अदत्त आस्रव

 

तीसरा अधर्मद्वार अदत्तादान। यह अदत्तादान (परकीय पदार्थ का) हरण रूप है। हृदय को जलाने वाला, मरण – भय रूप, मलीन, परकीय धनादि में रौद्रध्यान स्वरूप, त्रासरूप, लोभ मूल तथा विषमकाल और विषमस्थान आदि स्थानों पर आश्रित है। यह अदत्तादान निरन्तर तृष्णाग्रस्त जीवों को अधोगति की ओर ले जाने वाली बुद्धि वाला है। अदत्तादान अपयश का कारण, अनार्य पुरुषों द्वारा आचरित, छिद्र, अपाय एवं विपत्ति का मार्गण करने वाला, उसका पात्र है। उत्सवों के अवसर पर मदिरा आदि के नशे में बेभान, असावधान तथा सोये हुए मनुष्यों को ठगनेवाला, चित्त में व्याकुलता उत्पन्न करने और घात करने में तत्पर तथा अशान्त परिणाम वाले चोरों द्वारा अत्यन्त मान्य है। यह करुणाहीन कृत्य है, राजपुरुषों, कोतवाल आदि द्वारा इसे रोका जाता है। सदैव साधुजनों, निन्दित, प्रियजनों तथा मित्रजनों में फूट और अप्रीति उत्पन्न करने वाला और राग द्वेष की बहुलता वाला है। यह बहुतायत से मनुष्यों को मारने वाले संग्रामों, स्वचक्र – परचक्र सम्बन्धी डमरों – विप्लवों, लड़ाई – झगड़ों, तकरारों एवं पश्चात्ताप का कारण है। दुर्गति – पतन में वृद्धि करने वाला, पुनर्भव कराने वाला, चिरकाल से परिचित, आत्मा के साथ लगा हुआ और परिणाम में दुःखदायी है। यह तीसरा अधर्मद्वार ऐसा है।

 

पूर्वोक्त स्वरूप वाले अदत्तादान के गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं। – चौरिक्य, परहृत, अदत्त, क्रूरिकृतम्‌, परलाभ, असंजम, परधन में गृद्धि, लोलुपता, तस्करत्व, अपहार, हस्तलघुत्व, पापकर्मकरण, स्तेनिका, हरणवि – प्रणाश, आदान, धनलुम्पता, अप्रत्यय, अवपीड, आक्षेप, क्षेप, विक्षेप, कूटता, कुलमषि, कांक्षा, लालपन – प्रार्थना, व्यसन, ईच्छामूर्च्छा, तृष्णा – गृद्धि, निकृतिकर्म और अपराक्ष। इस प्रकार पापकर्म और कलह से मलीन कार्यों की बहुलता वाले इस अदत्तादान आस्रव के ये और इस प्रकार के अन्य अनेक नाम हैं।

 

उस चोरी को वे चोर – लोग करते हैं जो परकीय द्रव्य को हरण करने वाले हैं, हरण करने में कुशल हैं, अनेकों बार चोरी कर चूके हैं और अवसर को जानने वाले हैं, साहसी हैं, जो तुच्छ हृदय वाले, अत्यन्त महती ईच्छा वाले एवं लोभ से ग्रस्त हैं, जो वचनों के आडम्बर से अपनी असलियत को छिपाने वाले हैं – आसक्त हैं, जो सामने से सीधा प्रहार करने वाले हैं, ऋण को नहीं चूकाने वाले हैं, जो वायदे को भंग करने वाले हैं, राज्यशासन का अनिष्ट करने वाले हैं, जो जनता द्वारा बहिष्कृत हैं, जो घातक हैं या उपद्रव करने वाले हैं, ग्रामघातक, नगरघातक, मार्ग में पथिकों को मार डालने वाले हैं, आग लगाने वाले और तीर्थ में भेद करने वाले हैं, जो हाथ की चालाकी वाले हैं, जुआरी हैं, खण्डरक्ष हैं, स्त्रीचोर हैं, पुरुष का अपहरण करते हैं, खात खोदने वाले हैं, गाँठ काटने वाले हैं, परकीय धन का हरण करने वाले हैं, अपहरण करने वाले हैं, सदा दूसरों के उपमर्दक, गुप्तचोर, गो – चोर – अश्व – चोर एवं दासी को चूराने वाले हैं, अकेले चोरी करने वाले, घर में से द्रव्य निकाल लेने वाले, छिपकर चोरी करने वाले, सार्थ को लूटने वाले, बनावटी आवाज में बोलने वाले, राजा द्वारा निगृहीत, अनेकानेक प्रकार से चोरी करके द्रव्य हरण करने की बुद्धि वाले, ये लोग और इसी कोटि के अन्य – अन्य लोग, जो दूसरे के द्रव्य को ग्रहण करने की – ईच्छा से निवृत्त नहीं हैं, वे चौर्य कर्म में प्रवृत्त होते हैं। इनके अतिरिक्त विपुल बल और परिग्रह वाले राजा लोग भी, जो पराये धन में गृद्ध हैं और अपने द्रव्य से जिन्हें संतोष नहीं है, दूसरे देश – प्रदेश पर आक्रमण करते हैं। वे लोभी राजा दूसरे के धनादि को हथियाने के उद्देश्य से चतुरंगिणी सेना के साथ (अभियान करते हैं।) वे दृढ़ निश्चय वाले, श्रेष्ठ योद्धाओं के साथ युद्ध करने में विश्वास रखने वाले, दर्प से परिपूर्ण सैनिकों से संपरिवृत्त होते हैं। वे नाना प्रकार के व्यूहों की रचना करते हैं, जैसे पद्मपत्र व्यूह, शकटव्यूह, शूचीव्यूह, चक्रव्यूह, सागरव्यूह और गरुड़व्यूह। इस तरह नाना प्रकार की व्यूहरचना वाली सेना द्वारा दूसरे की सेना को आक्रान्त करते हैं, और उसे पराजित करके दूसरे की धन – सम्पत्ति को हरण कर लेते हैं। दूसरे – युद्धभूमि में लड़कर विजय प्राप्त करने वाले, कमर कसे हुए, कवच धारण किये हुए और विशेष प्रकार के चिह्नपट्ट मस्तक पर बाँधे हुए, अस्त्र – शस्त्रों को धारण किए हुए, प्रतिपक्ष के प्रहार से बचने के लिए ढ़ाल से और उत्तम कवच से शरीर को वेष्टित किए हुए, लोहे की जाली पहने हुए, कवच पर लोहे के काँटे लगाए हुए, वक्षःस्थल के साथ ऊर्ध्वमुखी बाणों की तूणीर बाँधे हुए, हाथों में पाश लिए हुए, सैन्यदल की रणोचित रचना किए हुए, कठोर धनुष को हाथों में पकड़े हुए, हर्षयुक्त, हाथों से खींच कर की जाने वाली प्रचण्ड वेग से बरसती हुई मूसलधार वर्षा के गिरने से जहाँ मार्ग अवरुद्ध गया है, ऐसे युद्ध में अनेक धनुषों, दुधारी तलवारों, त्रिशूलों, बाणों, बाएं हाथों में पकड़ी हुई ढालों, म्यान से निकाली हुई चमकती तलवारों, प्रहार करते हुए भालों, तोमर नामक शस्त्रों, चक्रों, गदाओं, कुल्हाड़ियों, मूसलों, हलों, शूलों, लाठियों, भिंडमालों, शब्बलों, पट्टिस, पत्थरों, द्रुघणों, मौष्टिकों, मुद्‌गरों, प्रबल आगलों, गोफणों, द्रुहणों, बाणों के तूणीरों, कुवेणियों और चमचमाते शस्त्रों को आकाश में फेंकने से आकाशतल बिजली के समान उज्ज्वल प्रभावाला हो जाता है। उस संग्राम में प्रकट शस्त्र – प्रहार होता है। महायुद्ध में बजाये जाने वाले शंखों, भेरियों, उत्तम वाद्यों, अत्यन्त स्पष्ट ध्वनिवाले ढोलों के बजने के गंभीर आघोष से वीर पुरुष हर्षित होते हैं और कायर पुरुषों को क्षोभ होता है। वे काँपने लगते हैं। इस कारण युद्धभूमि में हो – हल्ला होता है। घोड़े, हाथी, रथ और पैदल सेनाओं के शीघ्रतापूर्वक चलने से चारों ओर फैली – धूल के कारण वहाँ सघन अंधकार व्याप्त रहता है। वह युद्ध कायर नरों के नेत्रों एवं हृदयों को आकुल – व्याकुल बना देता है। ढीला होने के कारण चंचल एवं उन्नत उत्तम मुकुटों, तिरीटों – ताजों, कुण्डलों तथा नक्षत्र नामक आभूषणों की उस युद्ध में जगमगाहट होती है। पताकाओं, ध्वजाओं, वैजयन्ती पताकाओं तथा चामरों और छत्रों के कारण होने वाले अन्धकार के कारण वह गंभीर प्रतीत होता है। अश्वों की हिनहिनाहट से, हाथियों की चिंघाड़ से, रथों की घनघनाहट से, पैदल सैनिकों की हर – हराहट से, तालियों की गड़गड़ाहट से, सिंहनाद की ध्वनियों से, सीटी बजाने की सी आवाजों से, जोर – जोर की चिल्लाहट से, जोर की किलकारियों से और एक साथ उत्पन्न होनेवाली हजारों कंठो की ध्वनि से वहाँ भयंकर गर्जनाएं होती हैं। उसमें एक साथ हँसने, रोने और कराहने के कारण कलकल ध्वनि होती रहती है। वह रौद्र होता है। उस युद्ध में भयानक दाँतों से होठों को जोर से काटने वाले योद्धाओं के हाथ अचूक प्रहार करने के लिए उद्यत रहते हैं। योद्धाओं के नेत्र रक्तवर्ण होते हैं। उनकी भौंहें तनी रहती हैं, उनके ललाट पर तीन साल पड़े हुए होते हैं। उस युद्ध में, मार – काट करते हुए हजारों योद्धाओं के पराक्रम को देखकर सैनिकों के पौरुष – पराक्रम की वृद्धि हो जाती है। हिनहिनाते हुए अश्वों और रथों द्वारा इधर – उधर भागते हुए युद्ध – वीरों तथा शस्त्र चलाने में कुशल और सधे हुए हाथों वाले सैनिक हर्ष – विभोर होकर, दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर, खिलखिलाक हँस रहे होते हैं। किलकारियाँ मारते हैं। चमकती हुई ढ़ालें एवं कवच धारण किए हुए, मदोन्मत्त हाथियों पर आरूढ़ प्रस्थान करते हुए योद्धा, शत्रुयोद्धाओं के साथ परस्पर जूझते हैं तथा युद्धकला में कुशलता के कारण अहंकारी योद्धा अपनी – अपनी तलवारें म्यानों में से नीकाल कर, फुर्ती के साथ रोषपूर्वक परस्पर प्रहार करते हैं। हाथियों की सूँड़ें काट रहे होते हैं। ऐसे भयावह युद्ध में मुद्‌गर आदि द्वारा मारे गए, काटे गए या फाड़े गए हाथी आदि पशुओं और मनुष्यों के युद्धभूमि में बहते हुए रुधिर के कीचड़ से मार्ग लथपथ हो रहे होते हैं। कूंख के फट जाने से भूमि पर बिखरी हुई एवं बाहर नीकलती हुई आंतों से रक्त प्रवाहित होता रहता है। तथा तड़फड़ाते हुए, विकल, मर्माहत, बूरी तरह से कटे हुए, प्रगाढ प्रहार से बेहोश हुए, इधर – उधर लुढ़कते हुए, विह्वल मनुष्यों के विलाप के कारण वह युद्ध बड़ा ही करुणाजनक होता है। उस युद्ध में मारे गए योद्धाओं के इधर – उधर भटकते घोड़े, मदोन्मत्त हाथी और भयभीत मनुष्य, मूल से कटी हुई ध्वजाओं वाले टूटे – फूटे रथ, मस्तक कटे हुए हाथियों के धड़ – कलेवर, विनष्ट हुए शस्त्रास्त्र और बिखरे हुए आभूषण इधर – उधर पड़े होते हैं। नाचते हुए बहुसंख्यक कलेवरों पर काक और गीध मंडराते रहते हैं। तब उनकी छाया के अन्धकार के कारण वह युद्ध गंभीर बन जाता है। ऐसे संग्राम में स्वयं प्रवेश करते हैं – केवल सेना को ही युद्ध में नहीं झोंकते। पृथ्वी को विकसित करते हुए, परकीय धन की कामना करने वाले वे राजा साक्षात श्मशान समान, अतीव रौद्र होने के कारण भयानक और जिसमें प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है, ऐसे संग्राम रूप संकट में चल कर प्रवेश करते हैं। इनके अतिरिक्त पैदल चोरों के समूह होते हैं। कईं ऐसे सेनापति भी होते हैं जो चोरों को प्रोत्साहित करते हैं। चोरों के यह समूह दुर्गम अटवी – प्रदेश में रहते हैं। उनके काले, हरे, लाल, पीले और श्वेत रंग के सैकड़ों चिह्न होते हैं, जिन्हें वे अपने मस्तक पर लगाते हैं। पराये धन के लोभी वे चोर – समुदाय दूसरे प्रदेश में जाकर धन का अपहरण करते हैं और मनुष्यों का घात करते हैं। इन चोरों के सिवाय अन्य लूटेरे हैं जो समुद्र में लूटमार करते हैं। वे लूटेरे रत्नों के आकर में चढ़ाई करते हैं। वह समुद्र सहस्रों तरंग – मालाओं से व्याप्त होता है। पेय जल के अभाव में जहाज के कुल – व्याकुल मनुष्यों की कल – कल ध्वनि से युक्त, सहस्रों पाताल – कलशों की वायु के क्षुब्ध होने से उछलते हुए जलकणों की रज से अन्धकारमय बना, निरन्तर प्रचुर मात्रा में उठने वाले श्वेतवर्ण के फेन, पवन के प्रबल थपेड़ों से क्षुब्ध जल, तीव्र वेग के साथ तरंगित, चारों ओर तूफानी हवाएं क्षोभित, जो तट के साथ टकराते हुए जल – समूह से तथा मगर – मच्छ आदि जलीय जन्तुओं के कारण अत्यन्त चंचल हो रहा होता है। बीच – बीच में उभरे हुए पर्वतों के साथ टकराने वाले एक बहते हुए अथाह जल – समूह से युक्त है, गंगा आदि महानदियों के वेग से जो शीघ्र ही भर जाने वाला है, जिसके गंभीर एवं अथाह भंवरों में जलजन्तु चपलतापूर्वक भ्रमण करते, व्याकुल होते, ऊपर – नीचे उछलते हैं, जो वेगवान अत्यन्त प्रचण्ड, क्षुब्ध हुए जल में से उठने वाली लहरों से व्याप्त हैं, महाकाय मगर – मच्छों, कच्छपों, ओहम्‌, घडियालों, बड़ी मछलियों, सुंसुमारों एवं श्वापद नामक जलीय जीवों के परस्पर टकराने से तथा एक दूसरे को निगल जाने के लिए दौड़ने से वह समुद्र अत्यन्त घोर होता है, जिसे देखते ही कायरजनों का हृदय काँप उठता है, जो अतीव भयानक है, अतिशय उद्वेगजनक है, जिसका ओर – छोर दिखाई नहीं देता, जो आकाश से सदृश निरालम्बन है, उपपात से उत्पन्न होने वाले पवन से प्रेरित और ऊपराऊपरी इठलाती हुई लहरों के वेग से जो नेत्रपथ – को आच्छादित कर देता है। उस समुद्रों में कहीं – कहीं गंभीर मेघगर्जना के समान गूँजती हुई, व्यन्तर देवकृत घोर ध्वनि के सदृश तथा प्रतिध्वनि के समान गंभीर और धुक्‌ – धुक्‌ करती ध्वनि सुनाई पड़ती है। जो प्रत्येक राह में रुकावट डालने वाले यक्ष, राक्षस, कूष्माण्ड एवं पिशाच जाति के कुपित व्यन्तर देवों के द्वारा उत्पन्न किए जानेवाले हजारों उत्पातों से परिपूर्ण है जो बलि, होम और धूप देकर की जाने वाली देवता की पूजा और रुधिर देकर की जाने वाली अर्चना में प्रयत्नशील एवं सामुद्रिक व्यापार में निरत नौका – वणिकों – जहाजी व्यापारियों द्वारा सेवित है, जो कलिकाल के अन्त समान है, जिसका पार पाना कठिन है, जो गंगा आदि महानदियों का अधिपति होने के कारण अत्यन्त भयानक है, जिसके सेवन में बहुत ही कठिनाईयाँ होती हैं, जिसे पार करना भी कठिन है, यहाँ तक कि जिसका आश्रय लेना भी दुःखमय है, और जो खारे पानी से परिपूर्ण होता है। ऐसे समुद्र में परकीय द्रव्य के अपहारक ऊंचे किए हुए काले और श्वेत झंडों वाले, अति – वेगपूर्वक चलने वाले, पतवारों से सज्जित जहाजों द्वारा आक्रमण करके समुद्र के मध्य में जाकर सामुद्रिक व्यापारियों के जहाजों को नष्ट कर देते हैं। जिनका हृदय अनुकम्पाशून्य है, जो परलोककी परवाह नहीं करते, ऐसे लोग धन से समृद्ध ग्रामों, आकरों, नगरों, खेटों, कर्बटों, मडम्बों, पत्तनों, द्रोणमुखों, आश्रमों, निगमों एवं देशों को नष्ट कर देते हैं। और वे कठोर हृदय या निहित स्वार्थवाले, निर्लज्ज लोग मानवों को बन्दी बनाकर गायों आदि को ग्रहण करके ले जाते हैं। दारुण मति वाले, कृपाहीन – अपने आत्मीय जनों का भी घात करते हैं। वे गृहों की सन्धि को छेदते हैं। जो परकीय द्रव्यों से विरत नहीं हैं ऐसे निर्दय बुद्धि वाले लोगों के घरों में रक्खे हुए धन, धान्य एवं अन्य प्रकार के समूहों को हर लेते हैं। इसी प्रकार कितने ही अदत्तादान की गवेषणा करते हुए काल और अकाल में इधर – उधर भटकते हुए ऐसे श्मशान में फिरते हैं वहाँ चिताओं में जलती हुई लाशें पड़ी हैं, रक्त से लथपथ मृत शरीरों को पूरा खा लेने और रुधिर पी लेने के पश्चात्‌ इधर – उधर फिरती हुई डाकिनों के कारण जो अत्यन्त भयावह जान पड़ता है, जहाँ गीदड़ खीं – खीं ध्वनि कर रहे हैं, उल्लुओं की डरावनी आवाज आ रही है, भयोत्पादक एवं विद्रूप पिशाचों द्वारा अट्टहास करने से जो अतिशय भयावना एवं अस्मरणीय हो रहा है और जो तीव्र दुर्गन्ध से व्याप्त एवं घिनौना होने के कारण देखने से भीषण जान पड़ता है। ऐसे श्मशान – स्थानों के अतिरिक्त बनों में, सूने घरों में, लयनों में, मार्ग में, बनी हुई दुकानों, पर्वतों की गुफाओं, विषम स्थानों और हिंस्र प्राणियों से व्याप्त स्थानों में क्लेश भोगते हुए मारे – मारे फिरते हैं। उनके शरीर की चमड़ी शीत और उष्ण से शुष्क हो जाती है, जल जाती है या चेहरे की कान्ति मंद पड़ जाती है। वे नरकभव में और तिर्यंच भव रूपी गहन वन में होने वाले निरन्तर दुःखों की अधिकता द्वारा भोगने योग्य पापकर्मों का संचय करते हैं। ऐसे घोर पापकर्मों का वे संचय करते हैं। उन्हें खाने योग्य अन्न और जल भी दुर्लभ होता है। कभी प्यासे, कभी भूखे, थके और कभी माँस, शब – मुर्दा, कभी कन्दमूल आदि जो कुछ भी मिला जाता है, उसी को खा लेते हैं। वे निरन्तर उद्विग्न रहते हैं, सदैव उत्कंठित रहते हैं। उनका कोई शरण नहीं होता। इस प्रकार वे अटवीवास करते हैं, जिसमें सैकड़ों सर्पों आदि का भय बना रहता है। वे अकीर्तिकर काम करने वाले और भयंकर तस्कर, ऐसी गुप्त विचारणा करते रहते हैं कि आज किसके द्रव्य का अपहरण करें; वे बहुत – से मनुष्यों के कार्य करने में विघ्नकारी होते हैं। वे नशा के कारण बेभान, प्रमत्त और विश्वास रखने वाले लोगों का अवसर देखकर घात कर देते हैं। विपत्ति और अभ्युदय के प्रसंगों में चोरी करने की बुद्धि वाले होते हैं। भेड़ियों की तरह रुधिर – पिपासु होकर इधर – उधर भटकते रहते हैं। वे राजाओं की मर्यादाओं का अतिक्रमण करने वाले, सज्जन पुरुषों द्वारा निन्दित एवं पापकर्म करने वाले अपनी ही करतूतों के कारण अशुभ परिणाम वाले और दुःख के भागी होते हैं। सदैव मलिन, दुःखमय अशान्तियुक्त चित्तवाले ये परकीय द्रव्य को हरण करने वाले इसी भव में सैकड़ों कष्टों से घिर कर क्लेश पाते हैं।

 

इसी प्रकार परकीय धन द्रव्य की खोज में फिरते हुए कईं चोर पकड़े जाते हैं और उन्हें मारा – पीटा जाता है, बाँधा जाता है और कैद किया जाता है। उन्हें वेग के साथ घूमाया जाता है। तत्पश्चात्‌ चोरों को पकड़ने वाले, चौकीदार, गुप्तचर उन्हें कारागार में ठूंस देते। कपड़े के चाबुकों के प्रहारों से, कठोर – हृदय सिपाहियों के तीक्ष्ण एवं कठोर वचनों की डाट – डपट से तथा गर्दन पकड़कर धक्के देने से उनका चित्त खेदखिन्न होता है। उन चोरों को नारकावास सरीखे कारागार में जबरदस्ती घुसेड़ दिया जाता है। वहाँ भी वे कारागार के अधिकारियों द्वारा प्रहारों, यातनाओं, तर्जनाओं, कटुवचनों एवं भयोत्पादक वचनों से भयभीत होकर दुःखी बने रहते हैं। उनके वस्त्र छीन लिये जाते हैं। वहाँ उनको मैले फटे वस्त्र मिलते हैं। बार – बार उन कैदियों से लाँच माँगने में तत्पर कारागार के रक्षकों द्वारा अनेक प्रकार के बन्धनों में बाँध दिये जाते हैं। चोरों को जिन विविध बन्धनों से बाँधा जाता है, वे बन्धन कौन – से हैं ? हड्डि या काष्ठमय बेड़ी, लोहमय बेड़ी, बालों से बनी हुई रस्सी, एक विशेष प्रकार का काष्ठ, चर्मनिर्मित मोटे रस्से, लोहे की सांकल, हथकड़ी, चमड़े का पट्टा, पैर बाँधने की रस्सी तथा निष्कोडन, इन सब तथा इसी प्रकार के अन्य – अन्य दुःखों को समुत्पन्न करने वाले कारागार के साधनों द्वारा बाँधे जाते हैं; इतना ही नहीं – उन पापी चोर कैदियों के शरीर को सिकोड़ कर, मोड़ कर जकड़ दिया जाता है। कैदकोठरी में डाल कर किवाड़ बंद कर देना, लोहे के पींजरेमें डालना, भूमिगृहमें बंद करना, कूपमें उतारना, बंदीघर के सींखचों से बाँध देना, अंगोंमें कीलें ठोकना, जूवा उनके कँधे पर रखना, गाड़ी के पहिये के साथ बाँध देना, बाहों जाँघों और सिर को कस कर बाँधना, खंभे से चिपटाना, पैरों को ऊपर और मस्तक को नीचे करके बाँधना, इत्यादि बन्धन से बाँधकर अधर्मी जेल – अधिकारीयों द्वारा चोर बाँधे जाते हैं। गर्दन नीची करके, छाती और सिर कस कर बाँध दिया जाता है तब वे निश्वास छोड़ते हैं। उनकी छाती धक्‌ धक्‌ करती है। उनके अंग मोड़े जाते हैं। ठंडी श्वासें छोड़ते हैं चमड़े की रस्सी से उनके मस्तक बाँध देते हैं, दोनों जंघाओं को चीर देते हैं, जोड़ों को काष्ठमय यन्त्र से बाँधा जाता है। तपाई हुई लोही की सलाइयाँ एवं सूइयाँ शरीर में चुभोई जाती हैं। शरीर छीला जाता है। मर्मस्थलों को पीड़ित किया जाता है। क्षार कटुक और तीखे पदार्थ उनके कोमल अंगों पर छिड़के जाते हैं। इस प्रकार पीड़ा पहुँचाने के सैकड़ों कारण वे प्राप्त करते हैं। छाती पर काष्ठ रखकर जोर से दबाने से उनकी हड्डियाँ भग्न हो जाती हैं। मछली पकड़ने के काँटे के समान घातक काले लोहे के नोकदार डंडे छाती, पेट, गुदा और पीठ में भोंक देने से वे अत्यन्त पीड़ा अनुभव करते हैं। ऐसी – ऐसी यातनाओं से अदत्तादान करने वालों का हृदय मथ दिया जाता है और उनके अंग – प्रत्यंग चूर – चूर हो जाते हैं। कोई – कोई अपराध किये बिना ही वैरी बने हुए कर्मचारी यमदूतों के समान मार – पीट करते हैं। वे अभागे कारागार में थप्पड़ों, मुक्कों, चर्मपट्टों, लोहे के कुशों, लोहमय तीक्ष्ण शस्त्रों, चाबुकों, लातों, मोटे रस्सों और बेतों के सैकड़ों प्रहारों से अंग – अंग को ताड़ना देकर पीड़ित किये जाते हैं। लटकती हुई चमड़ी पर हुए घावों की वेदना से उन बेचारे चोरों का मन उदास हो जाता है। बेड़ियों को पहनाये रखने के कारण उनके अंग सिकुड़ जाते हैं और शिथिल पड़ जाते हैं। यहाँ तक कि उनका मल – मूत्रत्याग भी रोक दिया जाता है, उनका बोलना बंद कर दिया जाता है। वे इधर – उधर संचरण नहीं कर पाते। ये और इसी प्रकार की अन्यान्य वेदनाएं वे अदत्तादान का पाप करने वाले पापी प्राप्त करते हैं। जिन्होंने अपनी इन्द्रियों का दमन नहीं किया है – वशीभूत हो रहे हैं, जो तीव्र आसक्ति के कारण मूढ – बन गए हैं, परकीय धनमें लुब्ध हैं, जो स्पर्शनेन्द्रिय विषयमें तीव्र रूप से गृद्ध – हैं, स्त्री सम्बन्धी रूप, शब्द, रस और गंध में इष्ट रति तथा इष्ट भोग की तृष्णा से व्याकुल बने हुए हैं, जो केवल धन में ही सन्तोष मानते हैं, ऐसे मनुष्य – गण फिर भी पापकर्म के परिणाम को नहीं समझते। वे आरक्षक – वधशास्त्र के पाठक होते हैं। चोरों को गिरफ्तार करने में चतुर होते हैं। सैकड़ों बार लांच – लेते हैं। झूठ, कपट, माया, निकृति करके वेषपरिवर्तन आदि करके चोर को पकड़ने तथा उससे अपराध स्वीकार कराने में अत्यन्त कुशल होते हैं – वे नरकगतिगामी, परलोक से विमुख एवं सैकड़ों असत्य भाषण करने वाले, ऐसे राजकिंकरों – के समक्ष उपस्थित कर दिये जाते हैं। प्राणदण्ड की सजा पाए हुए चोरों को पुरवर – में शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख, महापथ और पथ आदि स्थानों में जनसाधारण के सामने – लाया जाता है। तत्पश्चात्‌ बेतों, डंडों, लाठियों, लकड़ियों, ढेलों, पत्थरों, लम्बे लठ्ठों, पणोल्लि, मुक्कों, लताओं, लातों, घुटनों और कोहनियों से, उनके अंग – अंग भंग कर दिए जाते हैं, उनके शरीर को मथ दिया जाता है। अठारह प्रकार के चोरों एवं चोरी के प्रकारों के कारण उनके अंग – अंग पीड़ित कर दिये जाते हैं, करुणाजनक दशा होती है। उनके ओष्ठ, कण्ठ, गला, तालु और जीभ सूख जाती है, जीवन की आशा नष्ट हो जाती है। पानी भी नसीब नहीं होता। उन्हें धकेले या घसीटे जाते हैं। अत्यन्त कर्कश पटह – बजाते हुए, धकियाए जाते हुए तथा तीव्र क्रोध से भरे हुए राजपुरुषों के द्वारा फाँसी पर चढ़ाने के लिए दृढ़तापूर्वक पकड़े हुए वे अत्यन्त ही अपमानित होते हैं। उन्हें दो वस्त्र और लाल कनेर की माला पहनायी जाती है, जो वध्यभूत सी प्रतीत होती है, पुरुष को शीघ्र ही मरणभीति से उनके शरीर से पसीना छूटता है, उनके सारे अंग भीग जाते हैं। कोयले आदि से उनका शरीर पोता है। हवा से उड़कर चिपटी हुई धूल से उनके केश रूखे एवं धूल भरे हो जाते हैं। उनके मस्तक के केशों को कुसुंभी – से रंग दिया जाता है। उनकी जीवन – आशा छिन्न हो जाती है। अतीव भयभीत होने के कारण वे डगमगाते हुए चलते हैं और वे वधकों से भयभीत बने रहते हैं। उनके शरीर के छोटे – छोटे टुकड़े कर दिए जाते हैं। उन्हीं के शरीर में से काटे हुए और रुधिर से लिप्त माँस के टुकड़े उन्हें खिलाए जाते हैं। कठोर एवं कर्कश स्पर्श वाले पत्थर आदि से उन्हें पीटा जाता है। इस भयावह दृश्य को देखने के लिए उत्कंठित, पागलों जैसी नर – नारियों की भीड़ से वे घिर जाते हैं। नागरिक जन उन्हें देखते हैं। मृत्युदण्डप्राप्त कैदी की पोशाक पहनाई जाती है और नगर के बीचों – बीच हो कर ले जाया जाता है। उस समय वे अत्यन्त दयनीय दिखाई देते हैं। त्राणरहित, अशरण, अनाथ, बन्धुबान्धवविहीन, स्वजन द्वारा परित्यक्त वे इधर – उधर नजर डालते हैं और मौत के भय से अत्यन्त घबराए हुए होते हैं। उन्हें वधस्थल पर पहुँचा दिया जाता है और उन अभागों को शूली पर चढ़ा दिया जाता है, जिससे उनका शरीर चिर जाता है। वहाँ वध्यभूमि में उनके अंग – प्रत्यंग काट डाले जाते हैं। वृक्ष की शाखाओं पर टांग दिया जाता है। चार अंगों – को कस कर बाँध दिया जाता है। किन्हीं को पर्वत की चोटी से गिराया जाता है। उससे पत्थरों की चोट सहेनी पड़ती है। किसी – किसी को हाथी के पैर के नीचे कुचला जाता है। उन अदत्तादान का पाप करनेवालों को कुंठित धारवाले – कुल्हाड़ों आदि से अठारह स्थानों में खंडित किया जाता है। कईयों के कान, आँख और नाक काटे जाते हैं तथा नेत्र, दाँत और वृषण उखाड़े जाते हैं। जीभ खींच ली जाती है, कान या शिराएं काट दी जाती हैं। फिर उन्हें वधभूमि में ले जाया जाता है और वहाँ तलवार से काटा जाता है। हाथ और पैर काट कर निर्वासित कर दिया जाता है। कईं चोरों को आजीवन कारागार में रखा जाता है। परकीय द्रव्य के अपहरण में लुब्ध कईं चोरों को सांकल बाँध कर एवं पैरों में बेड़ियाँ डाल कर बन्ध कर के उनका धन छीन लिया जाता है। वे चोर स्वजनों द्वारा त्याग दिये जाते हैं। सभी के द्वारा वे तिरस्कृत होते हैं। अत एव वे सभी की ओर से निराश हो जाते हैं। बहुत – से लोगों के ‘धिक्कार से’ वे लज्जित होते हैं। उन लज्जाहीन मनुष्यों को निरन्तर भूखा मरना पड़ता है। चोरी के वे अपराधी सर्दी, गर्मी और प्यास की पीड़ा से कराहते रहते हैं। उनका मुख – सहमा हुआ और कान्तिहीन को जाता है। वे सदा विह्वल या विफल, मलिन और दुर्बल बने रहते हैं। थके – हारे या मुर्झाए रहते हैं, कोई – कोई खांसते रहते हैं और अनेक रोगों से ग्रस्त रहते हैं। अथवा भोजन भलीभाँति न पचने के कारण उनका शरीर पीड़ित रहता है। उनके नख, केश और दाढ़ी – मूँछों के बाल तथा रोम बढ़ जाते हैं। वे कारागार में अपने ही मल – मूत्र में लिप्त रहते हैं। जब इस प्रकार की दुस्सह वेदनाएं भोगते – भोगते वे, मरने की ईच्छा न होने पर भी, मर जाते हैं। उनके शब के पैरों में रस्सी बाँध कर किसी गड्ढे में फैंका जाता है। तत्पश्चात्‌ भेड़िया, कुत्ते, सियार, शूकर तथा संडासी के समान मुखवाले अन्य पक्षी अपने मुखों से उनके शब को नोच – चींथ डालते हैं। कईं शबों को पक्षी खा जाते हैं। कईं चोरों के मृत कलेवर में कीड़े पड़ जाते हैं, उनके शरीर सड़ – गल जाते हैं। उनके बाद भी अनिष्ट वचनों से उनकी निन्दा की जाती है – अच्छा हुआ जो पापी मर गया। उसकी मृत्यु से सन्तुष्ट हुए लोग उसकी निन्दा करते हैं। इस प्रकार वे पापी चोर अपनी मौत के पश्चात्‌ भी दीर्घकाल तक अपने स्वजनों को लज्जित करते रहते हैं। वे परलोक को प्राप्त होकर नरक में उत्पन्न होते हैं। नरक निराभिराम है और आग से जलते हुए घर के समान अत्यन्त शीत वेदना वाला होता है। असातावेदनीय कर्म की उदीरणा के कारण सैकड़ों दुःखों से व्याप्त है। नरक से उद्वर्त्तन करके फिर तिर्यंचयोनि में जन्म लेते हैं। वहाँ भी वे नरक जैसी असातावेदना को अनुभवते हैं। तिर्यंचयोनि में अनन्त काल भटकते हैं। किसी प्रकार, अनेकों बार नरकगति और लाखों बार तिर्यंचगति में जन्म – मरण करते – करते यदि मनुष्यभव पा लेते हैं तो वहाँ भी नीच कुल में उत्पन्न और अनार्य होते हैं। कदाचित्‌ आर्यकुल में जन्म मिल गया तो वहाँ भी लोकबाह्य होते हैं। पशुओं जैसा जीवन यापन करते हैं, कुशलता से रहित होते हैं, अत्यधिक कामभोगों की तृष्णा वाले और अनेकों बार नरक – भवों में उत्पन्न होने के कु – संस्कारों के कारण पापकर्म करने की प्रवृत्ति वाले होते हैं। अत एव संसार में परिभ्रमण कराने वाले अशुभ कर्मों का बन्ध करते हैं। वे धर्मशास्त्र के श्रवण से वंचित रहते हैं। वे अनार्य, क्रूर मिथ्यात्व के पोषक शास्त्रों को अंगीकार करते हैं। एकान्ततः हिंसा में ही उनकी रुचि होती है। इस प्रकार रेशम के कीड़े के समान वे अष्टकर्म रूपी तन्तुओं से अपनी आत्मा को प्रगाढ बन्धनों से जकड़ लेते हैं। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति में गमनागमन करना संसार – सागर की बाह्य परिधि है। जन्म, जरा और मरण के कारण होने वाला गंभीर दुःख ही संसार – सागर का अत्यन्त क्षुब्ध जल है। संसार – सागर में संयोग और वियोग रूपी लहरें उठती रहती हैं। सतत – चिन्ता ही उसका प्रसार है। वध और बन्धन ही उसमें विस्तीर्ण तरंगें हैं। करुणाजनक विलाप तथा लोभ की कलकलाहट की ध्वनि की प्रचुरता है। अपमान रूपी फेन होते हैं। तीव्र निन्दा, पुनः पुनः उत्पन्न होनेवाले रोग, वेदना, तिरस्कार, पराभव, अधःपतन, कठोर झिड़कियाँ जिनके कारण प्राप्त होती हैं, ऐसे कठोर ज्ञानावरणीय आदि कर्मों रूपी पाषाणों से उठी हुई तरंगों के समान चंचल है। मृत्यु का भय उस संसार – समुद्र के जल का तल है। वह संसार – सागर कषायरूपी पाताल – कलशों से व्याप्त है। भव – परम्परा ही उसकी विशाल जलराशि है। वह अनन्त है। अपार है। महान भय रूप है। उसमें प्रत्येक प्राणी को एक दूसरे के द्वारा उत्पन्न होने वाला भय बना रहता है। जिनकी कहीं कोई सीमा नहीं, ऐसी विपुल कामनाओं और कलुषित बुद्धि रूपी पवन आँधी के प्रचण्ड वेग के कारण उत्पन्न तथा आशा और पीपासा रूप पाताल, समुद्रतल से कामरति की प्रचुरता से वह अन्धकारमय हो रहा है। संसार – सागर के जल में प्राणी मोहरूपी भँवरों में भोगरूपी गोलाकार चक्कर लगा रहे हैं, व्याकुल होकर उछल रहे हैं, नीचे गिर रहे हैं। इस संसार – सागर में दौड़धाम करते हुए, व्यसनों से ग्रस्त प्राणियों के रुदनरूपी प्रचण्ड पवन से परस्पर टकराती हुई अमनोज्ञ लहरों से व्याकुल तथा तरंगों से फूटता हुआ एवं चंचल कल्लोंलों से व्याप्त जल है। वह प्रमाद रूपी अत्यन्त प्रचण्ड एवं दुष्ट श्वापदों द्वारा सताये गये एवं इधर – उधर घूमते हुए प्राणियों के समूह का विध्वंस करने वाले घोर अनर्थों से परिपूर्ण है। उसमें अज्ञान रूपी भयंकर मच्छ घूमते हैं। अनुपशान्त इन्द्रियों वाले जीवरूप महामगरों की नयी – नयी उत्पन्न होने वाली चेष्टाओं से वह अत्यन्त क्षुब्ध हो रहा है। उसमें सन्तापों का समूह विद्यमान है, ऐसा प्राणियों के द्वारा पूर्वसंचित एवं पापकर्मों के उदय से प्राप्त होनेवाला तथा भोगा जानेवाला फल रूपी घूमता हुआ जल – समूह है जो बिजली के समान चंचल है। वह त्राण एवं शरण से रहित है, इसी प्रकार संसार में अपने पापकर्मों का फल भोगने से कोई बच नहीं सकता। संसार – सागर में ऋद्धि, रस और सातागौरव रूपी अपहार द्वारा पकड़े हुए एवं कर्मबन्ध से जकड़े हुए प्राणी जब नरकरूप पाताल – तल के सम्मुख पहुँचते हैं तो सन्न और विषण होते हैं, ऐसे प्राणियों की बहुलता वाला है। वह अरति, रति, भय, दीनता, शोक तथा मिथ्यात्व रूपी पर्वतों से व्याप्त हैं। अनादि सन्तान कर्मबन्धन एवं राग – द्वेष आदि क्लेश रूप कीचड़ के कारण उस संसार – सागर को पार करना अत्यन्त कठिन है। समुद्र में ज्वार के समान संसार – समुद्र में चतुर्गति रूप कुटिल परिवर्तनों से युक्त विस्तीर्ण – ज्वार – आते रहते हैं। हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह रूप आरंभ के करने, कराने और अनुमोदने से सचित्त ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के गुरुतर भार से दबे हुए तथा व्यसन रूपी जलप्रवाह द्वारा दूर फेंके गए प्राणियों के लिए इस संसार – सागर का तल पाना अत्यन्त कठिन है। इसमें प्राणी दुःखों का अनुभव करते हैं। संसार संबंधी सुख – दुःख से उत्पन्न होने वाले परिताप के कारण वे कभी ऊपर उठने और कभी डूबने का प्रयत्न करते रहते हैं। यह संसार – सागर चार दिशा रूप चार गतियों के कारण विशाल है। यह अन्तहीन और विस्तृत है। जो जीव संयम में स्थित नहीं, उनके लिए यहाँ कोई आलम्बन नहीं है। चौरासी लाख जीवयोनियों से व्याप्त हैं। यहाँ अज्ञानान्धकार छाया रहता है और यह अनन्त – काल तक स्थायी है। संसार – सागर उद्वेगप्राप्त – दुःखी प्राणियों का निवास – स्थान है। इस संसार में पापकर्मकारी प्राणी – जिस ग्राम, कुल आदि की आयु बाँधते हैं वहीं पर वे बन्धु – बान्धवों, स्वजनों और मित्रजनों से परिवर्जित होते हैं, वे सभी के लिए अनिष्ट होते हैं। उनके वचनों को कोई ग्राह्य नहीं मानता और वे दुर्विनीत होते हैं। उन्हें रहने को, बैठने को खराब आसन, सोने को खराब शय्या और खाने को खराब भोजन मिलता है। वे अशुचि रहते हैं। उनका संहनन खराब होता है, शरीर प्रमाणोपेत नहीं होता। उनके शरीर की आकृति बेडौल होती है। वे कुरूप होते हैं। तीव्रकषायी होते हैं और मोह की तीव्रता होती है। उनमें धर्मसंज्ञा नहीं होती। वे सम्यग्‌ – दर्शन से रहित होते हैं। उन्हें दरिद्रता का कष्ट सदा सताता रहता है। वे सदा परकर्मकारी रहकर जिन्दगी बिताते हैं। कृपण – रंक – दीन – दरिद्र रहते हैं। दूसरों के द्वारा दिये जाने वाले पिण्ड – ताक में रहते हैं। कठिनाई से दुःखपूर्वक आहार पाते हैं, किसी प्रकार रूखे – सूखे, नीरस एवं निस्सार भोजन से पेट भरते हैं। दूसरों का वैभव, सत्कार – सम्मान, भोजन, वस्त्र आदि समुदय – अभ्युदय देखकर वे अपनी निन्दा करते हैं। इस भव में या पूर्वभव में किये पापकर्मों की निन्दा करते हैं। उदास मन रह कर शोक की आग में जलते हुए लज्जित – तिरस्कृत होते हैं। साथ ही वे सत्त्वहीन, क्षोभग्रस्त तथा चित्रकला आदि शिल्प के ज्ञान से, विद्याओं से एवं शास्त्र ज्ञान से शून्य होते हैं। यथाजात अज्ञान पशु के समान जड़ बुद्धि वाले, अविश्वसनीय या अप्रतीति उत्पन्न करने वाले होते हैं। सदा नीच कृत्य करके अपनी आजीविका चलाते हैं – लोकनिन्दित, असफल मनोरथ वाले, निराशा से ग्रस्त होते हैं। अदत्तादान का पाप करने वालों के प्राणी भवान्तर में भी अनेक प्रकार की तृष्णाओं के पाश में बँधे रहते हैं। लोक में सारभूत अनुभव किये जाने वाले अर्थोपार्जन एवं कामभोगों सम्बन्धी सुख के लिए अनुकूल या प्रबल प्रयत्न करने पर भी उन्हें सफलता प्राप्त नहीं होती। उन्हें प्रतिदिन उद्यम करने पर भी बड़ी कठिनाई से इधर – उधर बिखरा भोजन ही नसीब होता है। वे प्रक्षीणद्रव्यसार होते हैं। अस्थिर धन, धान्य और कोश के परिभोग से वे सदैव वंचित रहते हैं। काम तथा भोग के भोगोपभोग के सेवन से भी वंचित रहते हैं। परायी लक्ष्मी के भोगोपभोग को अपने अधीन बनाने के प्रयास में तत्पर रहते हुए भी वे बेचारे न चाहते हुए भी केवल दुःख के ही भागी होते हैं। उन्हें न तो सुख नसीब होता है, न शान्ति। इस प्रकार जो पराये द्रव्यों से विरत नहीं हुए हैं, वे अत्यन्त एवं विपुल सैकड़ों दुःखों की आग में जलते रहते हैं। अदत्तादान का यह फलविपाक है। यह इहलोक और परलोक में भी होता है। यह सुख से रहित है और दुःखों की बहुलता वाला है। अत्यन्त भयानक है। अतीव प्रगाढ कर्मरूपी रज वाला है। बड़ा ही दारुण है, कर्कश है, असातामय है और हजारों वर्षों में इससे पिण्ड छूटता है, किन्तु इसे भोगे बिना छूटकारा नहीं मिलता। ज्ञातकुलनन्दन, महावीर भगवान ने इस प्रकार कहा है। अदत्तादान के इस तीसरे (आस्रव – द्वार के) फलविपाक को भी उन्हीं तीर्थंकर देव ने प्रतिपादित किया है। यह अदत्तादान, परधन – अपहरण, दहन, मृत्यु, भय, मलिनता, त्रास, रौद्रध्यान एवं लोभ का मूल है। इस प्रकार यह यावत्‌ चिर काल से लगा हुआ है। इसका अन्त कठिनाई से होता है।