता के लिए अर्गला के समान है। इस प्रकार यह अन्तिम आस्रवद्वार समाप्त हुआ।
इन पूर्वोक्त पाँच आस्रवद्वारों के निमित्त से जीव प्रतिसमय कर्मरूपी रज का संचय करके चार गतिरूप संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं।
जो पुण्यहीन प्राणी धर्म को श्रवण नहीं करते अथवा श्रवण करके भी उसका आचरण करने में प्रमाद करते हैं, वे अनन्त काल तक चार गतियों में गमनागमन करते रहेंगे।
जो पुरुष मिथ्यादृष्टि हैं, अधार्मिक हैं, निकाचित कर्मों का बन्ध किया है, वे अनेक तरह से शिक्षा पाने पर भी, धर्माश्रवण तो करते हैं किन्तु आचरण नहीं करते।
जिन भगवान के वचन समस्त दुःखों का नाश करने के लिए गुणयुक्त मधुर विरेचन औषध हैं, किन्तु निःस्वार्थ भाव से दिये जाने वाले इस औषध को जो पीना ही नहीं चाहते, उनके लिए क्या किया जा सकता है ? जो प्राणी पाँच को त्याग कर और पाँच की भावपूर्वक रक्षा करते हैं, वे कर्मरज से सर्वथा रहित होकर सर्वोत्तम सिद्धि प्राप्त करते हैं।