जिनेश्वर देव ने इस जगत में अनादि आस्रव को पाँच प्रकार का कहा है – हिंसा, असत्य, अदत्तादान, अब्रह्म और परिग्रह। प्राणवधरूप प्रथम आस्रव जैसा है, उसके जो नाम हैं, जिन पापी प्राणियों द्वारा वह किया जाता है, जिस प्रकार किया जाता है और जैसा फल प्रदान करता है, जिनेश्वर भगवान ने प्राणवध को इस प्रकार कहा है – यथा पाप, चण्ड, रुद्र, क्षुद्र, साहसिक, अनार्य, निर्घृण, नृशंस, महाभय, प्रतिभय, अतिभय, भापनक, त्रासनक, अन्याय, उद्वेगजनक, निरपेक्ष, निर्धर्म, निष्पिपास, निष्करुण, नरकवास गमन – निधन, मोहमहाभय प्रवर्तक और मरणवैमनस्य यह प्रथम अधर्मद्वार है।
प्राणवधरूप हिंसा के गुणवाचक तीस नाम हैं। यथा – प्राणवध, शरीर से (प्राणों का) उन्मूलन, अविश्वास, हिंस्यविहिंसा, अकृत्य, घात, मारण, वधना, उपद्रव, अतिपातना, आरम्भ – समारंभ, आयुकर्म का उपद्रव – भेद – निष्ठापन – गालना – संवर्तक और संक्षेप, मृत्यु, असंयम, कटकमर्दन, व्युपरमण, परभवसंक्रामणकारक, दुर्गतिप्रपात, पापकोप, पापलोभ, छविच्छेद, जीवित – अंतकरण, भयंकर, ऋणकर, वज्र, परितापन आस्रव, विनाश, निर्यापना, लुंपना और गुणों की विराधना। इत्यादि प्राणवध के कलुष फल के निर्देशक ये तीस नाम हैं।
कितने ही पातकी, संयमविहीन, तपश्चर्या के अनुष्ठान से रहित, अनुपशान्त परिणाम वाले एवं जिनके मन, वचन और काम का व्यापार दुष्ट है, जो अन्य प्राणियों को पीड़ा पहुँचाने में आसक्त रहते हैं तथा त्रस और स्थावर जीवों की प्रति द्वेषभाव वाले हैं, वे अनेक प्रकारों से हिंसा किया करते हैं। वे कैसे हिंसा करते हैं ? मछली, बड़े मत्स्य, महामत्स्य, अनेक प्रकार की मछलियाँ, अनेक प्रकार के मेंढक, दो प्रकार के कच्छप – दो प्रकार के मगर, ग्राह, मंडूक, सीमाकार, पुलक आदि ग्राह के प्रकार, सुंसुमार इत्यादि अनेकानेक प्रकार के जलचर जीवों का घात करते हैं। कुरंग और रुरु जाति के हिरण, सरभ, चमर, संबर, उरभ्र, शशक, पसय, बैल, रोहित, घोड़ा, हाथी, गधा, ऊंट, गेंडा, वानर, रोझ, भेड़िया, शृंगाल, गीदड़, शूकर, बिल्ली, कोलशुनक, श्रीकंदलक एवं आवर्त नामक खुर वाले पशु, लोमड़ी, गोकर्ण, मृग, भैंसा, व्याघ्र, बकरा, द्वीपिक, श्वान, तरक्ष, रींछ, सिंह, केसरीसिंह, चित्तल, इत्यादि चतुष्पद प्राणी हैं, जिनकी पूर्वोक्त पापी हिंसा करते हैं। अजगर, गोणस, दृष्टिविष सर्प – फेन वाला साँप, काकोदर – सामान्य सर्प, दर्वीकर सर्प, आसालिक, महोरग, इन सब और इस प्रकार के अन्य उरपरिसर्प जीवों का पापी वध करते हैं। क्षीरल, शरम्ब, सेही, शल्यक, गोह, उंदर, नकुल, गिरगिट, जाहक, गिलहरी, छछूंदर, गिल्लोरी, वातोत्पत्तिका, छिपकली, इत्यादि अनेक प्रकार के भुजपरिसर्प जीवों का वध करते हैं। हंस, बगुला, बलाका, सारस, आडा, सेतीय, कुलल, वंजुल, परिप्लव, तोता, तीतुर, दीपिका, श्वेत हंस, धार्तराष्ट्र, भासक, कुटीक्रोश, क्रौंच, दकतुंडक, ढेलियाणक, सुघरी, कपिल, पिंगलाक्ष, कारंडक, चक्रवाक, उक्कोस, गरुड़, पिंगुल, शुक, मयूर, मैना, नन्दीमुख, नन्दमानक, कोरंग, भृंगारक, कुणालक, चातक, तित्तिर, वर्त्तक, लावक, कपिंजल, कबूतर, पारावत, परेवा, चिड़िया, ढिंक, कुकड़ा, वेसर, मयूर, चकोर, हृदपुण्डरीक, करक, चील, बाज, वायस, विहग, श्वेत चास, वल्गुली, चमगादड़, विततपक्षी, समुद्गपक्षी, इत्यादि पक्षियों की अनेकानेक जातियाँ हैं, हिंसक जीव इनकी हिंसा करते हैं। जल, स्थल और आकाश में विचरण करने वाले पंचेन्द्रिय प्राणी तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अथवा चतुरिन्द्रिय प्राणी अनेकानेक प्रकार के हैं। इन सभी प्राणियों को जीवित रहना प्रिय है। मरण का दुःख अप्रिय है। फिर भी अत्यन्त संक्लिष्टकर्मा – पापी पुरुष इन बेचारे दीन – हीन प्राणियों का वध करते हैं। चमड़ा, चर्बी, माँस, मेद, रक्त, यकृत, फेफड़ा, भेजा, हृदय, आंत, पित्ताशय, फोफस, दाँत, अस्थि, मज्जा, नाखून, नेत्र, कान, स्नायु, नाक, धमनी, सींग, दाढ़, पिच्छ, विष, विषाण और बालों के लिए (हिंसक प्राणी जीवों की हिंसा करते हैं)। रसासक्त मनुष्य मधु के लिए – मधुमक्खियों का हनन करते हैं, शारीरिक सुख या दुःखनिवारण करने के लिए खटमल आदि त्रीन्द्रियों का वध करते हैं, वस्त्रों के लिए अनेक द्वीन्द्रिय कीड़ों आदि का घात करते हैं। अन्य अनेकानेक प्रयोजनों से त्रस – द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय – जीवों का घात करते हैं तथा बहुत – से एकेन्द्रिय जीवों का उनके आश्रय से रहे हुए अन्य सूक्ष्म शरीर वाले त्रस जीवों का समारंभ करते हैं। ये प्राणी त्राणरहित हैं – अशरण हैं – अनाथ हैं, बान्धवों रहित हैं और बेचारे अपने कृत कर्मों की बेड़ियों से जकड़े हुए हैं। जिनके परिणाम – अशुभ हैं, जो मन्दबुद्धि हैं, वे इन प्राणियों को नहीं जानते। वे अज्ञानी जन न पृथ्वीकाय को जानते हैं, न पृथ्वीकाय के आश्रित रहे अन्य स्थावरों एवं त्रस जीवों को जानते हैं। उन्हें जलकायिक तथा जल में रहने वाले अन्य जीवों का ज्ञान नहीं है। उन्हें अग्निकाय, वायुकाय, तृण तथा (अन्य) वनस्पतिकाय के एवं इनके आधार पर रहे हुए अन्य जीवों का परिज्ञान नहीं है। ये प्राणी उन्हीं के स्वरूप वाले, उन्हीं के आधार से जीवित रहने वाले अथवा उन्हीं का आहार करने वाले हैं। उन जीवों का वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शरीर अपने आश्रयभूत पृथ्वी, जल आदि सदृश होता है। उनमें से कोई जीव नेत्रों से दिखाई नहीं देते हैं और कोई – कोई दिखाई देते हैं। ऐसे असंख्य त्रसकायिक जीवों की तथा अनन्त सूक्ष्म, बादर, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर वाले स्थावरकाय के जीवों की जानबूझ कर या अनजाने इन कारणों से हिंसा करते हैं। वे कारण कौन से हैं, जिनसे (पृथ्वीकायिक) जीवों का वध किया जाता है ? कृषि, पुष्करिणी, वावड़ी, क्यारी, कूप, सर, तालाब, भित्ति, वेदिका, खाई, आराम, विहार, स्तूप, प्राकार, द्वार, गोपुर, अटारी, चरिका, सेतु – पुल, संक्रम, प्रासाद, विकल्प, भवन, गृह, झोंपड़ी, लयन, दूकान, चैत्य, देवकुल, चित्रसभा, प्याऊ, आयतन, देवस्थान, आवसथ, भूमिगृह और मंडप आदि के लिए तथा भाजन, भाण्ड आदि एवं उपकरणों के लिए मन्दबुद्धि जन पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं। स्नान, पान, भोजन, वस्त्र धोना एवं शौच आदि की शुद्धि, इत्यादि कारणों से जलकायिक जीवों की हिंसा की जाती है। भोजनादि पकाने, पकवाने, जलाने तथा प्रकाश करने के लिए अग्निकाय के जीवों की हिंसा की जाती है। सूप, पंखा, ताड़ का पंखा, मयूरपंख, मुख, हथेलियों, सागवान आदि के पत्ते तथा वस्त्र – खण्ड आदि से वायुकाय के जीवों की हिंसा की जाती है। गृह, परिचार, भक्ष्य, भोजन, शयन, आसन, फलक, मूसल, ओखली, तत, वितत, आतोद्य, वहन, वाहन, मण्डप, अनेक प्रकार के भवन, तोरण, विडंग, देवकुल, झरोखा, अर्द्धचन्द्र, सोपान, द्वारशाखा, अटारी, वेदी, निःसरणी, द्रौणी, चंगेरी, खूंटी, खम्भा, सभागार, प्याऊ, आवसथ, मठ, गंध, माला, विलेपन, वस्त्र, जूवा, हल, मतिक, कुलिक, स्यन्दन, शिबिका, रथ, शकट, यान, युग्य, अट्टालिका, चरिका, परिघ, फाटक, आगल, अरहट आदि, शूली, लाठी, मुसुंढी, शतध्नी, ढक्कन एवं अन्य उपकरण बनाने के लिए और इसी प्रकार के ऊपर कहे गए तथा नहीं कहे गए ऐसे बहुत – से सैकड़ों कारणों से अज्ञानी जन वनस्पतिकाय की हिंसा करते हैं। दृढमूढ – अज्ञानी, दारुण मति वाले पुरुष क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभूत होकर तथा हँसी, रति, अरति एवं शोक के अधीन होकर, वेदानुष्ठान के अर्थी होकर, जीवन, धर्म, अर्थ एवं काम के लिए, स्ववश और परवश होकर प्रयोजन से और बिना प्रयोजन त्रस तथा स्थावर जीवों का, जो अशक्त हैं, घात करते हैं। (ऐसे हिंसक प्राणी वस्तुतः) मन्दबुद्धि हैं। वे बुद्धिहीन क्रूर प्राणी स्ववश होकर घात करते हैं, विवश होकर, स्ववश – विवश दोनों प्रकार से, सप्रयोजन एवं निष्प्रयोजन तथा सप्रयोजन और निष्प्रयोजन दोनों प्रकार से घात करते हैं। हास्य – विनोद से, वैर से और अनुराग से प्रेरित होकर हिंसा करते हैं। क्रुद्ध होकर, लुब्ध होकर, मुग्ध होकर, क्रुद्ध – लुब्ध – मुग्ध होकर हनन करते हैं, अर्थ के लिए, धर्म के लिए, काम – भोग के लिए तथा अर्थ – धर्म – कामभोग तीनों के लिए घात करते हैं।
वे हिंसक प्राणी कौन हैं ? शौकरिक, मत्स्यबन्धक, मृगों, हिरणों को फँसाकर मारने वाले, क्रूरकर्मा वागुरिक, चीता, बन्धनप्रयोग, छोटी नौका, गल, जाल, बाज पक्षी, लोहे का जाल, दर्भ, कूटपाश, इन सब साधनों को हाथ में लेकर फिरने वाले, चाण्डाल, चिड़ीमार, बाज पक्षी तथा जाल को रखने वाले, वनचर, मधु – मक्खियों का घात करने वाले, पोतघातक, मृगों को आकर्षित करने के लिए मृगियों का पालन करने वाले, सरोवर, ह्लद, वापी, तालाब, पल्लव, खाली करने वाले, जलाशय को सूखाने वाले, विष अथवा गरल को खिलाने वाले, घास एवं खेत को निर्दयतापूर्वक जलाने वाले, ये सब क्रूरकर्मकारी हैं। ये बहुत – सी म्लेच्छ जातियाँ हैं, जो हिंसक हैं। वे कौन – सी हैं ? शक, यवन, शबर, बब्बर, काय, मुरुंड, उद, भडक, तित्तिक, पक्कणिक, कुलाक्ष, गौड, सिंहल, पारस, क्रौंच, आन्ध्र, द्रविड़, विल्वल, पुलिंद, आरोष, डौंब, पोकण, गान्धार, बहलीक, जल्ल, रोम, मास, वकुश, मलय, चुंचुक, चूलिक, कोंकण, मेद, पण्हव, मालव, महुर, आभाषिक, अणक्क, चीन, ल्हासिक, खस, खासिक, नेहुर, मरहष्ट्र, मौष्टिक, आरब, डोबलिक, कुहण, कैकय, हूण, रोमक, रुरु, मरुक, चिलात, इन देशों के निवासी, जो पाप बुद्धि वाले हैं, वे जो अशुभ लेश्या – परिणाम वाले हैं, वे जलचर, स्थलचर, सनखपद, उरग, नभश्चर, संड़ासी जैसी चोंच वाले आदि जीवों का घात करके अपनी आजीविका चलाते हैं। वे संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों का हनन करते हैं। वे पापी जन पाप को ही उपादेय मानते हैं। पाप में ही उनकी रुचि – होती है। वे प्राणिघात करके प्रसन्नता अनुभवते हैं। उनका अनुष्ठान – प्राणवध करना ही होता है। प्राणियों की हिंसा की कथा में ही आनन्द मानते हैं। वे अनेक प्रकार के पाप का आचरण करके संतोष अनुभव करते हैं। (पूर्वोक्त मूढ़ हिंसक लोग) हिंसा के फल – विपाक को नहीं जानते हुए, अत्यन्त भयानक एवं दीर्घकाल पर्यन्त बहुत – से दुःखों से व्याप्त – एवं अविश्रान्त – लगातार निरन्तर होने वाली दुःखरूप वेदना वाली नरकयोनि और तिर्यञ्चयोनि को बढ़ाते हैं। पूर्ववर्णित हिंसाकारी पापीजन यहाँ, मृत्यु को प्राप्त होकर अशुभ कर्मों की बहुलता के कारण शीघ्र ही – नरकों में उत्पन्न होते हैं। नरक बहुत विशाल है। उनकी भित्तियाँ वज्रमय हैं। उन भित्तियों में कोई सन्धिछिद्र नहीं है, बाहर नीकलने के लिए कोई द्वार नहीं है। वहाँ की भूमि कठोर है। वह नरक रूपी कारागार विषम है। वहाँ नारकावास अत्यन्त उष्ण एवं तप्त रहते हैं। वे जीव वहाँ दुर्गन्ध – के कारण सदैव उद्विग्न रहते हैं। वहाँ का दृश्य ही अत्यन्त बीभत्स है। वहाँ हिम – पटल के सदृश शीतलता है। वे नरक भयंकर हैं, गंभीर एवं रोमांच खड़े कर देने वाले हैं। धृणास्पद हैं। असाध्य व्याधियों, रोगों एवं जरा से पीड़ा पहुँचाने वाले हैं। वहाँ सदैव अन्धकार रहने के कारण प्रत्येक वस्तु अतीव भयानक लगती है। ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र आदि की ज्योति का अभाव है, मेद, वसा, माँस के ढेर होने से वह स्थान अत्यन्त धृणास्पद है। पीव और रुधिर के बहने से वहाँ की भूमि गीली और चिकनी रहती है और कीचड़ – सी बनी रहती है। वहाँ का स्पर्श दहकती हुई करीष की अग्नि या खदिर की अग्नि के समान उष्ण तथा तलवार, उस्तरा अथवा करवत की धार के सदृश तीक्ष्ण है। वह स्पर्श बिच्छू के डंक से भी अधिक वेदना उत्पन्न करने वाला अतिशय दुस्सह है। वहाँ के नारक जीव त्राण और शरण से विहीन हैं। वे नरक कटुक दुःखों के कारण घोर परिणाम उत्पन्न करने वाले हैं। वहाँ लगातार दुःखरूप वेदना चालु ही रहती है। वहाँ परमाधामी देव भरे पड़े हैं। नारकों को भयंकर – भयंकर यातनाएं देते हैं। वे पूर्वोक्त पापी जीव नरकभूमि में उत्पन्न होते ही अन्तर्मुहूर्त्त में नरकभवकारणक लब्धि से अपने शरीर का निर्माण कर लेते हैं। वह शरीर हुंडक संस्थान वाला – बेडौल, भद्दी आकृति वाला, देखने में बीभत्स, घृणित, भयानक, अस्थियों, नसों, नाखूनों और रोमों से रहित; अशुभ और दुःखों को सहन करने में सक्षम होता है। शरीर का निर्माण हो जाने के पश्चात् वे पर्याप्तियों से – पर्याप्त हो जाते हैं और पाँचों इन्द्रियों से अशुभ वेदना का वेदन करते हैं। उनकी वेदना उज्ज्वल, बलवती, विपुल, उत्कट, प्रखर, परुष, प्रचण्ड, घोर, डरावनी और दारुण होती है नारकों को जो वेदनाएं भोगनी पड़ती हैं, वै – कैसी हैं ? नारक जीवों को – कढाव जैसे चौड़े मुख के पात्र में और महाकुंभी – सरीखे महापात्र में पकाया और उबाला जाता है। सेका जाता है। भूँजा जाता है। लोहे की कढ़ाई में ईख के रस के समान औटाया जाता है। – उनकी काया के खंड – खंड कर दिये जाते हैं। लोहे के तीखे शूल के समान तीक्ष्ण काँटों वाले शाल्मलिवृक्ष के काँटों पर उन्हें इधर – उधर घसीटा जाता है। काष्ठ के समान उनकी चीर – फाड़ की जाती है। उनके पैर और हाथ जकड़ दिये जाते हैं। सैकड़ों लाठियों से उन पर प्रहार किये जाते हैं। गले में फंदा डालकर लटका दिया जाता है। शूली के अग्रभाग से भेदा जाता है। झूठे आदेश देकर उन्हें ठगा जाता है। उनकी भर्त्सना की जाती है। उन्हें वधभूमि में घसीट कर ले जाया जाता है। वध्य जीवों को दिए जाने वाले सैकड़ों प्रकार के दुःख उन्हें दिये जाते हैं। इस प्रकार वे नारक जीव पूर्व जन्म में किए हुए कर्मों के संचय से संतप्त रहते हैं। महा – अग्नि के समान नरक की अग्नि से तीव्रता के साथ जलते रहते हैं। वे पापकृत्य करने वाले जीव प्रगाढ़ दुःखमय, घोर भय उत्पन्न करने वाली, अतिशय कर्कश एवं उग्र शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार की असातारूप वेदना बहुत पल्योपम और सागरोपम काल तक रहती है। अपनी आयु के अनुसार करुण अवस्था में रहते हैं। वे यमकालिक देवों द्वारा त्रास को प्राप्त होते हैं और भयभीत होकर शब्द करते हैं – (नारक जीव) किस प्रकार रोते – चिल्लाते हैं ? हे अज्ञातबन्धु ! हे स्वामिन् ! हे भ्राता ! अरे बाप ! हे तात ! हे विजेता ! मुझे छोड़ दो। मैं मर रहा हूँ। मैं दुर्बल हूँ। मैं व्याधि से पीड़ित हूँ। आप क्यों ऐसे दारुण एवं निर्दय हो रहे हैं ? मेरे ऊपर प्रहार मत करो। मुहूर्त्तभर साँस तो लेने दीजिए। दया कीजिए। रोष न कीजिए। मैं जरा विश्राम ले लूँ। मेरा गला छोड़ दीजिए। मैं मरा जा रहा हूँ। मैं प्यास से पीड़ित हूँ। पानी दे दीजिए। ‘अच्छा, हाँ, यह निर्मल और शीतल जल पीओ।’ ऐसा कहकर नरकपाल नारकों को पकड़कर खौला हुआ सीसा कलश से उनकी अंजली में उड़ेल देते हैं। उसे देखते ही उनके अंगोपांग काँपने लगते हैं। उनके नेत्रों से आँसू टपकने लगते हैं। फिर वे कहते हैं – ‘हमारी प्यास शान्त हो गई !’ इस प्रकार करुणापूर्ण वचन बोलते हुए भागने के लिए दिशाएं देखने लगते हैं। अन्ततः वे त्राणहीन, शरणहीन, अनाथ, बन्धुविहीन – एवं भय के मारे धबड़ा करके मृग की तरह बड़े वेग से भागते हैं। कोई – कोई अनुकम्पा – विहीन यमकायिक उपहास करते हुए इधर – उधर भागते हुए उन नारक जीवों को जबरदस्ती पकड़कर और लोहे के डंडे से उनका मुख फाड़कर उसमें उबलता हुआ शीशा डाल देते हैं। उबलते शीशे से दग्ध होकर वे नारक भयानक आर्तनाद करते हैं। वे कबूतर की तरह करुणाजनक आक्रंदन करते हैं, खूब रुदन करते हुए अश्रु बहाते हैं। नरकापाल उन्हें रोक लेते हैं, बाँध देते हैं। तब आर्त्तनाद करते हैं, हाहाकार करते हैं, बड़बड़ाते हैं, तब नरकापाल कुपित होकर और उच्च ध्वनि से उन्हें धमकाते हैं। कहते हैं – इसे पकड़ो, मारो, प्रहार करो, छेद डालो, भेद डालो, इसकी चमड़ी उधेड़ दो, नेत्र बाहर नीकाल लो, इसे काट डालो, खण्ड – खण्ड कर डालो, हनन करो, इसके मुख में शीशा उड़ेल दो, इसे उठाकर पटक दो या मुख में और शीशा डाल दो, घसीटो, उलटो, घसीटो। नरकपाल फिर फटकारते हुए कहते हैं – बोलता क्यों नहीं ! अपने पापकर्मों को, अपने कुकर्मों को स्मरण कर ! इस प्रकार अत्यन्त कर्कश नरकपालों की ध्वनि की वहाँ प्रतिध्वनि होती है। नारक जीवों के लिए वह ऐसी सदैव त्रासजनक होती है कि जैसे किसी महानगर में आग लगने पर घोर शब्द – होता है, उसी प्रकार निरन्तर यातनाएं भोगने वाले नारकों का अनिष्ट निर्घोष वहाँ सूना जाता है। वे यातनाएं कैसी हैं ? नारकों को असि – वन में चलने को बाध्य किया जाता है, तीखी नोक वाले दर्भ के वन में चलाया जाता है, कोल्हू में डाल कर पेरा जाता है, सूई की नोक समान अतीव तीक्ष्ण कण्टकों के सदृश स्पर्श वाली भूमि पर चलाया जाता है, क्षारयुक्त पानी वाली वापिका में पटक दिया जाता है, उबलते हुए सीसे आदि से भरी वैतरणी नदी में बहाया जाता है, कदम्बपुष्प के समान – अत्यन्त तप्त – रेत पर चलाया जाता है, जलती हुई गुफा में बंद कर दिया जाता है, उष्णोष्ण एवं कण्टकाकीर्ण दुर्गम – मार्ग में रथ में जोतकर चलाया जाता है, लोहमय उष्ण मार्ग में चलाया जाता है और भारी भार वहन कराया जाता है। वे अशुभ विक्रियालब्धि से निर्मित सैकड़ों शस्त्रों से परस्पर को वेदना उत्पन्न करते हैं। वे विविध प्रकार के आयुध – शस्त्र कौन – से हैं ? वे शस्त्र ये हैं – मुद्गर, मुसुंढि, करवत, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, कुन्त, तोमर, शूल, लकुट, भिंडिमार, सद्धल, पट्टिस, चम्मेट्ठ, द्रुघण, मौष्टिक, असि – फलक, खङ्ग, चाप, नाराच, कनक, कप्पिणी – कर्त्तिका, वसूला, परशु। ये सभी अस्त्र – शस्त्र तीक्ष्ण और निर्मल – चमकदार होते हैं। इनसे तथा इसी प्रकार के अन्य शस्त्र से भी वेदना की उदीरणा करते हैं। नरकों में मुद्गर के प्रहारों से नारकों का शरीर चूर – चूर कर दिया जाता है, मुसुंढि से संभिन्न कर दिया जाता है, मथ दिया जाता है, कोल्हू आदि यंत्रों से पेरने के कारण फड़फड़ाते हुए उनके शरीर के टुकड़े – टुकड़े कर दिए जाते हैं। कईयों को चमड़ी सहित विकृत कर दिया जाता है, कान और ओठ नाक और हाथ – पैर समूल काट लिए जाते हैं, तलवार, करवत, तीखे भाले एवं फरसे से फाड़ दिये जाते हैं, वसूला से छीला जाता है, उनके शरीर पर उबलता खारा जल सींचा जाता है, जिससे शरीर जल जाता है, फिर भालों की नोक से उसके टुकड़े – टुकड़े कर दिए जाते हैं, इस इस प्रकार उनके समग्र शरीर को जर्जरित कर दिया जाता है। उनका शरीर सूझ जाता है और वे पृथ्वी पर लोटने लगते हैं। नरकक में दर्पयुक्त – मानो सदा काल से भूख से पीड़ित, भयावह, घोर गर्जना करते हुए, भयंकर रूप वाले भेड़िया, शिकारी कुत्ते, गीदड़, कौवे, बिलाव, अष्टापद, चीते, व्याघ्र, केसरी सिंह और सिंह नारकों पर आक्रमण कर देते हैं, अपनी मजबूत दाढ़ों से नारकों के शरीर को काटते हैं, खींचते हैं, अत्यन्त पैने नोकदार नाखूनों से फाड़ते हैं और फिर इधर – उधर चारों ओर फेंक देते हैं। उनके शरीर के बन्धन ढीले पड़ जाते हैं। उनके अंगोपांग विकृत और पृथक् हो जाते हैं। तत्पश्चात् दृढ़ एवं तीक्ष्ण दाढों, नखों और लोहे के समान नुकीली चोंच वाले कंक, कुरर और गिद्ध आदि पक्षी तथा घोर कष्ट देने वाले काक पक्षियों के झुंड कठोर, दृढ़ तथा स्थिर लोहमय चोंचों से झपट पड़ते हैं। उन्हें अपने पंखों से आघात पहुँचाते हैं। तीखे नाखूनों से उनकी जीभ बाहर खींच लेते हैं और आँखें बाहर नीकाल लेते हैं। निर्दयतापूर्वक उनके मुख को विकृत कर देते हैं। इस प्रकार की यातना से पीड़ित वे नारक जीव रुदन करते हैं, कभी ऊपर उछलते हैं और फिर नीचे आ गिरते हैं, चक्कर काटते हैं। पूर्वोपार्जित पापकर्मों के अधीन हुए, पश्चात्ताप से जलते हुए, अमुक – अमुक स्थानों में, उस – उस प्रकार के पूर्वकृत कर्मों की निन्दा करके, अत्यन्त चीकने – निकाचित दुःखों को भुगत कर, तत्पश्चात् आयु का क्षय होने पर नरकभूमियों में से नीकलकर बहुत – से जीव तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होते हैं। अतिशय दुःखों से परिपूर्ण होती है, दारुण कष्टों वाली होती है, जन्म – मरण – जरा – व्याधि का अरहट उसमें घूमता रहता है। उसमें जलचर, स्थलचर और नभश्चर के पारस्परिक घात – प्रत्याघात का प्रपंच या दुष्चक्र चलता रहता है। तिर्यंचगति के दुःख जगत में प्रकट दिखाई देते हैं। नरक से किसी भी भाँति नीकले और तिर्यंचयोनि में जन्मे वे पापी जीव बेचारे दीर्घ काल तक दुःखों को प्राप्त करते हैं। वे तिर्यंचयोनि के दुःख कौन – से हैं ? शीत, उष्ण, तृषा, क्षुधा, वेदना का अप्रतीकार, अटवी में जन्म लेना, निरन्तर भय से घबड़ाते रहना, जागरण, वध, बन्धन, ताड़न, दागना, डामना, गड़हे आदि में गिराना, हड्डियाँ तोड़ देना, नाक छेदना, चाबुक, लकड़ी आदि के प्रहार सहन करना, संताप सहना, छविच्छेदन, जबरदस्ती भारवहन आदि कामों में लगना, कोड़ा, अंकुश एवं डंडे के अग्र भाग में लगी हुई नोकदार कील आदि से दमन किया जाना, भार वहन करना आदि – आदि। तिर्यंचगति में इन दुःखों को भी सहन करना पड़ता है – माता – पिता का वियोग, शोक से अत्यन्त पीड़ित होना, या श्रोत – नखूनों आदि के छेदन से पीड़ित होना, शस्त्रों से, अग्नि से और विष से आघात पहुँचना, गर्दन – एवं सींगों का मोड़ा जाना, मारा जाना, गल – काँटे में या जाल में फँसा कर जल से बाहर नीकालना, पकाना, काटा जाना, जीवन पर्यन्त बन्धन में रहना, पींजरे में बन्द रहना, अपने समूह – से पृथक् किया जाना, भैंस आदि को फूँका लगाना, गले में डँड़ा बाँध देना, घेर कर रखना, कीचड़ – भरे पानी में डूबोना, जल में घुसेड़ना, गड्ढे में गिरने से अंग – भंग हो जाना, पहाड़ के विषम – मार्ग में गिर पड़ना, दावानल की ज्वालाओं में जलना, आदि – आदि कष्टों से परिपूर्ण तिर्यंचगति में हिंसाकारी पापी नरक से नीकलकर उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार वे हिंसा का पाप करने वाले पापी जीव सैकड़ों पीड़ाओं से पीड़ित होकर, नरकगति से आए हुए, प्रमाद, राग और द्वेष के कारण बहुत संचित किए और भोगने से शेष रहे कर्मों के उदयवाले अत्यन्त कर्कश असाता को उत्पन्न करने वाले कर्मों से उत्पन्न दुःखों के भजन बनते हैं। भ्रमर, मच्छर, मक्खी आदि पर्यायों में, उनकी नौ लाख जाति – कुलकोटियों में वारंवार जन्म – मरण का अनुभव करते हुए, नारकों के समान तीव्र दुःख भोगते हुए स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु से युक्त होकर वे पापी जीव संख्यात काल तक भ्रमण करते रहते हैं। इसी प्रकार कूंथु, पिपीलिका, अंधिका आदि त्रीन्द्रिय जीवों की पूरी आठ लाख कुलकोटियों में जन्म – मरण का अनुभव करते हुए संख्यात काल तक नारकों के सदृश तीव्र दुःख भोगते हैं। ये त्रीन्द्रिय जीव स्पर्शन, रसना और घ्राण – से युक्त होते हैं। गंडूलक, जलौक, कृमि, चन्दनक आदि द्वीन्द्रिय जीव पूरी सात लाख कुलकोटियों में से वहीं – वहीं जन्म – मरण की वेदना का अनुभव करते हुए संख्यात हजार वर्षों तक भ्रमण करते रहते हैं। वहाँ भी उन्हें नारकों के समान तीव्र दुःख भुगतने पड़ते हैं। ये द्वीन्द्रिय जीव स्पर्शन और रसना वाले होते हैं। एकेन्द्रिय अवस्था को प्राप्त हुए पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के दो – दो भेद हैं – सूक्ष्म और बादर, या पर्याप्तक और अपर्याप्तक। वनस्पतिकाय में इन भेदों के अतिरिक्त दो भेद और भी हैं – प्रत्येकशरीरी और साधारणशरीरी। इन भेदों में से प्रत्येकशरीर पर्याय में उत्पन्न होने वाले पापी – जीव असंख्यात काल तक उन्हीं उन्हीं पर्यायों में परिभ्रमण करते रहते हैं और अनन्तकाय में अनन्त काल तक पुनः पुनः जन्म – मरण करते हुए भ्रमण किया करते हैं। ये सभी जीव एक स्पर्शनेन्द्रिय वाले होते हैं। इनके दुःख अतीव अनिष्ट होते हैं। वनस्पतिकाय रूप एकेन्द्रिय पर्याय में कायस्थिति सबसे अधिक – अनन्तकाल की है। कुदाल और हल से पृथ्वी का विदारण किया जाना, जल का मथा जाना और निरोध किया जाना, अग्नि तथा वायु का विविध प्रकार से शस्से घट्टन होना, पारस्परिक आघातों से आहत होना, मारना, दूसरों के निष्प्रयोजन अथवा प्रयोजन वाले व्यापार से उत्पन्न होने वाली विराधना की व्यथा सहन करना, खोदना, छानना, मोड़ना, सड़ जाना, स्वयं टूट जाना, मसलना – कुचलना, छेदन करना, छीलना, रोमों का उखाड़ना, पत्ते आदि तोड़ना, अग्नि से जलाना, इस प्रकार भवपरम्परा में अनुबद्ध हिंसाकारी पापी जीव भयंकर संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं। जो अधन्य जीव नरक से नीकलकर किसी भाँति मनुष्य – पर्याय में उत्पन्न होते हैं, किन्तु जिसके पापकर्म भोगने से शेष रह जाते हैं, वे भी प्रायः विकृत एवं विकल – रूप – स्वरूप वाले, कुबड़े, वामन, बधिर, काने, टूटे हाथ वाले, लँगड़े, अंगहीन, गूँगे, मम्मण, अंधे, खराब एक नेत्र वाले, दोनों खराब आँखों वाले या पिशाचग्रस्त, कुष्ठ आदि व्याधियों और ज्वर आदि रोगों से पीड़ित, अल्पायुष्क, शस्त्र से वध किए जाने योग्य, अज्ञान – अशुभ लक्षणों से भरपूर शरीर वाले, दुर्बल, अप्रशस्त संहनन वाले, बेडौल अंगोपांगों वाले, खराब संस्थान वाले, कुरूप, दीन, हीन, सत्त्वविहीन, सुख से सदा वंचित रहने वाले और अशुभ दुःखों के भाजन होते हैं। इस प्रकार पापकर्म करने वाले प्राणी नरक और तिर्यंच योनि में तथा कुमानुष – अवस्था में भटकते हुए अनन्त दुःख प्राप्त करते हैं। यह प्राणवध का फलविपाक है, जो इहलोक और परलोक में भोगना पड़ता है। यह फलविपाक अल्प सुख किन्तु अत्यधिक दुःख वाला है। महान भय का जनक है और अतीव गाढ़ कर्मरूपी रज से युक्त है। अत्यन्त दारुण है, कठोर है और असाता को उत्पन्न करने वाला है। हजारों वर्षों में इससे छूटकारा मिलता है। किन्तु इसे भोगे बिना छूटकारा नहीं मिलता। हिंसा का यह फलविपाक ज्ञातकुल – नन्दन महात्मा महावीर नामक जिनेन्द्रदेव ने कहा है। यह प्राणवध चण्ड, रौद्र, क्षुद्र और अनार्य जनों द्वारा आचरणीय है। यह घृणारहित, नृशंस, महाभयों का कारण, भयानक, त्रासजनक और अन्यायरूप है, यह उद्वेगजनक, दूसरे के प्राणों की परवाह न करने वाला, धर्महीन, स्नेहपीपासा से शून्य, करुणाहीन है। इसका अन्तिम परिणाम नरक में गमन करना है, अर्थात् यह नरकगति में जाने का कारण है। मोहरूपी महाभय को बढ़ाने वाला और मरण के कारण उत्पन्न होने वाली दीनता का जनक है।