अदत्तादानविरमण के अनन्तर ब्रह्मचर्य व्रत है। यह ब्रह्मचर्य अनशन आदि तपों का, नियमों का, ज्ञान का, दर्शन का, चारित्र का, सम्यक्त्व का और विनय का मूल है। अहिंसा आदि यमों और गुणों में प्रधान नियमों से युक्त है। हिमवान् पर्वत से भी महान और तेजोवान है। प्रशस्य है, गम्भीर है। इसकी विद्यमानता में मनुष्य का अन्तःकरण स्थिर हो जाता है। यह सरलात्मा साधुजनों द्वारा आसेवित है और मोक्ष का मार्ग है। विशुद्ध, निर्मल सिद्धि के गृह के समान है। शाश्वत एवं अव्याबाध तथा पुनर्भव से रहित बनानेवाला है। यह प्रशस्त, सौम्य, शिव, अचल और अक्षय पद को प्रदान करने वाला है। उत्तम मुनियों द्वारा सुरक्षित है, सम्यक् प्रकार से आचरित है और उपदिष्ट है। श्रेष्ठ मुनियों द्वारा जो धीर, शूरवीर, धार्मिक धैर्यशाली हैं, सदा विशुद्ध रूप से पाला गया है। यह कल्याण का कारण है। भव्यजनों द्वारा इसका आराधन किया गया है। यह शंकारहित है, ब्रह्मचारी निर्भीक रहता है। यह व्रत निस्सारता से रहित है। यह खेद से रहित और रागादि के लेप से रहित है। चित्त की शान्ति का स्थल है और नियमतः अविचल है। यह तप और संयम का मूलधार है। पाँच महाव्रतों में विशेष रूप से सुरक्षित, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों से गुप्त हैं। रक्षा के लिए उत्तम ध्यान रूप सुनिर्मित कपाट वाला तथा अध्यात्म चित्त ही लगी हुई अर्गला है। यह व्रत दुर्गति के मार्ग को रुद्ध एवं आच्छादित कर देने वाला है और सद्गति के पथ को प्रदर्शित करने वाला है। यह ब्रह्मचर्यव्रत लोक में उत्तम है। यह व्रत कमलों से सुशोभित सर और तडाग के समान धर्म की पाल के समान है, किसी महाशकट के पहियों के आरों के लिए नाभि के समान है, ब्रह्मचर्य के सहारे ही क्षमा आदि धर्म टिके हुए हैं। यह किसी विशाल वृक्ष के स्कन्ध के समान है, यह महानगर के प्राकार के कपाट की अर्गला के समान है। डोरी से बँधे इन्द्रध्वज के सदृश है। अनेक निर्मल गुणों से व्याप्त है। जिसके भग्न होने पर सहसा सब विनय, शील, तप और गुणों का समूह फूटे घड़े की तरह संभग्न हो जाता है, दहीं की तरह मथित हो जाता है, आटे की भाँति चूर्ण हो जाता है, काँटे लगे शरीर की तरह शल्ययुक्त हो जाता है, पर्वत से लुढ़की शिला के समान लुढ़का हुआ, चीरी या तोड़ी हुई लकड़ी की तरह खण्डित हो जाता है तथा दुरवस्था को प्राप्त और अग्नि द्वारा दग्ध होकर बिखरे काष्ठ के समान विनष्ट हो जाता है। वह ब्रह्मचर्य – अतिशय सम्पन्न है। ब्रह्मचर्य की बत्तीस उपमाएं इस प्रकार हैं – जैसे ग्रहगण, नक्षत्रों और तारागण में चन्द्रमा प्रधान होता है, मणि, मुक्ता, शिला, प्रवाल और रत्न की उत्पत्ति के स्थानों में समुद्र प्रधान है, मणियों में वैडूर्यमणि समान, आभूषणों में मुकुट के समान, वस्त्रों में क्षौमयुगल के सदृश, पुष्पों में श्रेष्ठ अरविन्द समान, चन्दनों में गोशीर्ष चन्दन समान, औषधियों – चामत्कारिक वनस्पतियों का उत्पत्तिस्थान हिमवान् पर्वत है, उसी प्रकार आमर्शौषधि आदि की उत्पत्ति का स्थान, नदियों में शीतोदा नदी समान, समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र समान। माण्डलिक पर्वतों में रुचकवर पर्वत समान, ऐरावण गजराज के समान। वन्य जन्तुओं में सिंह के समान, सुपर्णकुमार देवों में वेणुदेव के समान, नागकुमार जाति के धरणेन्द्र समान और कल्पों में ब्रह्मलोक कल्प के समान यह ब्रह्मचर्य उत्तम है। जैसे उत्पादसभा, अभिषेकसभा, अलंकारसभा, व्यवसायसभा और सुधर्मासभा, इन पाँचों में सुधर्मासभा श्रेष्ठ है। जैसे स्थितियों में लवसप्तमा स्थिति प्रधान है, दानों में अभयदान के समान, कम्बलों में कृमिरागरक्त कम्बल के समान, संहननों में वज्रऋषभनाराच संहनन के समान, संस्थानों में चतुरस्र संस्थान के समान, ध्यानों में शुक्लध्यान समान, ज्ञानों में केवलज्ञान समान, लेश्याओं में परमशुक्ल लेश्या के समान, मुनियों में तीर्थंकर के समान, क्षेत्रों में महाविदेहक्षेत्र के समान, पर्वतों में गिरिराज सुमेरु की भाँति, वनों में नन्दनवन समान, वृक्षों में सुदर्शन जम्बू के समान, अश्वाधिपति, गजाधिपति और रथाधिपति राजा के समान और रथिकों में महारथी के समान समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रकार एक ब्रह्मचर्य की आराधना करने पर अनेक गुण स्वतः अधीन हो जाते हैं। ब्रह्मचर्यव्रत के पालन करने पर सम्पूर्ण व्रत अखण्ड रूप से पालित हो जाते हैं, यथा – शील, तप, विनय और संयम, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति। ब्रह्मचर्यव्रत के प्रभाव से इहलोक और परलोक सम्बन्धी यश और कीर्ति प्राप्त होती है। यह विश्वास का कारण है। अत एव स्थिरचित्त से तीन कारण और तीन योग से विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और वह भी जीवनपर्यन्त, इस प्रकार भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्यव्रत का कथन किया है। भगवान का वह कथन इस प्रकार का है –
यह ब्रह्मचर्यव्रत पाँच महाव्रतरूप शोभन व्रतों का मूल है, शुद्ध आचार वाले मुनियों के द्वारा सम्यक् प्रकार से सेवन किया गया है, यह वैरभाव की निवृत्ति और उसका अन्त करने वाला है तथा समस्त समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र के समान दुस्तर किन्तु तैरने का उपाय होने के कारण तीर्थस्वरूप है।
तीर्थंकर भगवंतों ने ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने के मार्ग – भलीभाँति बतलाए हैं। यह नरकगति और तिर्यंच गति के मार्ग को रोकने वाला है, सभी पवित्र अनुष्ठानों को सारयुक्त बनाने वाला तथा मुक्ति और वैमानिक देवगति के द्वार को खोलने वाला है।
देवेन्द्रों और नरेन्द्रों के द्वारा जो नमस्कृत हैं, उन महापुरुषों के लिए भी ब्रह्मचर्य पूजनीय है। यह जगत के सब मंगलों का मार्ग है। यह दुर्द्धर्ष है, यह गुणों का अद्वितीय नायक है। मोक्ष मार्ग का द्वार उद्घाटक है।
ब्रह्मचर्य महाव्रत का निर्दोष परिपालन करने से सुब्राह्मण, सुश्रमण और सुसाधु कहा जाता है। जो शुद्ध ब्रह्मचर्य का आचरण करता है वही ऋषि है, वही मुनि है, वही संयत है और वही सच्चा भिक्षु है। ब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाले पुरुष को रति, राग, द्वेष और मोह, निस्सार प्रमाददोष तथा शिथिलाचारी साधुओं का शील और घृतादि की मालिश करना, तेल लगाकर स्नान करना, बार – बार बगल, सिर, हाथ, पैर और मुँह धोना, मर्दन करना, पैर आदि दबाना, परिमर्दन करना, विलेपन करना, चूर्णवास से शरीर को सुवासित करना, अगर आदि की धूप देना, शरीर को मण्डित करना, बाकुशिक कर्म करना – नखों, केशों एवं वस्त्रों को संवारना आदि, हँसी – ठट्ठा करना, विकारयुक्त भाषण करना, नाट्य, गीत, वाजिंत्र, नटों, नृत्यकारकों, जल्लों और मल्ला का तमाशा देखना तथा इसी प्रकार की अन्य बातें जो शृंगार का आगार हैं और जिनसे तपश्चर्या, संयम एवं ब्रह्मचर्य का उपघात या घात होता है, ब्रह्मचर्य का आचरण करने वाले को सदैव के लिए त्याग देनी चाहिए। इन त्याज्य व्यवहारों के वर्जन के साथ आगे कहे जाने वाले व्यापारों से अन्तरात्मा को भावित – वासित करना चाहिए। स्नान नहीं करना, दन्तधावन नहीं करना, स्वेद (पसीना) धारण करना, मैल को धारण करना, मौन व्रत धारण करना, केशों का लुञ्चन करना, क्षमा, इन्द्रियनिग्रह, अचेलकता धारण करना, भूख – प्यास सहना, लाघव – उपधि अल्प रखना, सर्दी – गर्मी सहना, काष्ठ की शय्या, भूमिनिषद्या, परगृहप्रवेश में मान, अपमान, निन्दा एवं दंश – मशक का क्लेश सहन करना, नियम करना, तप तथा मूलगुण आदि एवं विनय आदि से अन्तःकरण को भावित करना चाहिए; जिससे ब्रह्मचर्यव्रत खूब स्थिर हो। अब्रह्मनिवृत्ति व्रत की रक्षा के लिए भगवान महावीर ने यह प्रवचन कहा है। यह प्रवचन परलोक में फलप्रदायक है, भविष्य में कल्याण का कारण है, शुद्ध है, न्याययुक्त है, कुटिलता से रहित है, सर्वोत्तम है और दुःखों और पापों को उपशान्त करने वाला है। चतुर्थ अब्रह्मचर्यविरमण व्रत की रक्षा के लिए ये पाँच भावनाएं हैं – प्रथम भावना इस प्रकार है – शय्या, आसन, गृहद्वार, आँगन, आकाश, गवाक्ष, शाला, अभिलोकन, पश्चाद्गृह, प्रसाधनक, इत्यादि सब स्थान स्त्रीसंसक्त होने से वर्जनीय है। इनके अतिरिक्त वेश्याओं के स्थान हैं और जहाँ स्त्रियाँ बैठती – उठती हैं और बारबार मोह, द्वेष, कामराग और स्नेहराग की वृद्धि करने वाली नाना प्रकार की कथाएं कहती हैं – उनका भी ब्रह्मचारी को वर्जन करना चाहिए। ऐसे स्त्री के संसर्ग के कारण संक्लिष्ट जो भी स्थान हों, उनसे भी अलग रहना चाहिए, जैसे – जहाँ रहने से मन में विभ्रम हो, ब्रह्मचर्य भग्न होता हो या उसका आंशिकरूप से खण्डन होता हो, जहाँ रहने से आर्त्तध्यान – रौद्रध्यान होता हो, उन – उन अनायतनों का पापभीरु – परित्याग करे। साधु तो ऐसे स्थान पर ठहरता है जो अन्त – प्रान्त हों। इस प्रकार असंसक्तवास – वसति – समिति के स्थान का त्याग रूप समिति के योग से युक्त अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य की मर्यादा में मन वाला तथा इन्द्रियों के विषय ग्रहण से निवृत्त, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से गुप्त होता है। दूसरी भावना है स्त्रीकथावर्जन। नारीजनों के मध्य में अनेक प्रकार की कथा नहीं करनी चाहिए, जो बातें स्त्रियों की कामुक चेष्टाओं से और विलास आदि के वर्णन से युक्त हों, जो हास्यरस और शृंगाररस की प्रधानता वाली साधारण लोगों की कथा की तरह हों, जो मोह उत्पन्न करने वाली हों। इसी प्रकार विवाह सम्बन्धी बातें, स्त्रियों के सौभाग्य – दुर्भाग्य की भी चर्चा, महिलाओं के चौंसठ गुणों, स्त्रियों के रंग – रूप, देश, जाति, कुल – सौन्दर्य, भेद – प्रभेद – पद्मिनी, चित्रणी, हस्तिनी, शंखिनी आदि प्रकार, पोशाक तथा परिजनों सम्बन्धी कथाएं तथा इसी प्रकार की जो भी अन्य कथाएं शृंगाररस से करुणता उत्पन्न करने वाली हों और जो तप, संयम तथा ब्रह्मचर्य का घात – उपघात करने वाली हों, ऐसी कथाएं ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले साधुजनों को नहीं कहनी चाहिए। ऐसी कथाएं – बातें उन्हें सूननी भी नहीं चाहिए और उनका मन में चिन्तन भी नहीं करना चाहिए। इस प्रकार स्त्रीकथाविरति – समिति योग से भावित अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्तवाला तथा इन्द्रिय विकार से विरत रहने वाला, जितेन्द्रिय साधु ब्रह्मचर्य से गुप्त रहता है। ब्रह्मचर्यव्रत की तीसरी भावना स्त्री के रूप को देखने के निषेध – स्वरूप है। नारियों के हास्य को, विकार – मय भाषण को, हाथ आदि की चेष्टाओं को, विप्रेक्षण को, गति को, विलास और क्रीड़ा को, इष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर अभिमानपूर्वक किया गया तिरस्कार, नाट्य, नृत्य, गीत, वादित आदि वाद्यों के वादन, शरीर की आकृति, गौर श्याम आदि वर्ण, हाथों, पैरों एवं नेत्रों का लावण्य, रूप, यौवन, स्तन, अधर, वस्त्र, अलंकार और भूषण – ललाट की बिन्दी आदि को तथा उसके गोपनीय अंगों को, एवं स्त्रीसम्बन्धी अन्य अंगोपांगों या चेष्टाओं को जिनसे ब्रह्मचर्य, तप तथा संयम का घात – उपघात होता है, उन्हें ब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाला मुनि न नेत्रों से देखे, न मन से सोचे और न वचन से उनके सम्बन्ध में कुछ बोले और न पापमय कार्यों की अभिलाषा करे। इस प्रकार स्त्री रूपविरति के योग से भावित अन्तःकरण वाला मुनि ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्त वाला, इन्द्रियविकार से विरत, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से गुप्त – सुरक्षित होता है। पूर्व – रमण, पूर्वकाल में की गई क्रीड़ाएं, पूर्वकाल के सग्रन्थ, ग्रन्थ तथा संश्रुत, इन सब का स्मरण नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त द्विरागमन, विवाह, चूडाकर्म, पर्वतिथियों में, यज्ञों आदि के अवसरों पर, शृंगार के आगार जैसी सजी हुई, हाव, भाव, प्रललित, विक्षेप, पत्रलेखा, आँखों में अंजन आदि शृंगार, विलास – इन सब से सुशोभित, अनुकूल प्रेमवाली स्त्रियों के साथ अनुभव किए हुए शयन आदि विविध प्रकार के कामशास्त्रोक्त प्रयोग, ऋतु के उत्तम वासद्रव्य, धूप, सुखद स्पर्श वाले वस्त्र, आभूषण, रमणीय आतोद्य, गायन, प्रचुर नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल – कुश्तीबाज, मौष्टिक, विदूषक, कथा – कहानी सूनाने वाले, प्लवक रासलीला करने वाले, शुभाशुभ बतलाने वाले, लंख, मंख, तूण नामक वाद्य बजाने वाले, वीणा बजाने वाले, तालाचर – इस सब की क्रीड़ाएं, गायकों के नाना प्रकार के मधुर ध्वनि वाले गीत एवं मनोहर स्वर और इस प्रकार के अन्य विषय, जो तप, संयम और ब्रह्मचर्य का घात – उपघात करने वाले हैं, उन्हें ब्रह्मचर्यपालक श्रमण को देखना नहीं चाहिए, इन से सम्बद्ध वार्तालाप नहीं करना चाहिए और पूर्वकाल में जो देखे – सूने हों, उनका स्मरण भी नहीं करना चाहिए। इस प्रकार पूर्ववत् – पूर्वक्रीडित – विरति – समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्त वाला, मैथुनविरत, जितेन्द्रिय साधु ब्रह्मचर्य से गुप्त – सुरक्षित होता है। पाँचवीं भावना – सरस आहार एवं स्निग्ध भोजन का त्यागी संयम शील सुसाधु दूध, दहीं, घी, मक्खन, तेल, गुड़, खाँड़, मिसरी, मधु, मद्य, माँस, खाद्यक और विगय से रहित आहार करे। वह दर्पकारक आहार न करे। दिन में बहुत बार न खाए और न प्रतिदिन लगातार खाए। न दाल और व्यंजन की अधिकता वाला और न प्रभूत भोजन करे। साधु उतना ही हित – मित आहार करे जितना उसकी संयम – यात्रा का निर्वाह करने के लिए आवश्यक हो, जिससे मन में विभ्रम उत्पन्न न हो और धर्म से च्युत न हो। इस प्रकार प्रणीत – आहार की विरति रूप समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य की आराधना में अनुरक्त चित्त वाला और मैथुन से विरत साधु जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से सुरक्षित होता है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य सम्यक् प्रकार से संवृत और सुरक्षित होता है। मन, वचन, और काय, इन तीनों योगों से परिरक्षित इन पाँच भावनारूप कारणों से सदैव, आजीवन यह योग धैर्यवान् और मतिमान् मुनि को पालन करना चाहिए। यह संवरद्वार आस्रव से, मलीनता से, और भावछिद्रों से रहित है। इससे कर्मों का आस्रव नहीं होता। यह संक्लेश से रहित है, शुद्ध है और सभी तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात है। इस प्रकार यह चौथा संवरद्वार स्पृष्ट, पालित, शोधित, पार, कीर्तित, आराधित और तीर्थंकर भगवान की आज्ञा के अनुसार अनुपालित होता है, ऐसा ज्ञातमुनि भगवान ने कहा है। यह प्रसिद्ध है, प्रमाणों से सिद्ध है। यह भवस्थित सिद्धों का शासन है। सुर, नर आदि की परिषद् में उपदिष्ट किया गया है, मंगलकारी है। जैसा मैंने भगवान से सूना, वैसा ही कहता हूँ।