सत्य संवर

 

द्वितीय संवर सत्यवचन है। सत्य शुद्ध, शुचि, शिव, सुजात, सुभाषित होता है। यह उत्तम व्रतरूप है और सम्यक्‌ विचारपूर्वक कहा गया है। इसे ज्ञानीजनों ने कल्याण के समाधान के रूप में देखा है। यह सुप्रतिष्ठित है, समीचीन रूप में संयमयुक्त वाणी से कहा गया है। सत्य सुरवरों, नरवृषभों, अतिशय बलधारियों एवं सुविहित जनों द्वारा बहुमत है। श्रेष्ठ मुनियों का धार्मिक अनुष्ठान है। तप एवं नियम से स्वीकृत किया गया है। सद्‌गति के पथ का प्रदर्शक है और यह सत्यव्रत लोक में उत्तम है। सत्य विद्याधरों की आकाशगामिनी विद्याओं को सिद्ध करने वाला है। स्वर्ग तथा मुक्ति के मार्ग का प्रदर्शक है। यथातथ्य रहित है, ऋजुक है, कुटिलता रहित है। यथार्थ पदार्थ का ही प्रतिपादक है, सर्व प्रकार से शुद्ध है, विसंवाद रहित है। मधुर है और मनुष्यों का बहुत – सी विभिन्न प्रकार की अवस्थाओं में आश्चर्यकारक कार्य करने वाले देवता के समान है। किसी महासमुद्र में, जिस में बैठे सैनिक मूढधी हो गए हों, दिशाभ्रम से ग्रस्त हो जाने के कारण जिनकी बुद्धि काम न कर रही हो, उनके जहाज भी सत्य के प्रभाव से ठहर जाते हैं, डूबते नहीं हैं। सत्य का ऐसा प्रभाव है कि भँवरों से युक्त जल के प्रवाह में भी मनुष्य बहते नहीं हैं, मरते नहीं हैं, किन्तु थाह पा लेते हैं। अग्नि से भयंकर घेरे में पड़े हुए मानव जलते नहीं हैं। उबलते हुए तेल, रांगे, लोहे और सीसे को छू लेते हैं, हथेली पर रख लेते हैं, फिर भी जलते नहीं हैं। मनुष्य पर्वत के शिखर से गिरा दिये जाते हैं – फिर भी मरते नहीं हैं। सत्य को धारण करने वाले मनुष्य चारों ओर से तलवारों के घेरे में भी अक्षत – शरीर संग्राम से बाहर नीकल आते हैं। सत्यवादी मानव वध, बन्धन सबल प्रहार और घोर वैर – विरोधियों के बीच में से मुक्त हो जाते हैं – बच नीकलते हैं। सत्यवादी शत्रुओं के घेरे में से बिना किसी क्षति के सकुशल बाहर आ जाते हैं। देवता भी सान्निध्य करते हैं। तीर्थंकरों द्वारा भाषित सत्य दस प्रकार का है। इसे चौदह पूर्वों के ज्ञाता महामुनियों ने प्राभृतों से जाना है एवं महर्षियों को सिद्धान्त रूप में दिया गया है। देवेन्द्रों और नरेन्द्रों ने इसका अर्थ कहा है, सत्य वैमानिक देवों द्वारा भी समर्थित है। महान्‌ प्रयोजन वाला है। मंत्र औषधि और विद्याओं की सिद्धि का कारण है – चारण आदि मुनिगणों की विद्याओं को सिद्ध करने वाला है। मानवगणों द्वारा वंदनीय है – इतना ही नहीं, सत्यसेवी मनुष्य देवसमूहों के लिए भी अर्चनीय तथा असुरकुमार आदि भवनपति देवों द्वारा भी पूजनीय होता है। अनेक प्रकार के पाषंडी – व्रतधारी इसे धारण करते हैं। इस प्रकार की महिमा से मण्डित यह सत्य लोक में सारभूत है। महासागर से भी गम्भीर है। सुमेरु पर्वत से भी अधिक स्थिर है। चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य है। सूर्यमण्डल से भी अधिक देदीप्यमान है। शरत्‌ – काल के आकाश तल से भी अधिक विमल है। गन्धमादन से भी अधिक सुरभिसम्पन्न है। लोक में जो भी समस्त मंत्र हैं, वशीकरण आदि योग है, जप है, प्रज्ञप्ति प्रभृति विद्याएं हैं, दस प्रकार के जृंभक देव हैं, धनुष आदि अस्त्र हैं, जो भी शस्त्र हैं, कलाएं हैं, आगम हैं, वे सभी सत्य में प्रतिष्ठित हैं। किन्तु जो सत्य संयम में बाधक हो – वैसा सत्य तनिक भी नहीं बोलना चाहिए। जो वचन हिंसा रूप पाप से युक्त हो, जो भेद उत्पन्न करने वाला हो, जो विकथाकारक हो, जो निरर्थक वाद या कलहकारक हो, जो वचन अनार्य हो, जो अन्य के दोषों को प्रकाशित करने वाला हो, विवादयुक्त हो, दूसरों की विडम्बना करने वाला हो, जो विवेकशून्य जोश और धृष्टता से परिपूर्ण हो, जो निर्लज्जता से भरा हो, जो लोक या सत्पुरुषों द्वारा निन्दनीय हो, ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिए। जो घटना भलीभाँति स्वयं न देखी हो, जो बात सम्यक्‌ प्रकार से सूनी न हो, जिसे ठीक तरह जान नहीं लिया हो, उसे या उसके विषय में बोलना नहीं चाहिए। इसी प्रकार अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा भी (नहीं करनी चाहिए), यथा – तू बुद्धिमान्‌ नहीं है, तू दरिद्र है, तू धर्मप्रिय नहीं है, तू कुलीन नहीं है, तू दानपति नहीं है, तू शूरवीर नहीं है, तू सुन्दर नहीं है, तू भाग्यवान नहीं है, तू पण्डित नहीं है, तू बहुश्रुत नहीं है, तू तपस्वी भी नहीं है, तुझमें परलोक संबंधी निश्चय करने की बुद्धि भी नहीं है, आदि। अथवा जो वचन सदा – सर्वदा जाति, कुल, रूप, व्याधि, रोग से सम्बन्धित हो, जो पीड़ाकारी या निन्दनीय होने के कारण वर्जनीय हो, अथवा जो वचन द्रोहकारक हो – शिष्टाचार के अनुकूल न हो, इस प्रकार का तथ्य – सद्भूतार्थ वचन भी नहीं बोलना चाहिए। जो वचन द्रव्यों से, पर्यायों से तथा गुणों से युक्त हों तथा कर्मों से, क्रियाओं से, शिल्पों से और सिद्धान्त – सम्मत अर्थों से युक्त हों और जो संज्ञापद, आख्यात, क्रियापद, निपात, अव्यय, उपसर्ग, तद्धितपद, समास, सन्धि, हेतु, यौगिक, उणादि, क्रियाविधान, पद, धातु, स्वर, विभक्ति, वर्ण, इन से युक्त हो (ऐसा वचन बोलना चाहिए।) त्रिकालविषयक सत्य दस प्रकार का होता है। जैसा मुख से कहा जाता है, उसी प्रकार कर्म से अर्थात्‌ लेखन क्रिया से तथा हाथ, पैर, आँख आदि की चेष्टा से, मुँह बनाना आदि आकृति से अथवा जैसा कहा जाए वैसी ही क्रिया करके बतलाने से सत्य होता है। बारह प्रकार की भाषा होती है। वचन सोलह प्रकार का होता है। इस प्रकार अरिहंत भगवान द्वारा अनुज्ञात तथा सम्यक्‌ प्रकार से विचारित सत्यवचन यथावसर पर ही साधु को बोलना चाहिए

 

अलीक – असत्य, पिशुन – चुगली, परुष – कठोर, कटु – कटुक और चपल – चंचलतायुक्त वचनों से बचाव के लिए तीर्थंकर भगवान ने यह प्रवचन समीचीन रूप से प्रतिपादित किया है। यह भगवत्प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, जन्मान्तर में शुभ भावना से युक्त है, भविष्य में श्रेयस्कर है, शुद्ध है, न्यायसंगत है, मुक्ति का सीधा मार्ग है, सर्वोत्कृष्ट है तथा समस्त दुःखों और पापों को पूरी तरह उपशान्त है। सत्यमहाव्रत की ये पाँच भावनाएं हैं, जो असत्य वचन के विरमण की रक्षा के लिए हैं, इन पाँच भावनाओं में प्रथम अनुवीचिभाषण है। सद्‌गुरु के निकट सत्यव्रत को सूनकर एवं उसके शुद्ध परमार्थ जानकर जल्दी – जल्दी नहीं बोलना चाहिए, कठोर वचन, चपलता वचन, सहसा वचन, परपीड़ा एवं सावद्य वचन नहीं बोलना चाहिए। किन्तु सत्य, हितकारी, परिमित, ग्राहक, शुद्ध – निर्दोष, संगत एवं पूर्वापर – अविरोधी, स्पष्ट तथा पहले बुद्धि द्वारा सम्यक्‌ प्रकार से विचारित ही साधु को अवसर के अनुसार बोलना चाहिए। इस प्रकार निरवद्य वचन बोलने की यतना के योग से भावित अन्तरात्मा हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख पर संयम रखने वाला, शूर तथा सत्य और आर्जव धर्म सम्पन्न होता है। दूसरी भावना क्रोधनिग्रह है। क्रोध का सेवन नहीं करना चाहिए। क्रोधी मनुष्य रौद्रभाव वाला हो जाता है और असत्य भाषण कर सकता है। मिथ्या, पिशुन और कठोर तीनों प्रकार के वचन बोलता है। कलह – वैर – विकथा – ये तीनों करता है। वह सत्य, शील तथा विनय – इन तीनों का घात करता है। असत्यवादी लोक में द्वेष, दोष और अनादर – इन तीनों का पात्र बनता है। क्रोधाग्नि से प्रज्वलितहृदय मनुष्य ऐसे और इसी प्रकार के अन्य सावद्य वचन बोलता है। अत एव क्रोध का सेवन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार क्षमा से भावित अन्तःकरण वाला हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख के संयम से युक्त, शूर साधु सत्य और आर्जव से सम्पन्न होता है। तीसरी भावना लोभनिग्रह है। लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए। लोभी मनुष्य लोलुप होकर क्षेत्र – खेत – खुली भूभि और वस्तु – मकान आदि के लिए असत्य भाषण करता है। कीर्ति और लोभ – वैभव और सुख के लिए, भोजन के लिए, पानी के लिए, पीठ – पीढ़ा और फलक के लिए, शय्या और संस्तारक के लिए, वस्त्र और पात्र के लिए, कम्बल और पादप्रोंछन के लिए, शिष्य और शिष्या के लिए, तथा इस प्रकार के सैकड़ों कारणों से असत्य भाषण करता है। लोभी व्यक्ति मिथ्या भाषण करता है, अत एव लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार मुक्ति से भावित अन्तःकरण वाला साधु हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख से संयत, शूर और सत्य तथा आर्जव धर्म से सम्पन्न होता है। चोथी भावना निर्भयता है। भयभीत नहीं होना चाहिए। भीरु मनुष्य को अनेक भय शीघ्र ही जकड़ लेते हैं। भीरु मनुष्य असहाय रहता है। भूत – प्रेतों द्वारा आक्रान्त कर लिया जाता है। दूसरों को भी डरा देता है। निश्चय ही तप और संयम को भी छोड़ बैठता है। स्वीकृत कार्यभार का भलीभाँति निर्वाह नहीं कर सकता है। सत्पुरुषों द्वारा सेवित मार्ग का अनुसरण करने में समर्थ नहीं होता। अत एव भय से, व्याधि – कुष्ठ आदि से, ज्वर आदि रोगों से, वृद्धावस्था से, मृत्यु से या इसी प्रकार के अन्य इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि के भय से डरना नहीं चाहिए। इस प्रकार विचार करके धैर्य की स्थिरता अथवा निर्भयता से भावित अन्तःकरण वाला साधु हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख से संयत, शूर एवं सत्य तथा आर्जवधर्म से सम्पन्न होता है। पाँचवीं भावना परिहासपरिवर्जन है। हास्य का सेवन नहीं करना चाहिए। हँसोड़ व्यक्ति अलीक और असत्‌ को प्रकाशित करने वाले या अशोभनीय और अशान्तिजनक वचनों का प्रयोग करते हैं। परिहास दूसरों के तिरस्कार का कारण होता है। हँसी में परकीय निन्दा – तिरस्कार ही प्रिय लगता है। हास्य परपीड़ाकारक होता है। चारित्र का विनाशक, शरीर की आकृति को विकृत करने वाला और मोक्षमार्ग का भेदन करने वाला है। हास्य अन्योन्य होता है, फिर परस्पर में परदारगमन आदि कुचेष्टा का कारण होता है। एक दूसरे के मर्म को प्रकाशित करने वाला बन जाता है। हास्य कन्दर्प – आज्ञाकारी सेवक जैसे देवों में जन्म का कारण होता है। असुरता एवं किल्बिषता उत्पन्न करता है। इस कारण हँसी का सेवन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार मौन से भावित अन्तःकरण वाला साधु हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख से संयत होकर शूर तथा सत्य और आर्जव से सम्पन्न होता है। इस प्रकार मन, वचन और काय से पूर्ण रूप से सुरक्षित इन पाँच भावनाओं से संवर का यह द्वार आचरित और सुप्रणिहित हो जाता है। अत एव धैर्यवान्‌ तथा मतिमान्‌ साधक को चाहिए कि वह आस्रव का निरोध करने वाले, निर्मल, निश्छिद्र, कर्मबन्ध के प्रवाह से रहित, संक्लेश का अभाव करने वाले एवं समस्त तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात इस योग को निरन्तर जीवनपर्यन्त आचरण में उतारे। इस प्रकार (पूर्वोक्त रीति से) सत्य नामक संवरद्वार यथासमय अंगीकृत, पालित, शोधित, तीरित, कीर्तित, अनुपालित और आराधित होता है। इस प्रकार ज्ञातमुनि – महावीर स्वामी ने इस सिद्धवरशासन का कथन किया है, विशेष प्रकार से विवेचन किया है। यह तर्क और प्रमाण से सिद्ध है, सुप्रतिष्ठित किया गया है, भव्य जीवों के लिए इसका उपदेश किया गया है, यह प्रशस्त – कल्याणकारी – मंगलमय है।