दत्तानुज्ञा संवर

 

तीसरा संवरद्वार ‘दत्तानुज्ञात’ नामक है। यह महान व्रत है तथा यह गुणव्रत भी है। यह परकीय द्रव्य – पदार्थों के हरण से निवृत्तिरूप क्रिया से युक्त है, व्रत अपरिमित और अनन्त तृष्णा से अनुगत महा – अभिलाषा से युक्त मन एवं वचन द्वारा पापमय परद्रव्यहरण का भलिभाँति निग्रह करता है। इस व्रत के प्रभाव से मन इतना संयमशील बन जाता है कि हाथ और पैर परधन को ग्रहण करने से विरत हो जाते हैं। सर्वज्ञ भगवंतों ने इसे उपादेय कहा है। आस्रव का निरोध करने वाला है। निर्भय है – लोभ उसका स्पर्श भी नहीं करता। यह प्रधान बलशालियों तथा सुविहित साधुजनों द्वारा सम्मत है, श्रेष्ठ साधुओं का धर्माचरण है। इस अदत्तादानविरमण व्रत में ग्राम, आकर, नगर, निगम, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, संबाध, पट्टन अथवा आश्रम में पड़ी हुई, उत्तम मणि, मोती, शिला, प्रवाल, कांसा, वस्त्र, चाँदी, सोना, रत्न आदि कोई भी वस्तु पड़ी हो – गिरी हो, कोई उसे भूल गया हो, गुम हुई हो तो किसी को कहना अथवा स्वयं उठा लेना नहीं कल्पता है। क्योंकि साधु को हिरण्य का त्यागी हो कर, पाषाण और स्वर्ण में समभाव रख कर, परिग्रह से सर्वथा रहित और सभी इन्द्रियों से संवृत होकर ही लोक में विचरना चाहिए। कोई भी वस्तु, जो खलिहान में, खेत में, या जंगल में पड़ी हो, जैसे कि फूल, फल, छाल, प्रवाल, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ या कंकर आदि हो, वह थोड़ी हो या बहुत हो, छोटी हो या मोटी हो, स्वामी के दिए बिना या उसकी आज्ञा प्राप्त किये बिना ग्रहण करना नहीं कल्पता। घर और स्थंडिलभूमि भी आज्ञा प्राप्त किये बिना ग्रहण करना उचित नहीं है। तो फिर साधु को किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए ? प्रतिदिन अवग्रह की आज्ञा लेकर ही उसे लेना चाहिए। तथा अप्रीतिकारक घर में प्रवेश वर्जित करना चाहिए। अप्रीतिकारक के घर से आहार – पानी तथा पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कंबल, दण्ड और पादप्रोंछन एवं भाजन, भाण्ड तथा उपधि उपकरण भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। साधु को दूसरे की निन्दा नहीं करनी चाहिए, दूसरे को दोष नहीं देना चाहिए, दूसरे के नाम से जो कोई वस्तु ग्रहण करता है तथा जो उपकरण को या किसी के सुकृत को छिपाता है, जो दान में अंतराय करता है, जो दान का विप्रणाश करता है, जो पैशुन्य करता है और मात्सर्य करता है। जो भी पीठ, पाट, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्टक, मुखवस्त्रिका और पादप्रोञ्छन आदि, पात्र, मिट्टी के पात्र और अन्य उपकरणों का जो आचार्य आदि साधर्मिकों में संविभाग नहीं करता, वह अस्तेयव्रत का आराधक नहीं होता। जो असंग्रहरुचि है, जो तपस्तेन है, वचनस्तेन है, रूपस्तेन है, जो आचार का चोर है, भावस्तेन है, जो शब्दकर है, जो गच्छ में भेद उत्पन्न करने वाले कार्य करता है, कलहकारी, वैरकारी और असमाधिकारी है, जो शास्त्रोक्त प्रमाण से सदा अधिक भोजन करता है, जो सदा वैर बाँध रखने वाला है, सदा क्रोध करता रहता है, ऐसा पुरुष इस अस्तेयव्रत का आराधक नहीं होता है। किस प्रकार के मनुष्य इस व्रत के आराधक हो सकते हैं ? इस अस्तेयव्रत का आराधक वही पुरुष हो सकता है जो – वस्त्र, पात्र आदि धर्मोपकरण, आहार – पानी आदि का संग्रहण और संविभाग करने में कुशल हो। जो अत्यन्त बाल, दुर्बल, रुग्ण, वृद्ध और मासक्षपक आदि तपस्वी साधु की, प्रवर्त्तक, आचार्य, उपाध्याय की, नव – दीक्षित साधु की तथा साधर्मिक, तपस्वी कुल, गण, संघ के चित्त की प्रसन्नता के लिए सेवा करने वाला हो। जो निर्जरा का अभिलाषी हो, जो अनिश्रित हो, वही दस प्रकार का वैयावृत्य, अन्नपान आदि अनेक प्रकार से करता है। वह अप्रीतिकारक गृहस्थ के कुल में प्रवेश नहीं करता और न अप्रीतिकारक के घर का आहार – पानी ग्रहण करता है। अप्रीतिकारक से पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्ट, मुख – वस्त्रिका एवं पादप्रोंछन भी नहीं लेता है। वह दूसरों की निन्दा नहीं करता और न दूसरे के दोषों को ग्रहण करता है। जो दूसरे के नाम से कुछ भी ग्रहण नहीं करता और न किसी को दानादि धर्म से विमुख करता है, दूसरे के दान आदि सुकृत का अथवा धर्माचरण का अपलाप नहीं करता है, जो दानादि देकर और वैयावृत्त्य आदि करके पश्चात्ताप नहीं करता है, ऐसा आचार्य, उपाध्याय आदि के लिए संविभाग करने वाला, संग्रह एवं उपकार करने में कुशल साधक ही इस अस्तेयव्रत का आराधक होता है। परकीय द्रव्य के हरण से विरमण रूप इस अस्तेयव्रत की परीक्षा के लिए भगवान तीर्थंकर देव ने यह प्रवचन समीचीन रूप से कहा है। यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकारी है, आगामी भव में शुभ फल प्रदान करने वाला और भविष्यत्‌ में कल्याणकारी है। यह प्रवचन शुद्ध है, न्याय – युक्ति – तर्क से संगत है, अकुटिल – मुक्ति का सरल मार्ग है, सर्वोत्तम है तथा समस्त दुःखों और पापों को निःशेष रूप से शान्त कर देने वाला है। परद्रव्यहरण – विरमण (अदत्तादानत्याग) व्रत की पूरी तरह रक्षा करने के लिए पाँच भावनाएं हैं, जो आगे कही जा रही हैं। पाँच भावनाओं में से प्रथम भावना इस प्रकार है – देवकुल, सभा, प्रपा, आवसथ, वृक्षमूल, आराम, कन्दरा, आकर, गिरिगुहा, कर्म, यानशाला, कुप्यशाला, मण्डप, शून्य घर, श्मशान, लयन तथा दुकान में और इसी प्रकार के अन्य स्थानों में जो भी सचित्त जल, मृत्तिका, बीज, दूब आदि हरित और चींटी – मकोड़े आदि त्रस जीवों से रहित हो, जिसे गृहस्थ ने अपने लिए बनवाया हो, प्रासुक हो, जो स्त्री, पशु एवं नपुंसक के संसर्ग से रहित हो और इस कारण जो प्रशस्त हो, ऐसे उपाश्रय में साधु को विहरना चाहिए – साधुओं के निमित्त जिसके लिए हिंसा की जाए, ऐसे आधाकर्म की बहुलता वाले, आसिक्त, संमार्जित, उत्सिक्त, शोभित, छादन, दूमन, लिम्पन, अनुलिंपन, ज्वलन, भाण्डों को इधर – उधर हटाए हुए स्थान – उपाश्रय साधुओं के लिए वर्जनीय है। ऐसा स्थान शास्त्र द्वारा निषिद्ध है। इस प्रकार विविक्त – स्थान में वसतिरूप समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला मुनि सदैव दुर्गति के कारण पापकर्म करने और करवाने से निवृत्त होता – बचता है तथा दत्त – अनुज्ञात अवग्रह में रुचि वाला होता है। दूसरी भावना निर्दोष संस्तारकग्रहण संबंधी है। आराम, उद्यान, कानन और वन आदि स्थानों में जो कुछ भी इक्कड जाति का घास तथा कठिन, जन्तुक, परा, मेरा, कूर्च, कुश, डाभ, पलाल, मूयक, वल्वज, पुष्प, फल, त्वचा, प्रवाल, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ और शर्करा आदि द्रव्य संस्तारक रूप उपधि के लिए अथवा संस्तारक एवं उपधि के लिए ग्रहण करता है तो इन उपाश्रय के भीतर की ग्राह्य वस्तुओं को दाता द्वारा दिये बिना ग्रहण करना नहीं कल्पता। इस प्रकार अवग्रहसमिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दुर्गति के कारणभूत पाप – कर्म के करने और कराने से निवृत्त होता – बचता है और दत्त – अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। तीसरी भावना शय्या – परिकर्मवर्जन है। पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक के लिए वृक्षों का छेदन नहीं करना चाहिए। वृक्षों के छेदन या भेदन से शय्या तैयार नहीं करवानी चाहिए। साधु जिस उपाश्रय में निवास करे, वहीं शय्या की गवेषणा करनी चाहिए। वहाँ की भूमि यदि विषम हो तो उसे सम न करे। पवनहीन स्थान को अधिक पवन वाला अथवा अधिक पवन वाले स्थान को पवनरहित बनाने के लिए उत्सुक न हो – ऐसा करने की अभिलाषा भी न करे, डाँस – मच्छर आदि के विषय में क्षुब्ध नहीं होना चाहिए और उन्हें हटाने के लिए धूम आदि नहीं करना चाहिए। इस प्रकार संयम की, संवर की, कषाय एवं इन्द्रियों के निग्रह, अत एव समाधि की प्रधानता वाला धैर्यवान मुनि काय से इस व्रत का पालन करता हुआ निरन्तर आत्मा के ध्यान में निरत रहकर, समितियुक्त रहकर और एकाकी – रागद्वेष से रहित होकर धर्म का आचरण करे। इस प्रकार शय्यासमिति के योग से भावित अन्तरात्मा वाला साधु सदा दुर्गति के कारणभूत पाप – कर्म से विरत होता है और दत्त – अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। चौथी भावना अनुज्ञातभक्तादि है। सब साधुओं के लिए साधारण सम्मिलित आहार – पानी आदि मिलने पर साधु को सम्यक्‌ प्रकार से – यतनापूर्वक खाना चाहिए। शाक और सूप की अधिकता वाला भोजन अधिक नहीं खाना चाहिए। तथा वेगपूर्वक, त्वरा के साथ, चंचलतापूर्वक और न विचारविहीन होकर खाना चाहिए। जो दूसरों को पीड़ाजनक हो ऐसा एवं सदोष नहीं खाना चाहिए। साधु को इस रीति से भोजन करना चाहिए, जिससे उसके तीसरे व्रत में बाधा उपस्थित न हो। यह अदत्तादानविरमणव्रत का सूक्ष्म नियम है। इस प्रकार सम्मिलित भोजन के लाभ में समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दुर्गतिहेतु पापकर्म से विरत होता है और दत्त एवं अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। पाँचवीं भावना साधर्मिक – विनय है। साधर्मिक के प्रति विनय का प्रयोग करना चाहिए। उपकार और तपस्या की पारणा में, वाचना और परिवर्तना में, भिक्षा में प्राप्त अन्न आदि अन्य साधुओं को देने में तथा उनसे लेने में और विस्मृत अथवा शंकित सूत्रार्थ सम्बन्धी पृच्छा करने में, उपाश्रय से बाहर नीकलते और उसमें प्रवेश करते समय विनय का प्रयोग करना चाहिए। इनके अतिरिक्त इसी प्रकार के अन्य सैकड़ों कारणों में विनय का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि विनय भी अपने आप में तप है और तप भी धर्म है। अत एव विनय का आचरण करना चाहिए। विनय किनका करना चाहिए ? गुरुजनों का, साधुओं का और तप करने वाले तपस्वियों का। इस प्रकार विनय से युक्त अन्तःकरण वाला साधु अधिकरण से विरत तथा दत्त – अनुज्ञात अवग्रह में रुचि वाला होता है। शेष पूर्ववत्‌। इस प्रकार (आचरण करने) से यह तीसरा संवरद्वार समीचीन रूप से पालित और सुरक्षित होता है। इस प्रकार यावत्‌ तीर्थंकर भगवान द्वारा कथित है, सम्यक्‌ प्रकार से उपदिष्ट है और प्रशस्त है। शेष शब्दों का अर्थ पूर्ववत्‌ समझना चाहिए।