मृषा आस्रव

 

दूसरा (आस्रवद्वार) अलीकवचन है। यह गुण – गौरव से रहित, हल्के, उतावले और चंचल लोगों द्वारा बोला जाता है, भय उत्पन्न करने वाला, दुःखोत्पादक, अपयशकारी एवं वैर उत्पन्न करने वाला है। यह अरति, रति, राग, द्वेष और मानसिक संक्लेश को देने वाला है। शुभ फल से रहित है। धूर्त्तता एवं अविश्वसनीय वचनों की प्रचुरता वाला है। नीच जन इसका सेवन करते हैं। यह नृशंस, क्रूर अथवा निन्दित है। अप्रीतिकारक है। सत्पुरुषों द्वारा निन्दित है। दूसरों को – पीड़ा उत्पन्न करने वाला है। उत्कृष्ट कृष्णलेश्या से सहित है। यह दुर्गतियों में निपात को बढ़ाने वाला है। भव करने वाला है। यह चिरपरिचित है। निरन्तर साथ रहने वाला है और बड़ी कठिनाई से इसका अन्त होता है।

 

उस असत्य के गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं। अलीक, शठ, अन्याय्य, माया – मृषा, असत्क, कूटकपटअवस्तुक, निरर्थकअपार्थक, विद्वेष – गर्हणीय, अनृजुक, कल्कना, वञ्चना, मिथ्यापश्चात्कृत, साति, उच्छन्न, उत्कूल, आर्त्त, अभ्याख्यान, किल्बिष, वलय, गहन, मन्मन, नूम, निकृति, अप्रत्यय, असमय, असत्यसंधत्व, विपक्ष, अपधीक, उपधि – अशुद्ध और अपलोप। सावद्य अलीक वचनयोग के उल्लिखित तीस नामों के अतिरिक्त अन्य भी अनेक नाम हैं।

 

यह असत्य कितनेक पापी, असंयत, अविरत, कपट के कारण कुटिल, कटुक और चंचल चित्तवाले, क्रुद्ध, लुब्ध, भय उत्पन्न करने वाले, हँसी करने वाले, झूठी गवाही देने वाले, चोर, गुप्तचर, खण्डरक्ष, जुआरी, गिरवी रखने वाले, कपट से किसी बात को बढ़ा – चढ़ा कर कहनेवाले, कुलिंगी – वेषधारी, छल करनेवाले, वणिक्‌, खोटा नापने – तोलनेवाले, नकली सिक्कों से आजीविका चलानेवाले, जुलाहे, सुनार, कारीगर, दूसरों को ठगने वाले, दलाल, चाटुकार, नगररक्षक, मैथुनसेवी, खोटा पक्ष लेने वाले, चुगलखोर, उत्तमर्ण, कर्जदार, किसी के बोलने से पूर्व ही उसके अभिप्राय को ताड़ लेने वाले साहसिक, अधम, हीन, सत्पुरुषों का अहित करने वाले – दुष्ट जन अहंकारी, असत्य की स्थापना में चित्त को लगाए रखने वाले, अपने को उत्कृष्ट बताने वाले, निरंकुश, नियमहीन और बिना विचारे यद्वा – तद्वा बोलने वाले लोग, जो असत्य से विरत नहीं हैं, वे (असत्य) बोलते हैं। दूसरे, नास्तिकवादी, जो जोक में विद्यमान वस्तुओं को भी अवास्तविक कहने के कारण कहते हैं कि शून्य है, क्योंकि जीव का अस्तित्व नहीं है। वह मनुष्यभव में या देवादि – परभव में नहीं जाता। वह पुण्य – पाप का स्पर्श नहीं करता। सुकृत या दुष्कृत का फल भी नहीं है। यह शरीर पाँच भूतों से बना हुआ है। वायु के निमित्त से वह सब क्रियाएं करता है। कुछ लोग कहते हैं – श्वासोच्छ्‌वास की हवा ही जीव है। कोई पाँच स्कन्धों का कथन करते हैं। कोई – कोई मन को ही जीव मानते हैं। कोई वायु को ही जीव के रूप में स्वीकार करते हैं। किन्हीं – किन्हीं का मंतव्य है कि शरीर सादि और सान्त है – यह भव ही एक मात्र भव है। इस भव का समूल नाश होने पर सर्वनाश हो जाता है। मृषावादी ऐसा कहते हैं। इस कारण दान देना, व्रतों का आचरण, पोषध की आराधना, तपस्या, संयम का आचरण, ब्रह्मचर्य का पालन आदि कल्याणकारी अनुष्ठानों का फल नहीं होता। प्राणवध और असत्यभाषण भी नहीं है। चोरी और परस्त्रीसेवन भी कोई पाप नहीं है। परिग्रह और अन्य पापकर्म भी निष्फल हैं। नारकों, तिर्यंचों और मनुष्यों की योनियाँ नहीं हैं। देवलोक भी नहीं हैं। मोक्ष – गमन या मुक्ति भी नहीं है। माता – पिता भी नहीं हैं। पुरुषार्थ भी नहीं है। प्रत्याख्यान भी नहीं है। भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल नहीं है और न मृत्यु है। अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव भी कोई नहीं होते। न कोई ऋषि है, न कोई मुनि है। धर्म और अधर्म का थोड़ा या बहुत फल नहीं होता। इसलिए ऐसा जानकर इन्द्रियों के अनुकूल सभी विषयों में प्रवृत्ति करो। न कोई शुभ या अशुभ क्रिया है। इस प्रकार लोकविप – रीत मान्यतावाले नास्तिक विचारधारा का अनुसरण करते हुए इस प्रकार का कथन करते हैं। कोई – कोई असद्‌भाववादी मूढ जन दूसरा कुदर्शन – इस प्रकार कहते हैं – यह लोक अंडे से प्रकट हुआ है। इस लोक का निर्माण स्वयं स्वयम्भू ने किया है। इस प्रकार वे मिथ्या कथन करते हैं। कोई – कोई कहते हैं कि यह जगत प्रजापति या महेश्वर ने बनाया है। किसी का कहना है कि समस्त जगत विष्णुमय है। किसी की मान्यता है कि आत्मा अकर्ता है किन्तु पुण्य और पाप का भोक्ता है। सर्व प्रकार से तथा सर्वत्र देश – काल में इन्द्रियाँ ही कारण हैं। आत्मा नित्य है, निष्क्रिय है, निर्गुण है और निर्लेप है। असद्‌भाववादी इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं। कोई – कोई ऋद्धि, रस और साता के गारव से लिप्त या इनमें अनुरक्त बने हुए और क्रिया करने में आलसी बहुत से वादी धर्म की मीमांसा करते हुए इस प्रकार मिथ्या प्ररूपणा करते हैं – इस जीवलोक में जो कुछ भी सुकृत या दुष्कृत दृष्टिगोचर होता है, वह सब यदृच्छा से, स्वभाव से अथवा दैवतप्रभाव – से ही होता है। इस लोक में कुछ भी ऐसा नहीं है जो पुरुषार्थ से किया गया तत्त्व हो। लक्षण और विद्या की कर्त्री नियति ही है, ऐसा कोई कहते हैं कोई – कोई दूसरे लोग राज्यविरुद्ध मिथ्या दोषारोपण करते हैं। यथा – चोरी न करने वाले को चोर कहते हैं। जो उदासीन है उसे लड़ाईखोर कहते हैं। जो सुशील है, उसे दुःशील कहते हैं, यह परस्त्रीगामी है, ऐसा कहकर उसे मलिन करते हैं। उस पर ऐसा आरोप लगाते हैं कि यह तो गुरुपत्नी के साथ अनुचित सम्बन्ध रखता है। यह अपने मित्र की पत्नियों का सेवन करता है। यह धर्महीन है, यह विश्वासघाती है, पापकर्म करता है, नहीं करने योग्य कृत्य करता है, यह अगम्यगामी है, यह दुष्टात्मा है, बहुत – से पापकर्मों को करने वाला है। इस प्रकार ईर्ष्यालु लोग मिथ्या प्रलाप करते हैं। भद्र पुरुष के परोपकार, क्षमा आदि गुणों की तथा कीर्ति, स्नेह एवं परभव की लेशमात्र परवाह न करने वाले वे असत्यवादी, असत्य भाषण करने में कुशल, दूसरों के दोषों को बताने में निरत रहते हैं। वे विचार किए बिना बोलने वाले, अक्षय दुःख के कारणभूत अत्यन्त दृढ़ कर्मबन्धनों से अपनी आत्मा को वेष्टित करते हैं। पराये धन में अत्यन्त आसक्त वे निक्षेप को हड़प जाते हैं तथा दूसरे को ऐसे दोषों से दूषित करते हैं जो दोष उनमें विद्यमान नहीं होते। धन लोभी झूठी साक्षी देते हैं। वे असत्यभाषी धन के लिए, कन्या के लिए, भूमि के लिए तथा गाय – बैल आदि पशुओं के निमित्त अधोगतिमें ले जानेवाला असत्यभाषण करते हैं। इसके अतिरिक्त वे मृषावादी जाति, कुल, रूप एवं शील के विषयमें असत्यभाषण करते हैं। मिथ्या षड्‌यंत्र रचनेमें कुशल, परकीय असद्‌गुणों के प्रकाशक, सद्‌गुणों के विनाशक, पुण्य – पाप के स्वरूप से अनभिज्ञ, अन्यान्य प्रकार से भी असत्य बोलते हैं। वह असत्य माया के कारण गुणहीन हैं, चपलता से युक्त हैं, चुगलखोरी से परिपूर्ण हैं, परमार्थ को नष्ट करने वाला, असत्य अर्थ वाला, द्वेषमय, अप्रिय, अनर्थकारी, पापकर्मों का मूल एवं मिथ्यादर्शन से युक्त है। वह कर्णकटु, सम्यग्ज्ञानशून्य, लज्जाहीन, लोकगर्हित, वध – बन्धन आदि रूप क्लेशों से परिपूर्ण, जरा, मृत्यु, दुःख और शोक का कारण है, अशुद्ध परिणामों के कारण संक्लेश से युक्त है। जो लोग मिथ्या अभिप्राय में सन्निविष्ट हैं, जो अविद्यमान गुणों की उदीरणा करने वाले, विद्यमान गुणों के नाशक हैं, हिंसा करके प्राणियों का उपघात करते हैं, जो असत्य भाषण करने में प्रवृत्त हैं, ऐसे लोग सावद्य – अकुशल, सत्‌ – पुरुषों द्वारा गर्हित और अधर्मजनक वचनों का प्रयोग करते हैं। ऐसे मनुष्य पुण्य और पाप के स्वरूप से अनभिज्ञ होते हैं। वे पुनः अधिकरणों, शस्त्रों आदि की क्रिया में प्रवृत्ति करने वाले हैं, वे अपना और दूसरों का बहुविध से अनर्थ और विनाश करते हैं। इसी प्रकार घातकों को भैंसा और शूकर बतलाते हैं, वागुरिकों – को – शशक, पसय और रोहित बतलाते हैं, तीतुर, बतक और लावक तथा कपिंजल और कपोत पक्षीघातकों को बतलाते हैं, मछलियाँ, मगर और कछुआ मच्छीमारों को बतलाते हैं, शंख, अंक और कौड़ी के जीव धीवरों को बतला देते हैं, अजगर, गोणस, मंडली एवं दर्वीकर जाति के सर्पों को तथा मुकुली – को सँपेरों को – बतला देते हैं, गोधा, सेह, शल्लकी और गिरगट लुब्धकों को बतला देते हैं, गजकुल और वानरकुल के झुंड पाशिकों को बतलाते हैं, तोता, मयूर, मैना, कोकिला और हंस के कुल तथा सारस पक्षी पोषकों को बतला देते हैं। आरक्षकों को वध, बन्ध और यातना देने के उपाय बतलाते हैं। चोरों को धन, धान्य और गाय – बैल आदि पशु बतला कर चोरी करने की प्रेरणा करते हैं। गुप्तचरों को ग्राम, नगर, आकर और पत्तन आदि बस्तियाँ बतलाते हैं। ग्रन्थिभेदकों को रास्ते के अन्त में अथवा बीच में मारने – लूटने – टांठ काटने आदि की सीख देते हैं। नगररक्षकों – को की हुई चोरी का भेद बतलाते हैं। गाय आदि पशुओं का पालन करने वालों को लांछन, नपुंसक, धमण, दुहना, पोषना, पीडा पहुँचाना, वाहन गाड़ी आदि में जोतना, इत्यादि अनेकानेक पाप – पूर्ण कार्य सिखलाते हैं। इसके अतिरिक्त खान वालों को गैरिक आदि धातुएं बतलाते हैं, चन्द्र – कान्त आदि मणियाँ बतलाते हैं, शिलाप्रवाल बतलाते हैं। मालियों को पुष्पों और फलों के प्रकार बतलाते हैं तथा वनचरों को मधु का मूल्य और मधु के छत्ते बतलाते हैं। मारण, मोहन, उच्चाटन आदि के लिए यन्त्रों, संखिया आदि विषों, गर्भपात आदि के लिए जड़ी – बूटियों के प्रयोग, मन्त्र आदि द्वारा नगर में क्षोभ या विद्वेष उत्पन्न कर देने, द्रव्य और भाव से वशीकरण मन्त्रों एवं औषधियों के प्रयोग करने, चोरी, परस्त्रीगमन करने आदि बहुत – से पापकर्म उपदेश तथा छलसे शत्रुसेना की शक्ति नष्ट करने अथवा उसे कुचल देने के, जंगल में आग लगाने, तालाब आदि जलाशयों को सूखाने के, ग्रामघात के, बुद्धि के विषय – विज्ञान आदि भय, मरण, क्लेश और दुःख उत्पन्न करनेवाले, अतीव संक्लेश होने के कारण मलिन, जीवों का घात और उपघात करनेवाले वचन तथ्य होने पर भी प्राणिघात करनेवाले असत्य वचन, मृषावादी बोलते हैं। अन्य प्राणियों को सन्ताप करने में प्रवृत्त, अविचारपूर्वक भाषण करने वाले लोग किसी के पूछने पर और बिना पूछे ही सहसा दूसरों को उपदेश देते हैं कि – ऊंटों को बैलों को और रोझों को दमो। वयःप्राप्त अश्वों को, हाथियों को, भेड़ – बकरियों को या मुर्गों को खरीदो खरीदवाओ, इन्हें बेच दो, पकाने योग्य वस्तुओं को पकाओ, स्वजन को दे दो, पेय – का पान करो, दासी, दास, भृतक, भागीदार, शिष्य, कर्मकर, किंकर, ये सब प्रकार के कर्मचारी तथा ये स्वजन और परिजन क्यों कैसे बैठे हुए हैं ! ये भरण – पोषण करने योग्य हैं। ये आपका काम करें। ये सघन वन, खेत, बिना जोती हुई भूमि, वल्लर, जो उगे हुए घास – फूस से भरे हैं, इन्हें जला डालो, घास कटवाओ या उखड़वा डालो, यन्त्रों, भांड उपकरणों के लिए और नाना प्रकार के प्रयोजनों के लिए वृक्षों को कटवाओ, इक्षु को कटवाओ, तिलों को पेलो, ईंटों को पकाओ, खेतों को जोतो, जल्दी – से ग्राम, आकर नगर, खेड़ा और कर्वट – कुनगर आदि को बसाओ। पुष्पों, फूलों को तथा प्राप्तकाल कन्दों और मूलों को ग्रहण करो। संचय करो। शाली, ब्रीहि आदि और जौ काट लो। इन्हें मलो। पवन से साफ करो और शीघ्र कोठार में भर लो। छोटे, मध्यम और बड़े नौकादल या नौकाव्यापारियों या नौकायात्रियों के समूह को नष्ट कर दो, सेना प्रयाण करे, संग्रामभूमि में जाए, घोर युद्ध प्रारंभ हो, गाड़ी और नौका आदि वाहन चलें, उपनयन संस्कार, चोलक, विवाह – संस्कार, यज्ञ – ये सब कार्य अमुक दिनों में, बालव आदि करणों में, अमृतसिद्धि आदि मुहूर्त्तों में, अश्विनी पुष्य आदि नक्षत्रों में और नन्दा आदि तिथियों में होने चाहिए। आज सौभाग्य के लिए स्नान करना चाहिए – आज प्रमोदपूर्वक बहुत विपुल मात्रा में खाद्य पदार्थों एवं मदिरा आदि पेय पदार्थों के भोज के साथ सौभाग्यवृद्धि अथवा पुत्रादि की प्राप्ति के लिए वधू आदि को स्नान कराओ तथा कौतुक करो। सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण और अशुभ स्वप्न के फल को निवारण करने के लिए विविध मंत्रादि से संस्कारित जल से स्नान और शान्तिकर्म करो। अपने कुटुम्बीजनों की अथवा अपने जीवन की रक्षा के लिए कृत्रिम प्रतिशीर्षक चण्डी आदि देवियों की भेंट चढ़ाओ। अनेक प्रकार की ओषधियों, मद्य, मांस, मिष्टान्न, अन्न, पान, पुष्पमाला, चन्दन – लेपन, उबटन, दीपक, सुगन्धित धूप, पुष्पों तथा फलों से परिपूर्ण विधिपूर्वक बकरा आदि पशुओं के सिरों की बली दो। विविध प्रकार की हिंसा करके उत्पात, प्रकृति – विकार, दुःस्वप्न, अपशकुन, क्रूरग्रहों के प्रकोप, अमंगल सूचक अंगस्फुरण आदि के फल को नष्ट करने के लिए प्रायश्चित्त करो। अमुक की आजीविका नष्ट कर दो। किसी को कुछ भी दान मत दो। वह मारा गया, यह अच्छा हुआ। उसे काट डाया गया, यह ठीक हुआ। उसके टुकड़े – टुकड़े कर डाले गये, यह अच्छा हुआ। इस प्रकार किसी के न पूछने पर भी आदेश – उपदेश अथवा कथन करते हुए, मन – वचन – काय से मिथ्या आचरण करने वाले अनार्य, अकुशल, मिथ्यामतों का अनुसरण करने वाले मिथ्या भाषण करते हैं। ऐसे मिथ्याधर्म में निरत लोग मिथ्या कथाओं में रमण करते हुए, नाना प्रकार से असत्य का सेवन करते सन्तोष का अनुभव करते हैं।

 

पूर्वोक्त मिथ्याभाषण के फल – विपाक से अनजान वे मृषावादी जन नरक और तिर्यञ्च योनि की वृद्धि करते हैं, जो अत्यन्त भयंकर है, जिनमें विश्रामरहित वेदना भुगतनी पड़ती है और जो दीर्घकाल तक बहुत दुःखों से परिपूर्ण हैं। वे मृषावाद में निरत नर भयंकर पुनर्भव के अन्धकार में भटकते हैं। उस पुनर्भव में भी दुर्गति प्राप्त करते हैं, जिनका अन्त बड़ी कठिनाई से होता है। वे मृषावादी मनुष्य पुनर्भव में भी पराधीन होकर जीवन यापन करते हैं। वे अर्थ और भोगों से परिवर्जित होते हैं। वे दुःखी रहते हैं। उनकी चमड़ी बिवाई, दाद, खुजली आदि से फटी रहती है, वे भयानक दिखाई देते हैं और विवर्ण होते हैं। कठोर स्पर्श वाले, रतिविहीन, मलीन एवं सारहीन शरीर वाले होते हैं। शोभाकान्ति से रहित होते हैं। वे अस्पष्ट और विफल वाणी वाले होते हैं। वे संस्काररहित और सत्कार से रहित होते हैं। वे दुर्गन्ध से व्याप्त, विशिष्ट चेतना से विहीन, अभागे, अकान्त – अकमनीय, अनिष्ट स्वर वाले, धीमी और फटी हुई आवाज वाले, विहिंस्य, जड़, वधिर, अंधे, गूँगे और अस्पष्ट उच्चारण करने वाले, अमनोज्ञ तथा विकृत इन्द्रियों वाले, जाति, कुल, गौत्र तथा कार्यों से नीचे होते हैं। उन्हें नीच लोगों का सेवक बनना पड़ता है। वे लोक में गर्हा के पात्र होते हैं। वे भृत्य होते हैं और विरुद्ध आचार – विचार वाले लोगों के आज्ञापालक या द्वेषपात्र होते हैं। वे दुर्बुद्धि होते हैं अतः लौकिक शास्त्र, वेद, आध्यात्मिक शास्त्र, आगमों या सिद्धान्तों के श्रवण एवं ज्ञान से रहित होते हैं। वे धर्मबुद्धि से रहित होते हैं। उस अशुभ या अनुपशान्त असत्य की अग्नि से जलते हुए वे मृषावादी अपमान, निन्दा, आक्षेप, चुगली, परस्पर की फूट आदि की स्थिति प्राप्त करते हैं। गुरुजनों, बन्धु – बान्धवों, स्वजनों तथा मित्रजनों के तीक्ष्ण वचनों से अनदार पाते हैं। अमनोरम, हृदय और मन को सन्ताप देने वाले तथा जीवनपर्यन्त कठिनाई से मिटने वाले – मिथ्या आरोपों को वे प्राप्त करते हैं। अनिष्ट, तीक्ष्ण, कठोर और मर्मवेधी वचनों से तर्जना, झिड़कियों और धिक्कार के कारण दीन मुख एवं खिन्न चित्त वाले होते हैं। वे खराब भोजन वाले और मैले तथा फटे वस्त्रों वाले होते हैं, उन्हें निकृष्ट वस्ती में क्लेश पाते हुए अत्यन्त एवं विपुल दुःखों की अग्नि में जलना पड़ता है। उन्हें न तो शारीरिक सुख प्राप्त होता है और न मानसिक शान्ति ही मिलती है। मृषावाद का इस लोक और परलोक सम्बन्धी फल विपाक है। इस फल – विपाकमें सुख अभाव है और दुःख – बहुलता है। यह अत्यन्त भयानक है, प्रगाढ कर्म – रज के बन्ध का कारण है। यह दारुण है, कर्कश है और असातारूप है। सहस्रों वर्षों में इससे छूटकारा मिलता है। फल को भोगे बिना इस पाप से मुक्ति नहीं मिलती। ज्ञातकुलनन्दन, महान आत्मा वीरवर महावीर नामक जिनेश्वर देव ने मृषावाद का यह फल प्रतिपादित किया है। यह दूसरा अधर्मद्वार है। छोटे लोग इसका प्रयोग करते – । यह मृषावाद भयंकर है, दुःखकर है, अपयश – कर है, वैरकर है। अरति, रति, राग – द्वेष एवं मानसिक संक्लेश को उत्पन्न करने वाला है। यह झूठ, निष्फल कपट और अविश्वास की बहुलता वाला है। नीच जन इसको सेवन करते हैं। यह नृशंस एवं निर्घृण है। अविश्वासकारक है। परम साधुजनों द्वारा निन्दनीय है। दूसरों को पीड़ा उत्पन्न करने वाला और परम कृष्णलेश्या से संयुक्त है। अधोगति में निपात का कारण है। पुनः पुनः जन्म – मरण का कारण है, चिरकाल से परिचित है – अत एव अनुगत है। इसका अन्त कठिनता से होता है अथवा इसका परिणाम दुःखमय ही होता है।