चौथा आस्रवद्वार अब्रह्मचर्य है। यह अब्रह्मचर्य देवों, मानवों और असुरों सहित समस्त लोक द्वारा प्रार्थनीय है। यह प्राणियों को फँसाने वाले कीचड़ के समान है। संसार के प्राणियों को बाँधने के लिए पाश और फँसाने के लिए जाल सदृश है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद इसका चिह्न है। यह अब्रह्मचर्य तपश्चर्या, संयम और ब्रह्मचर्य के लिए विघातक है। सदाचार सम्यक्चारित्र के विनाशक प्रमाद का मूल है। कायरों और कापुरुषों द्वारा इसका सेवन किया जाता है। यह सुजनों द्वारा वर्जनीय है। ऊर्ध्वलोक, अधोलोक एवं तिर्यक्लोक में, इसकी अवस्थिति है। जरा, मरण, रोग और शोक की बहुलता वाला है। वध, बन्ध और विघात कर देने पर भी इसका विघात नहीं होता। यह दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का मूल कारण है। चिरकाल से परिचित है और सदा से अनुगत है। यह दुरन्त है, ऐसा यह अधर्मद्वार है।
उस पूर्व प्ररूपित अब्रह्मचर्य के गुणनिष्पन्न अर्थात् सार्थक तीस नाम हैं। अब्रह्म, मैथुन, चरंत, संसर्गि, सेवनाधिकार, संकल्पी, बाधनापद, दर्प, मूढ़ता, मनःसंक्षोभ, अनिग्रह, विग्रह, विघात, विभग, विभ्रम, अधर्म, अशीलता, ग्रामधर्मतप्ति, गति, रागचिन्ता, कामभोगमार, वैर, रहस्य, गुह्य, बहुमान, ब्रह्मचर्यविघ्न, व्यापत्ति, विराधना, प्रसंग और कामगुण।
उस अब्रह्म नामक पापास्रव को अप्सराओं के साथ सुरगण सेवन करते हैं। कौन – से देव सेवन करते हैं जिनकी मति मोह के उदय से मूढ़ बन गई है तथा असुरकुमार, भुजगकुमार, गरुड़कुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, पवनकुमार तथा स्तनितकुमार, ये भवनवासी, अणपन्निक, पणपण्णिक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कूष्माण्ड और पतंग देव, पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग और गन्धर्व। ये व्यन्तर देव, इनके अतिरिक्त तीर्छे – लोक में ज्योतिष्क देव, मनुष्यगण तथा जलचर, स्थलचर एवं खेचर अब्रह्म का सेवन करते हैं। जिनका चत्त मोहग्रस्त है, जिनकी प्राप्त कायभोग संबंधी तृष्णा अतृप्त है, जो अप्राप्त कामभोगों के लिए तृष्णातुर है, जो महती तृष्णा से बूरी तरह अभिभूत है, जो विषयों में गृद्ध एवं मूर्च्छित है, उससे होने वाले दुष्परिणामों का भान नहीं है, जो अब्रह्म के कीचड़ में फँसे हुए हैं और जो तामसभाव से मुक्त नहीं हुए हैं, ऐसे अन्योन्य नरनारी के रूप में अब्रह्म का सेवन करते हुए अपनी आत्मा को दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म के पींजरे में डालते हैं। पुनः असुरों, सुरों, तिर्यंचों और मनुष्यों सम्बन्धी भोगों में रतिपूर्वक विहार में प्रवृत्त, सुरेन्द्रों और नरेन्द्रों द्वारा सत्कृत, देवलोक में देवेन्द्र सरीखे, भरतक्षेत्र में सहस्रों पर्वतों, नगरों, निगमों, जनपदों, पुरवरों, द्रोणमुखों, खेटों, कर्बटों, छावनियों, पत्तनों से सुशोभित, सुरक्षित, स्थिर लोगों के निवास वाली, एकच्छत्र, एवं समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का उपभोग करके चक्रवर्ती – नरसिंह हैं, नरपति हैं, नरेन्द्र हैं, नर – वृषभ हैं – स्वीकार किये उत्तरदायित्व को निभाने में समर्थ हैं, जो मरुभूमि के वृषभ के समान, अत्यधिक राज – तेज रूपी लक्ष्मी से देदीप्यमान हैं, जो सौम्य एवं निरोग हैं, राजवंशों में तिलक के समान हैं, जो सूर्य, चन्द्रमा, शंख, चक्र, स्वस्तिक, पताका, यव, मत्स्य, कच्छप, उत्तम, रथ, भग, भवन, विमान, अश्व, तोरण, नगरद्वार, मणि, रत्न, नंद्यावर्त्त, मूसल, हल, सुन्दर कल्पवृक्ष, सिंह, भद्रासन, सुरुचि, स्तूप, सुन्दर मुकुट, मुक्तावली हार, कुंडल, हाथी, उत्तम बैल, द्वीप, मेरुपर्वत, गरुड़, ध्वजा, इन्द्रकेतु, अष्टापद, धनुष, बाण, नक्षत्र, मेघ, मेखला, वीणा, गाड़ी का जुआ, छत्र, माला, दामिनी, कमण्डलु, कमल, घंटा, जहाज, सूई, सागर, कुमुदवन, मगर, हार, गागर, नूपुर, पर्वत, नगर, वज्र, किन्नर, मयूर, उत्तम राजहंस, सारस, चकोर, चक्रवाक – युगल, चंवर, ढाल, पव्वीसक, विपंची, श्रेष्ठ पंखा, लक्ष्मी का अभिषेक, पृथ्वी, तलवार, अंकुश, निर्मल कलश, भृंगार और वर्धमानक, (चक्रवर्ती इन सब) मांगलिक एवं विभिन्न लक्षणों के धारक होते हैं। बत्तीस हजार श्रेष्ठ मुकुटबद्ध राजा मार्ग में उनके पीछे – पीछे चलते हैं। वे चौंसठ हजार श्रेष्ठ युवतियों के नेत्रों के कान्त होते हैं। उनके शरीर की कान्ति रक्तवर्ण होती है। वे कमल के गर्भ, चम्पा के फूलों, कोरंट की माला और तप्त सुवर्ण की कसौटी पर खींची हुई रेखा के समान गौर वर्ण वाले होते हैं। उनके सभी अंगोपांग अत्यन्त सुन्दर और सुडौल होते हैं। बड़े – बड़े पत्तनों में बने हुए विविध रंगों के हिरनी के चर्म के समान कोमल एवं बहुमूल्य वल्कल से तथा चीनी वस्त्रों, रेशमी वस्त्रों से तथा कटिसूत्र से उनका शरीर सुशोभित होता है। उनके मस्तिष्क उत्तम सुगन्ध से सुंदर चूर्ण के गंध से और उत्तम कुसुमों से युक्त होते हैं। कुशल कलाचार्यों द्वारा निपुणतापूर्वक बनाई हुई सुखकर माला, कड़े, अंगद, तुटिक तथा अन्य उत्तम आभूषणों को वे शरीर पर धारण किए रहते हैं। एकावली हार से उनका कण्ठ सुशोभित रहता है। वे लम्बी लटकती धोती एवं उत्तरीय वस्त्र पहनते हैं। उनकी उंगलियाँ अंगूठियों से पीली रहती हैं। अपने उज्ज्वल एवं सुखप्रद वेष से अत्यन्त शोभायमान होते हैं। अपनी तेजस्विता से वे सूर्य के समान दमकते हैं। उनका आघोष शरद् ऋतु के नये मेघ की ध्वनि के समान मधुर गम्भीर एवं स्निग्ध होता है। उनके यहाँ चौदह रत्न – उत्पन्न हो जाते हैं और वे नौ निधियों के अधिपति होते हैं। उनका कोश, खूब भरपूर होता है। उनके राज्य की सीमा चातुरन्त होती है, चतुरंगिणी सेना उनके मार्ग का अनुगमन करती है। वे अश्वों, हाथियों, रथों, एवं नरों के अधिपति होते हैं। वे बड़े ऊंचे कुलों वाले तथा विश्रुत होते हैं। उनका मुख शरद् – ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा के समान होता है। शूरवीर होते हैं। उनका प्रभाव तीनों लोकों में फैला होता है एवं सर्वत्र उनकी जय – जयकार होती है। वे सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के अधिपति, धीर, समस्त शत्रुओं के विजेता, बड़े – बड़े राजाओं में सिंह के समान, पूर्वकाल में किए तप के प्रभाव से सम्पन्न, संचित पुष्ट सुख को भोगने वाले, अनेक वर्षशत के आयुष्य वाले एवं नरों में इन्द्र होते हैं। उत्तर दिशा में हिमवान् वर्षधर पर्वत और शेष तीन दिशाओं में लवणसमुद्र पर्यन्त समग्र भरतक्षेत्र का भोग उनके जनपदों में प्रधान एवं अतुल्य शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध सम्बन्धी काम – भोगों का अनुभव करते हैं। फिर भी वे काम – भोगों से तृप्त हुए बिना ही मरणधर्म को प्राप्त हो जाते हैं। बलदेव और वासुदेव पुरुषों में अत्यन्त श्रेष्ठ होते हैं, महान् बलशाली और महान् पराक्रमी होते हैं। बड़े – बड़े धनुषों को चढ़ाने वाले, महान् सत्त्व के सागर, शत्रुओं द्वारा अपराजेय, धनुषधारी, मनुष्यों में वृषभ समान, बलराम और श्रीकृष्ण – दोनों भाई – भाई विशाल परिवार समेत होते हैं। वे वसुदेव तथा समुद्रविजय आदि दशार्ह के तथा प्रद्युम्न, प्रतिव, शम्ब, अनिरुद्ध, निषध, उल्मुक, सारण, गज, सुमुख, दुर्मुख आदि यादवों और साढ़े तीन करोड़ कुमारों के हृदयों को प्रिय होते हैं। वे देवी रोहिणी तथा देवकी के हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाले होते हैं। सोलह हजार मुकुट – बद्ध राजा उनके मार्ग का अनुगमन करते हैं। वे सोलह हजार सुनयना महारानियों के हृदय के वल्लभ होते हैं। उनके भाण्डार विविध प्रकार की मणियों, स्वर्ण, रत्न, मोती, मूँगा, धन और धान्य के संचय रूप ऋद्धि से सदा भरपूर रहते हैं। वे सहस्रों हाथियों, घोड़ों एवं रथों के अधिपति होते हैं। सहस्रों ग्रामों, आकरों, नगरों, खेटों, कर्बटों, मडम्बों, द्रोणमुखों, पट्टनों, आश्रमों, संवाहों में स्वस्थ, स्थिर, शान्त और प्रमुदित जन निवास करते हैं, जहाँ विविध प्रकार के धान्य उपजाने वाली भूमि होती है, बड़े – बड़े सरोवर हैं, नदियाँ हैं, छोटे – छोटे तालाब हैं, पर्वत हैं, वन हैं, आराम हैं, उद्यान हैं, वे अर्धभरत क्षेत्र के अधिपति होते हैं, क्योंकि भरतक्षेत्र का दक्षिण दिशा की ओर का आधा भाग वैताढ्य नामक पर्वत के कारण विभक्त हो जाता है और वह तीन तरफ लवणसमुद्र से घिरा है। उन तीनों खण्डों के शासक वासुदेव होते हैं। वह अर्धभरत छहों प्रकार के कालों में होने वाले अत्यन्त सुख से युक्त होता है। बलदेव और वासुदेव धैर्यवान् और कीर्तिमान होते हैं। वे ओघबली होते हैं। अतिबल होते हैं। उन्हें कोई आहत नहीं कर सकता। वे कभी शत्रुओं द्वारा पराजित नहीं होते। वे दयालु, मत्सरता से रहित, चपलता से रहित, बिना कारण कोप न करने वाले, परिमित और मंजु भाषण करने वाले, मुस्कान के साथ गंभीर और मधुर वाणी का प्रयोग करने वाले, अभ्युगत के प्रति वत्सलता रखने वाले तथा शरणागत की रक्षा करने वाले होते हैं। उनका समस्त शरीर लक्षणों से, व्यंजनों से तथा गुणों से सम्पन्न होता है। मान और उन्मान से प्रमाणोपेत तथा इन्द्रियों एवं अवयवों से प्रतिपूर्ण होने के कारण उनके शरीर के सभी अंगोपांग सुडौल – सुन्दर होते हैं। चन्द्रमा के समान सौम्य होता है और वे देखने में अत्यन्त प्रिय और मनोहर होते हैं। वे अपराध को सहन नहीं करते। प्रचण्ड एवं देखने में गंभीर मुद्रा वाले होते हैं। बलदेव की ऊंची ध्वजा ताड़ वृक्ष के चिह्न से और वासुदेव की ध्वजा गरुड़ के चिह्न से अंकित होती है। गर्जते हुए अभिमानियों में भी अभिमानी मौष्टिक और चाणूर नामक पहलवानों के दर्प को (उन्होंने) चूर – चूर कर दिया था। रिष्ट नामक सांड का घात करने वाले, केसरी सिंह के मुख को फाड़ने वाले, अभिमानी नाग के अभिमान का मथन करने वाले, यमल अर्जुन को नष्ट करने वाले, महाशकुनि और पूतना नामक विद्याधारियों के शत्रु, कंस के मुकुट को मोड़ देने वाले और जरासंघ का मान – मर्दन करने वाले थे। वे सघन, एक – सरीखी एवं ऊंची शलाकाओं से निर्मित तथा चन्द्रमण्डल के समान प्रभा वाले, सूर्य की किरणों के समान, अनेक प्रतिदण्डों से युक्त छत्रों को धारण करने से अतीव शोभायमान थे। उनके दोनों पार्श्वभागों में ढोले जाते हुए चामरों से सुखद एवं शीतल पवन किया जाता है। उन चामरों की विशेषता इस प्रकार है – पार्वत्य प्रदेशों में विचरण करने वाली चमरी गायों से प्राप्त किये जाने वाले, नीरोग चमरी गायों के पूछ में उत्पन्न हुए, अम्लान, उज्ज्वल – स्वच्छ रजतगिरि के शिखर एवं निर्मल चन्द्रमा की किरणों के सदृश वर्ण वाले तथा चाँदी के समान निर्मल होते हैं। पवन से प्रताडित, चपलता से चलने वाले, लीलापूर्वक नाचते हुए एवं लहरों के प्रसार तथा सुन्दर क्षीर – सागर के सलिलप्रवाह के समान चंचल होते हैं। साथ ही वे मानसरोवर के विस्तार में परिचित आवास वाली, श्वेत वर्ण वाली, स्वर्णगिरि पर स्थित तथा ऊपर – नीचे गमन करने में अन्य चंचल वस्तुओं को मात कर देने वाले वेग से युक्त हंसनियों के समान होते हैं। विविध प्रकार की मणियों के तथा तपनीय स्वर्ण के बने विचित्र दंडों वाले होते हैं। वे लालित्य से युक्त और नरपतियों की लक्ष्मी के अभ्युदय को प्रकाशित करते हैं। वे बड़े – बड़े पत्तनों – में निर्मित होते हैं और समृद्धिशाली राजकुलों में उनका उपयोग किया जाता है। वे चामर, काले अगर, उत्तम कुंदरुक्क एवं तुरुष्क की धूप के कारण उत्पन्न होने वाली सुगंध के समूह से सुगंधित होते हैं। (वे बलदेव और वासुदेव) अपराजेय होते हैं। उनके रथ अपराजित होते हैं। बलदेव हाथों में हल, मूसल और बाण धारण करते हैं और वासुदेव पाञ्चजन्य शंख, सुदर्शन चक्र, कौमुदी गदा, शक्ति और नन्दक नामक खड्ग धारण करते हैं। अतीव उज्ज्वल एवं सुनिर्मित कौस्तुभ मणि और मुकुट को धारण करते हैं। कुंडलों से उनका मुखमण्डल प्रकाशित होता रहता है। उनके नेत्र पुण्डरीक समान विकसित होता है। उनके कण्ठ और वक्षःस्थल पर एकावली हार शोभित रहता है। उनके वक्षःस्थल में श्रीवत्स का सुन्दर चिह्न बना होता है। वे उत्तम यशस्वी होते हैं। सर्व ऋतुओं के सौरभमय सुमनों से ग्रथित लम्बी शोभायुक्त एवं विकसित वनमाला से उनका वक्षःस्थल शोभायमान रहता है। उनके अंग उपांग एक सौ आठ मांगलिक तथा सुन्दर लक्षणों से सुशोभित होते हैं। उनकी गति मदोन्मत्त उत्तम गजराज की गति के समान ललित और विलासमय होती है। उनकी कमर कटिसूत्र से शोभित होती है और वे नीले तथा पीले वस्त्रों को धारण करते हैं। वे देदीप्यमान तेज से विराजमान होते हैं। उनका घोष शरत्काल के नवीन मेघ की गर्जना के समान मधुर, गंभीर और स्निग्ध होता है। वे नरों में सिंह के समान होते हैं। उनकी गति सिंह के समान पराक्रमपूर्ण होती है। वे बड़े – बड़े राज – सिंहों के समाप्त कर देने वाले हैं। फिर (भी प्रकृति से) सौम्य होते हैं। वे द्वारवती के पूर्ण चन्द्रमा थे। वे पूर्वजन्म में किये तपश्चरण के प्रभाव वाले होते हैं। वे पूर्वसंचित इन्द्रियसुखों के उपभोक्ता और अनेक सौ वर्षों की आयु वाले होते हैं। ऐसे बलदेव और वासुदेव अनुपम शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धरूप इन्द्रियविषयों का अनुभव करते हैं। परन्तु वे भी कामभोगों से तृप्त हुए बिना ही कालधर्म को प्राप्त होते हैं। और माण्डलिक राजा भी होते हैं। वे भी सबल होते हैं। उनका अन्तःपुर विशाल होता है। वे सपरिषद् होते हैं। शान्तिकर्म करने वाले पुरोहितों से, अमात्यों से, दंडनायकों से, सेनापतियों से जो गुप्त मंत्रणा करने एवं नीति में निपुण होते हैं, इन सब से सहित होते हैं। उनके भण्डार अनेक प्रकार की मणियों से, रत्नों से, विपुल धन और धान्य से समृद्ध होते हैं। वे अपनी विपुल राज्य – लक्ष्मी का अनुभव करके, अपने शत्रुओं का पराभव करके बल में उन्मत्त रहते हैं – ऐसे माण्डलिक राजा भी कामभोगों से तृप्त नहीं हुए। वे भी अतृप्त रह कर ही कालधर्म को प्राप्त हो गए। इसी प्रकार देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रों के वनों में और गुफाओं में पैदल विचरण करने वाले युगल मनुष्य होते हैं। वे उत्तम भोगों से सम्पन्न होते हैं। प्रशस्त लक्षणों के धारक होते हैं। भोग – लक्ष्मी से युक्त होते हैं। वे प्रशस्त मंगलमय सौम्य एवं रूपसम्पन्न होने के कारण दर्शनीय होते हैं। सर्वांग सुन्दर शरीर के धारक होते हैं। उनकी हथेलियाँ और पैरों के तलभाग – लाल कमल के पत्तों की भाँति लालिमायुक्त और कोमल होते हैं। उनके पैर कछुए के समान सुप्रतिष्ठित होते हैं। उनकी अंगुलियाँ अनुक्रम से बड़ी – छोटी, सुसंहत होती हैं। उनके नख उन्नत – पतले, रक्तवर्ण और चिकने होते हैं। उनके पैरों के गुल्फ सुस्थित, सुघड़ और मांसल होने के कारण दिखाई नहीं देते हैं। उनकी जंघाएं हिरणी की जंघा, कुरुविन्द नामक तृण और वृत्त समान क्रमशः वर्तुल एवं स्थूल होती हैं। उनके घुटने डिब्बे एवं उसके ढक्कन की संधि के समान गूढ़ होते हैं, उनकी गति मदोन्मत्त उत्तम हस्ती के समान विक्रम और विकास से युक्त होती है, उनका गुह्यदेश उत्तम जाति के घोड़े के गुप्तांग के समान सुनिर्मित एवं गुप्त होता है। उत्तम जाति के अश्व के समान उन यौगलिक पुरुषों का गुदाभाग भी मल के लेप से रहित होता है। उनका कटिभाग हृष्ट – पृष्ट एवं श्रेष्ठ और सिंह की कमर से भी अधिक गोलाकार होता है। उनकी नाभि गंगा नदी के आवर्त्त के समान चक्कर – दार तथा सूर्य की किरणों से विकसित कमल की तरह गंभीर और विकट होती है। उनके शरीर का मध्यभाग समेटी हुई त्रिकाष्ठिका – मूसल, दर्पण और शुद्ध किए हुए उत्तम स्वर्ण से निर्मित खड्ग की मूठ एवं श्रेष्ठ वज्र के समान कृश होता है। उनकी रोमराजि सीधी, समान, परस्पर सटी हुई, स्वभावतः बारीक, कृष्णवर्ण, चिकनी, प्रशस्त पुरुषों के योग्य सुकुमार और सुकोमल होती है। वे मत्स्य और विहग के समान उत्तम रचना से युक्त कुक्षि वाले होने से झषोदर होते हैं। उनकी नाभि कमल के समान गंभीर होती है। पार्श्वभाग नीचे की ओर झुके हुए होते हैं, अत एव संगत, सुन्दर और सुजात होते हैं। वे पार्श्व प्रमाणोपेत एवं परिपुष्ट होते हैं। वे ऐसे देह के धारक होते हैं, जिसकी पीठ और बगल की हड्डियाँ माँसयुक्त होती हैं तथा जो स्वर्ण के आभूषण के समान निर्मल कान्तियुक्त, सुन्दर बनावट वाली और निरुपहत होती है। उनके वक्षःस्थल सोने की शिला के तल के समान प्रशस्त, समतल, उपचित और विशाल होते हैं। उनकी कलाइयाँ गाड़ी के जुए के समान पुष्ट, मोटी एवं रमणीय होती हैं। तथा अस्थिसन्धियाँ अत्यन्त सुडौल, सुगठित, सुन्दर, माँसल और नसों से दृढ़ बनी होती हैं। उनकी भुजाएं नगर के द्वार की आगल के समान लम्बी और गोलाकार होती हैं। उनके बाहु भुजगेश्वर के विशाल शरीर के समान और अपने स्थान से पृथक् की हुई आगल के समान लम्बे होते हैं। उनके हाथ लाल – लाल हथेलियों वाले, परिपुष्ट, कोमल, मांसल, सुन्दर बनावट वाले, शुभ लक्षणों से युक्त और निश्छिद्र उंगलियों वाले होते हैं। उनके हाथों की उंगलियाँ पुष्ट, सुरचित, कोमल और श्रेष्ठ होती हैं। उनके नख ताम्रवर्ण के, पतले, स्वच्छ, रुचिर, चिकने होते हैं। तथा चन्द्रमा की तरह, सूर्य के समान, शंख के समान या चक्र के समान, दक्षिणावर्त्त स्वस्तिक के चिह्न से अंकित, हस्त – रेखाओं वाले होते हैं। उनके कंधे उत्तम महिष, शूकर, सिंह, व्याघ्र, सांड़ और गजराज के कंधे के समान परिपूर्ण होते हैं। उनकी ग्रीवा चार अंगुल परिमित एवं शंख जैसी होती है। उनक दाढ़ी – मूँछें अवस्थित हैं तथा सुविभक्त एवं सुशोभन होती हैं। वे पुष्ट, मांसयुक्त, सुन्दर तथा व्याघ्र के समान विस्तीर्ण हनुवाले होते हैं। उनके अधरोष्ठ संशुद्ध मूँगे और बिम्बफल के सदृश लालिमायुक्त होते हैं। उनके दाँतों की पंक्ति चन्द्रमा के टुकड़े, निर्मल शंख, गाय के दूध के फेन, कुन्दपुष्प, जलकण तथा कमल की नाल के समान धवल – श्वेत होती है। उनके दाँत अखण्ड, अविरल, अतीव स्निग्ध और सुरचित होते हैं। वे एक दन्तपंक्ति के समान अनेक दाँतों वाले होते हैं। उनका तालु और जिह्वा अग्नि में तपाये हुए और फिर धोये हुए स्वच्छ स्वर्ण के सदृश लाल तल वाली होती है। उनकी नासिका गरुड़ के समान लम्बी, सीधी और ऊंची होती है। उनके नेत्र विकसित पुण्डरीक के समान एवं धवल होते हैं। उनकी भ्रू किंचित् नीचे झुकाए धनुष के समान मनोरम, कृष्ण मेघों की रेखा के समान काली, उचित मात्रा में लम्बी एवं सुन्दर होती हैं। कान आलीन और उचित प्रमाण वाले होते हैं। उनके कपोलभाग परिपुष्ट तथा मांसल होते हैं। उनका ललाट अचिर उद्गत, ऐसे बाल – चन्द्रमा के आकार का तथा विशाल होता है। उनका मुखमण्डल पूर्ण चन्द्र के सदृश सौम्य होता है। मस्तक छत्र के आकार का उभरा हुआ होता है। उनके सिर का अग्रभाग मुद्गर के समान सुदृढ नसों से आबद्ध, प्रशस्त लक्षणों – चिह्नों से सुशोभित, उन्नत, शिखर – युक्त भवन के समान और गोलाकार पिण्ड जैसा होता है। उनके मस्तक की चमड़ी अग्नि में तपाये और फिर धोये हुए सोने के समान लालिमायुक्त एवं केशों वाली होती है। उनके मस्तक के केश शामल्मली वृक्ष के फल के समान सघन, छांटे हुए – बारीक, सुस्पष्ट, मांगलिक, स्निग्ध, उत्तम लक्षणों से युक्त, सुवासित, सुन्दर, भुजमोचक रत्न जैसे काले वर्ण वाले, नीलमणि और काजल के सदृश तथा हर्षित भ्रमरों में झुंड की तरह काली कान्ति वाले, गुच्छ रूप, घुंघराले, दक्षिणावर्त्त हैं। उनके अंग सुडौल, सुविभक्त और सुन्दर होते हैं। वे यौगलिक उत्तम लक्षणों, व्यंजनों तथा गुणों से सम्पन्न होते हैं। वे प्रशस्त बत्तीस लक्षणों के धारक होते हैं। वे हंस के, क्रौंच पक्षी के, दुन्दुभि के एवं सिंह के समान स्वर वाले होते हैं। उनका स्वर ओघ होता है। उनकी ध्वनि मेघ की गर्जना जैसी होती है, अत एव कानों को प्रिय लगती है। उनका स्वर और निर्घोष सुन्दर होते हैं। वे वज्रऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान के धारक होते हैं। उनके अंग – प्रत्यंग कान्ति से देदीप्यमान रहते हैं। उनके शरीर की त्वचा प्रशस्त होती है। वे नीरोग होते हैं और कंक नामक पक्षी के समान अल्प आहार करते हैं। उनकी आहार को पचाने की शक्ति कबूतर जैसी होती है। उनका मल – द्वार पक्षी जैसा होता है, जिसके कारण वह मल – लिप्त नहीं होता। उनकी पीठ, पार्श्वभाग और जंघाएं सुन्दर, सुपरिमित होती हैं। पद्म नीलकमल की सुगन्ध के सदृश मनोहर गन्ध से उनका श्वास एवं मुख सुगन्धित रहता है। उनके शरीर की वायु का वेग सदा अनुकूल रहता है। वे गौर – वर्ण, स्निग्ध तथा श्याम होते हैं। उनका उदर शरीर के अनुरूप उन्नत होता है। वे अमृत के समान रस वाले फलों का आहार करते हैं। उनके शरीर की ऊंचाई तीन गव्यूति की और वायु तीन पल्योपम की होती है। पूरी आयु को भोग कर वे अकर्मभूमि के मनुष्य कामभोगों से अतृप्त रहकर ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं। उनकी स्त्रियाँ भी सौम्य एवं सात्त्विक स्वभाव वाली होती हैं। उत्तम सर्वांगों से सुन्दर होती हैं। महिलाओं के सब श्रेष्ठ गुणों से युक्त होती हैं। उनके पैर अत्यन्त रमणीय, शरीर के अनुपात में उचित प्रमाण वाले कच्छप के समान और मनोज्ञ होते हैं। उनकी उंगलियाँ सीधी, कोमल, पुष्ट और निश्छिद्र होती हैं। उनके नाखून उन्नत, प्रसन्न – ताजनक, पतले, निर्मल और चमकदार होते हैं। उनकी दोनों जंघाएं रोमों से रहित, गोलाकार श्रेष्ठ मांगलिक लक्षणों से सम्पन्न और रमणीय होती हैं। उनके घुटने सुन्दर रूप से निर्मित तथा मांसयुक्त होने के कारण निगूढ होते हैं। उनकी सन्धियाँ मांसल, प्रशस्त तथा नसों से सुबद्ध होती हैं। उनकी सांथल कदली – स्तम्भ से भी अधिक सुन्दर आकार की, घाव आदि से रहित, सुकुमार, कोमल, अन्तररहित, समान प्रमाण वाली, सुन्दर लक्षणों से युक्त, सुजात, गोलाकार और पुष्ट होती है। उनकी कटि अष्टापद समान आकारवाली, श्रेष्ठ और विस्तीर्ण होती है। वे मुख की लम्बाई के प्रमाण, विशाल, मांसल, गढे हुए श्रेष्ठ जघन को धारण करनेवाली होती हैं। उदर वज्र के समान शोभायमान, शुभ लक्षणों से सम्पन्न एवं कृश होता है। शरीर का मध्यभाग त्रिवलि से युक्त, कृश और नमित होता है। रोमराजि सीधी, एक – सी, परस्पर मिली हुई, स्वाभाविक, बारीक, काली, मुलायम, प्रशस्त, ललित, सुकुमार, कोमल और सुविभक्त होती है। नाभि गंगा नदी के भंवरों के समान, दक्षिणावर्त चक्कर वाली तरंगमाला जैसी, सूर्य की किरणों से ताजा खिले हुए और नहीं कुम्हलाए हुए कमल के समान गंभीर एवं विशाल होती हैं। उनकी कुक्षि अनुद्भट प्रशस्त, सुन्दर और पुष्ट होती है। उनका पार्श्वभाग सन्नत, सुगठित और संगत होता है तथा प्रमाणोपेत, उचित मात्रा में रचित, पुष्ट और रतिद होता है। उनकी गात्रयष्टि अस्थि से रहित, शुद्ध स्वर्ण से निर्मित रुचक नामक आभूषण के समान निर्मल या स्वर्ण की कान्ति के समान सुगठित तथा नीरोग होती है। उनके दोनों पयोधर स्वर्ण के दो कलशों के सदृश, प्रमाणयुक्त, उन्नत, कठोर तथा मनोहर चूची वाले तथा गोलाकार होते हैं। उनकी भुजाएं सर्प की आकृति सरीखी क्रमशः पतली गाय की पूँछ के समान गोलाकार, एक – सी, शिथिलता से रहित, सुनमित, सुभग एवं ललित होती हैं। उनके नाखून ताम्रवर्ण होते हैं। उनके अग्रहस्त मांसल होती है। उनकी अंगुलियाँ कोमल और पुष्ट होती हैं। उनकी हस्तरेखाएं स्निग्ध होती हैं तथा चन्द्रमा, सूर्य, शंख, चक्र एवं स्वस्तिक के चिह्नों से अंकित एवं सुनिर्मित होती हैं। उनकी कांख और मलोत्सर्गस्थान पुष्ट तथा उन्नत होते हैं एवं कपोल परिपूर्ण तथा गोलाकार होते हैं। उनकी ग्रीवा चार अंगुल प्रमाण वाली एवं उत्तम शंख जैसी होती है। उनकी ठुड्डी मांस से पुष्ट, सुस्थिर तथा प्रशस्त होती है। उनके अधरोष्ठ अनार के खिले फूल जैसे लाल, कान्तिमय, पुष्ट, कुछ लम्बे, कुंचित और उत्तम होते हैं। उनके उत्तरोष्ठ भी सुन्दर होते हैं। उनके दाँत दहीं, पत्ते पर पड़ी बूँद, कुन्द के फूल, चन्द्रमा एवं चमेली की कली के समान श्वेत वर्ण, अन्तररहित और उज्ज्वल होते हैं। वे रक्तोत्पल के समान लाल तथा कमलपत्र के सदृश कोमल तालु और जिह्वा वाली होती हैं। उनकी नासिका कनेर की कली के समान, वक्रता से रहित, आगे से ऊपर उठी, सीधी और ऊंची होती है। उनके नेत्र सूर्यविकासी कमल, चन्द्रविकासी कुमुद तथा कुवलय के पत्तों के समूह के समान, शुभ लक्षणों से प्रशस्त, कुटिलता से रहित और कमनीय होते हैं। भौंहें किंचित् नमाये हुए धनुष के समान मनोहर, कृष्णवर्ण मेघमाला के समान सुन्दर, पतली, काली और चिकनी होती हैं। कपोलरेखा पुष्ट, साफ और चिकनी होती हैं। ललाट चार अंगुल विस्तीर्ण और सम होता है। मुख चन्द्रिकायुक्त निर्मल एवं परिपूर्ण चन्द्र समान गोलाकार एवं सौम्य होता है। मस्तक छत्र के सदृश उन्नत होता है। और मस्तक के केश काले, चिकने और लम्बे – लम्बे होते हैं। वे उत्तम बत्तीस लक्षणों से सम्पन्न होती हैं – यथा छत्र, ध्वजा, यज्ञस्तम्भ, स्तूप, दामिनी, कमण्डलु, कलश, वापी, स्वस्तिक, पताका, यव, मत्स्य, कच्छप, प्रधान रथ, मकरध्वज, वज्र, थाल, अंकुश, अष्टापद, स्थापनिका, देव, लक्ष्मी का अभिषेक, तोरण, पृथ्वी, समुद्र, श्रेष्ठ भवन, श्रेष्ठ पर्वत, उत्तम दर्पण, क्रीड़ा करता हुआ हाथी, वृषभ, सिंह और चमर। उनकी चाल हंस जैसी और वाणी कोकिला के स्वर की तरह मधुर होती है। वे कमनीय कान्ति से युक्त और सभी को प्रिय लगती हैं। उनके शरीर पर न झुरियाँ पड़ती हैं, न उनके बाल सफेद होते हैं, न उनमें अंगहीनता होती है, न कुरूपता होती है। वे व्याधि, दुर्भाग्य एवं शोक – चिन्ता से मुक्त रहती हैं। ऊंचाई में पुरुषों से कुछ कम ऊंची होती हैं। शृंगार के आगार के समान और सुन्दर वेश – भूषा से सुशोभित होती हैं। उनके स्तन, जघन, मुख, हाथ, पाँव और नेत्र – सभी कुछ अत्यन्त सुन्दर होते हैं। सौन्दर्य, रूप और यौवन के गुणों से सम्पन्न होती हैं। वे नन्दन वन में विहार करने वाली अप्सराओं सरीखी उत्तरकुरु क्षेत्र की मानवी अप्सराएं होती हैं। वे आश्चर्यपूर्वक दर्शनीय होती हैं, वे तीन पल्योपम की उत्कृष्ट मनुष्यायु को भोग कर भी कामभोगों से तृप्त नहीं हो पाती और अतृप्त रहकर ही कालधर्म को प्राप्त होती हैं।
जो मनुष्य मैथुनसंज्ञा में अत्यन्त आसक्त है और मूढता अथवा से भरे हुए हैं, वे आपस में एक दूसरे का शस्त्रों से घात करते हैं। कोई – कोई विषयरूपी विष की उदीरणा करने वाली परकीय स्त्रियों में प्रवृत्त होकर दूसरों के द्वारा मारे जाते हैं। जब उनकी परस्त्रीलम्पटता प्रकट हो जाती है तब धन का विनाश और स्वजनों का सर्वथा नाश प्राप्त करते हैं, जो परस्त्रियों में विरत नहीं है और मैथुनसेवन की वासना से अतीव आसक्त हैं और मूढता या मोह से भरपूर हैं, ऐसे घोड़े, हाथी, बैल, भैंसे और मृग परस्पर लड़कर एक – दूसरे को मार डालते हैं। मनुष्यगण, बन्दर और पक्षीगण भी मैथुनसंज्ञा के कारण परस्पर विरोधी बन जाते हैं। मित्र शीघ्र ही शत्रु बन जाते हैं। परस्त्री – गामी पुरुष सिद्धांतों को, अहिंसा, सत्य आदि धर्मों को तथा गण को या समाज की मर्यादाओं को भंग कर देते हैं। यहाँ तक कि धर्म और संयमादि गुणों में निरत ब्रह्मचारी पुरुष भी मैथुनसंज्ञा के वशीभूत होकर क्षणभर में चारित्र – संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं। बड़े – बड़े यशस्वी और व्रतों का समीचीन रूप से पालन करने वाले भी अपयश और अपकीर्ति के भागी बन जाते हैं। ज्वर आदि रोगों से ग्रस्त तथा कोढ़ आदि व्याधियों से पीड़ित प्राणी मैथुनसंज्ञा की तीव्रता की बदौलत रोग और व्याधि की अधिक वृद्धि कर लेते हैं, जो मनुष्य परस्त्री से विरत नहीं है, वे दोनों लोको में, दुराधक होते हैं, इस प्रकार जिनकी बुद्धि तीव्र मोह या मोहनीय कर्म के उदय से नष्ट हो जाती है, वे यावत् अधोगति को प्राप्त होते हैं। सीता, द्रौपदी, रुक्मिणी, पद्मावती, तारा, काञ्चना, रक्तसुभद्रा, अहिल्या, किन्नरी, स्वर्णगुटिका, सुरूप – विद्युन्मती और रोहिणी के लिए पूर्वकाल में मनुष्यों के संहारक जो संग्राम हुए हैं, उनका मूल कारण मैथुन ही था – इनके अतिरिक्त महिलाओं के निमित्त से अन्य संग्राम भी हुए हैं, जो अब्रह्ममूलक थे। अब्रह्म का सेवन करने वाले इस लोक और परलोक में भी नष्ट होते हैं। मोहवशीभूत प्राणी पर्याप्त और अपर्याप्त, साधारण और प्रत्येकशरीरी जीवों में, अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदिम, उद्भिज्ज और औपपातिक जीवों में, नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्यगति के जीवों में, दारुण दशा भोगते हैं तथा अनादि और अनन्त, दीर्घ मार्ग वाले, चतुर्गतिक संसार रूपी अटवी में बार – बार परिभ्रमण करते हैं। अब्रह्म रूप अधर्म का यह इहलोकसम्बन्धी और परलोकसम्बन्धी फल – विपाक है। यह अल्पसुखवाला किन्तु बहुत दुःखोंवाला है। यह फल – विपाक अत्यन्त भयंकर है, अत्यधिक पाप – रज से संयुक्त है। बड़ा ही दारुण और कठोर है। असातामय है। हजारों वर्षों में इससे छूटकारा मिलता है, किन्तु इसे भोगे बिना छूटकारा नहीं मिलता। ऐसा ज्ञातकुल के नन्दन महावीर तीर्थंकर ने कहा है और अब्रह्म का फल – विपाक प्रतिपादित किया है। यह चौथा आस्रव अब्रह्म भी देवता, मनुष्य और असुर सहित समस्त लोक के प्राणियों द्वारा प्रार्थनीय है। इसी प्रकार यह चिरकाल से परिचित, अनुगत और दुरन्त है।