प्रथम अहिंसा है, दूसरा सत्यवचन है, तीसरा स्वामी की आज्ञा से दत्त है, चौथा ब्रह्मचर्य और पंचम अपरिग्रहत्व है। इन संवरद्वारों में प्रथम जो अहिंसा है, वह त्रस और स्थावर – समस्त जीवों का क्षेम – कुशल करने वाली है। मैं पाँच भावनाओं सहित अहिंसा के गुणों का कुछ कथन करूँगा।
हे सुव्रत ! ये महाव्रत समस्त लोक के लिए हितकारी है। श्रुतरूपी सागर में इनका उपदेश किया गया है। ये तप और संयमरूप व्रत है। इन महाव्रतों में शील का और उत्तम गुणों का समूह सन्निहित है। सत्य और आर्जव – इनमें प्रधान है। ये महाव्रत नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति से बचाने वाले हैं – समस्त जिनों – तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट हैं। कर्मरूपी रज का विदारण करने वाले हैं। सैकड़ों भवों का अन्त करने वाले हैं। सैकड़ों दुःखों से बचाने वाले हैं और सैकड़ों सुखों में प्रवृत्त करने वाले हैं। ये महाव्रत कायर पुरुषों के लिए दुस्तर है, सत्पुरुषों द्वारा सेवित है, ये मोक्ष में जाने के मार्ग हैं, स्वर्ग में पहुँचाने वाले हैं। इस प्रकार के ये महाव्रत रूप पाँच संवरद्वार भगवान महावीर ने कहे हैं। उन पाँच संवरद्वारों में प्रथम संवरद्वार अहिंसा है। अहिंसा के निम्नलिखित नाम हैं – द्वीप – त्राण – शरण – गति – प्रतिष्ठा, निर्वाह, निर्वृत्ति, समाधि, शक्ति, कीर्ति, कान्ति, रति, विरति, श्रुताङ्ग, तृप्ति, दया, विमुक्ति, क्षान्ति, सम्यक्त्वाराधना, महती, बोधि, बुद्धि, धृति, समृद्धि, ऋद्धि, वृद्धि, स्थिति, पुष्टि, नन्दा, भद्रा, विशुद्धि, लब्धि, विशिष्ट दृष्टि, कल्याण, मंगल, प्रमोद, विभूति, रक्षा, सिद्धावास, अनास्रव, केवलि – स्थान, शिव, समिति, शील, संयम, शीलपरिग्रह, संवर, गुप्ति, व्यवसाय, उच्छय, यज्ञ, आयतन, अप्रमाद, आश्वास, विश्वास, अभय, सर्वस्य अमाघात, चोक्ष, पवित्रा, सुचि, पूता, विमला, प्रभासा, निर्मलतरा अहिंसा भगवती के इत्यादि (पूर्वोक्त तथा इसी प्रकार के अन्य) स्वगुणनिष्पन्न नाम हैं।
यह अहिंसा भगवती जो है सो भयभीत प्राणियों के लिए शरणभूत है, पक्षियों के लिए आकाश में गमन करने समान है, प्यास से पीड़ित प्राणियों के लिए जल के समान है, भूखों के लिए भोजन के समान है, समुद्र के मध्य में जहाज समान है, चतुष्पद के लिए आश्रम समान है, दुःखों से पीड़ित के लिए औषध समान है, भयानक जंगल में सार्थ समान है। भगवती अहिंसा इनसे भी अत्यन्त विशिष्ट है, जो पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्नि – कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, बीज, हरितकाय, जलचर, स्थलचर, खेचर, त्रस और स्थावर सभी जीवों का क्षेम – कुशल – मंगल करनेवाली है। यह भगवती अहिंसा वह है जो अपरिमित केवलज्ञान – दर्शन को धारण करने वाले, शीलरूप गुण, विनय, तप और संयम के नायक, तीर्थ की संस्थापन करने वाले, जगत के समस्त जीवों के प्रति वात्सल्य धारण करने वाले, त्रिलोकपूजित जिनवरों द्वारा अपने केवलज्ञान – दर्शन द्वारा सम्यक् रूप में स्वरूप, कारण और कार्य के दृष्टिकोण से निश्चित की गई है। विशिष्ट अवधिज्ञानियों द्वारा विज्ञात की गई है – ज्ञपरिज्ञा से जानी गई और प्रत्या – ख्यानपरिज्ञा से सेवन की गई है। ऋजुमति – मनःपर्यवज्ञानियों द्वारा देखी – परखी गई है। विपुलमति – मनः – पर्याय – ज्ञानियों द्वारा ज्ञात की गई है। चतुर्दश पूर्वश्रुत के धारक मुनियों ने इसका अध्ययन किया है। विक्रियालब्धि के धारकों ने इसका आजीवन पालन किया है। मतिज्ञानियों, श्रुतज्ञानियों, अवधिज्ञानियों, मनःपर्यवज्ञानियों, केवलज्ञानियों ने, आमर्षौषधिलब्धि धारक, श्लेष्मौषधिलब्धि धारक, जल्लौषधिलब्धि धारकों, विप्रुडौषधिलब्धि धारकों, सर्वोषधिलब्धिप्राप्त, बीजबुद्धि – कोष्टबुद्धि – पदानुसारिबुद्धि – लब्धिकारकों, संभिन्नश्रोतस्लब्धि धारकों, श्रुतधरों, मनोबली, वचनबली और कायबली मुनियों, ज्ञानबली, दर्शनबली तथा चारित्रबली महापुरुषों ने, मध्यास्रवलब्धिधारी, सर्पिरास्रवलब्धिधारी तथा अक्षीणमहानसलब्धि के धारकों ने चारणों और विद्याधरों ने, चतुर्थभक्तिकों से लेकर दो, तीन, चार, पाँच दिनों, इसी प्रकार एक मास, दो मास, तीन मास, चार मास, पाँच मास एवं छह मास तक का अनशन – उपवास करने वाले तपस्वियों ने, इसी प्रकार उत्क्षिप्तचरक, निक्षिप्तचरक, अन्तचरक, प्रान्तचरक, रूक्षचरक, समुदानचरक, अन्नग्लायक, मौनचरक, संसृष्टकल्पिक, तज्जातसंसृष्टकल्पिक, उपनिधिक, शुद्धैषणिक, संख्या – दत्तिक, दृष्ट – लाभिक, अदृष्टलाभिक, पृष्ठलाभिक, आचाम्लक, पुरिमार्धिक, एकाशनिक, निर्विकृतिक, भिन्नपिण्ड – पातिक, परिमितपिण्डपातिक, अन्ताहारी, प्रान्ताहारी, अरसाहारी, विरसाहारी, रूक्षाहारी, तृच्छाहारी, अन्तजीवी, प्रान्तजीवी, रूक्षजीवी, तुच्छजीवी, उपशान्तजीवी, प्रशान्तजीवी, विविक्तजीवी तथा दूध, मधु और धृत का यावज्जीवन त्याग करने वालों ने, मद्य और माँस से रहित आहार करने वालों ने कायोत्सर्ग करके एक स्थान पर स्थित रहने का अभिग्रह करने वालों ने, प्रतिमास्थायिकों ने स्थानोत्कटिकों ने, वीरासनिकों ने, नैषधिकों ने, दण्डायतिकों ने, लगण्डशायिकों ने, एकपार्श्वकों ने, आतापकों ने, अपाव्रतों ने, अनिष्ठीवकों ने, अकंडूयकों ने, धूतकेश – श्मश्रु लोम – नख अर्थात् सिर के बाल, दाढ़ी, मूँछ और नखों का संस्कार करने का त्याग करने वालों ने, सम्पूर्ण शरीर के प्रक्षालन आदि संस्कार के त्यागियों ने, श्रुतधरों के द्वारा तत्त्वार्थ को अवगत करनेवाली बुद्धिधारक महापुरुषों ने सम्यक् प्रकार से आचरण किया है। इनके अतिरिक्त आशीविष सर्प के समान उग्र तेज से सम्पन्न महापुरुषों ने, वस्तु तत्त्व का निश्चय और पुरुषार्थ – दोनों में पूर्ण कार्य करने वाली बुद्धि से सम्पन्न प्रज्ञापुरुषों ने, नित्य स्वाध्याय और चित्तवृत्तिनिरोध रूप ध्यान करने वाले तथा धर्मध्यान में निरन्तर चिन्ता को लगाये रखने वाले पुरुषों ने, पाँच महाव्रतस्वरूप चारित्र से युक्त तथा पाँच समितियों से सम्पन्न, पापों का शमन करने वाले, षट् जीवनिकायरूप जगत के वत्सल, निरन्तर अप्रमादी रहकर विचरण करने वाले महात्माओं ने तथा अन्य विवेकविभूषित सत्पुरुषों ने अहिंसा भगवती की आराधना की है। अहिंसा का पालन करने के लिए उद्यत साधु को पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रस, इस प्रकार सभी प्राणियों के प्रति संयमरूप दया के लिए शुद्ध भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए। जो आहार साधु के लिए नहीं बनाया गया हो, दूसरे से नहीं बनवाया गया हो, जो अनाहूत हो, अनुद्दिष्ट हो, साधु के उद्देश्य से खरीदा नहीं गया हो, जो नव कोटियों से विशुद्ध हो, शंकित, उद्गम, उत्पादना और एषणा दोषों से रहित हो, जिस देय वस्तु में से आगन्तुक जीव – जन्तु स्वतः पृथक् हो गए हों, वनस्पतिकायिक आदि जीव स्वतः या परतः मृत हो गए हों या दाता द्वारा दूर करा दिए गए हों, इस प्रकार जो भिक्षा अचित्त हो, जो शुद्ध हो, ऐसी भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए। भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर गए हुए साधु को आसन पर बैठ कर, धर्मोपदेश देकर या कथाकहानी सूनाकर प्राप्त किया हुआ आहार नहीं ग्रहण करना चाहिए। वह आहार चिकित्सा, मंत्र, मूल, औषध आदि के हेतु नहीं होना चाहिए। स्त्री पुरुष आदि के शुभाशुभसूचक लक्षण, उत्पात, अतिवृष्टि, दुर्भिक्ष आदि स्वप्न, ज्योतिष, मुहूर्त्त आदि का प्रतिपादक शास्त्र, विस्मयजनक चामत्कारिक प्रयोग या जादू के प्रयोग के कारण दिया जाता आहार नहीं होना चाहिए। दम्भ करके भिक्षा नहीं लेनी चाहिए। गृहस्वामी के घर की या पुत्र आदि की रखवाली करने के बदले प्राप्त होने वाली भिक्षा नहीं लेनी चाहिए। गृहस्थ के पुत्रादि को शिक्षा देने या पढ़ाने के निमित्त से भी भिक्षा ग्राह्य नहीं है। गृहस्थ का वन्दन – स्तवन – प्रशंसा करके, सन्मान – सत्कार करके अथवा पूजा – सेवा करके और वन्दन, मानन एवं पूजन – इन तीनों को करके भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए। (पूर्वोक्त वन्दन, मानन एवं पूजन से विपरीत) न तो गृहस्थ की हीलना करके, न निन्दना करके और न गर्हा करके तथा हीलना, निन्दना एवं गर्हा करके भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। इसी तरह साधु को भय दिखला कर, तर्जना करके और ताड़ना करके भी भिक्षा नहीं ग्रहण करना चाहिए और यह तीनों – भय – तर्जना – ताड़ना करके भी भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए। अभिमान से, दरिद्रता दिखाकर, मायाचार करके या क्रोध करके, दीनता दिखाकर और न यह तीनों – गौरव – क्रोध – दीनता दिखाकर भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए। मित्रता प्रकट करके, प्रार्थना करके और सेवा करके भी अथवा यह तीनों करके भी भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए। किन्तु अज्ञात रूप से, अगृद्ध, मूर्च्छा से रहित होकर, आहार और आहारदाता के प्रति द्वेष न करते हुए, अदीन, अपने प्रति हीनता भाव न रखते हुए, अविषादी वचन कहकर, निरन्तर मन – वचन – काय को धर्मध्यान में लगाते हुए, प्राप्त संयमयोग में उद्यम, अप्राप्त संयम योगों की प्राप्ति में चेष्टा, विनय के आचरण और क्षमादि के गुणों के योग से युक्त होकर साधु को भिक्षा की गवेषणा में निरत – तत्पर होना चाहिए। यह प्रवचन श्रमण भगवान महावीर ने जगत के समस्त जीवों की रक्षा के लिए समीचीन रूप में कहा है। यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, परलोक में शुद्ध फल के रूप में परिणत होने से भविक है तथा भविष्यत् काल में भी कल्याणकर है। यह भगवत्प्रवचन शुद्ध है और दोषों से मुक्त रखने वाला है, न्याययुक्त है, अकुटिल है, यह अनुत्तर है तथा समस्त दुःखों और पापों को उपशान्त करने वाला है।
पाँच महाव्रतों – संवरों में से प्रथम महाव्रत की ये – आगे कही जाने वाली – पाँच भावनाएं प्राणातिपातविरमण अर्थात् अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए हैं। खड़े होने, ठहरने और गमन करने में स्व – पर की पीड़ारहितता गुणयोग को जोड़ने वाली तथा गाड़ी के युग प्रमाण भूमि पर गिरने वाली दृष्टि से निरन्तर कीट, पतंग, त्रस, स्थावर जीवों की दया में तत्पर होकर फूल, फल, छाल, प्रवाल – पत्ते – कोंपल – कंद, मूल, जल, मिट्टी, बीज एवं हरितकाय – दूब आदि को बचाते हुए, सम्यक् प्रकार से चलना चाहिए। इस प्रकार चलने वाले साधु को निश्चय ही समस्त प्राणी की हीलना, निन्दा, गर्हा, हिंसा, छेदन, भेदन, व्यथित, नहीं करना चाहिए। जीवों को लेश मात्र भी भय या दुःख नहीं पहुँचाना चाहिए। इस प्रकार (के आचरण) से साधु ईर्यासमिति में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से भावित होता है। तथा सबलता से रहित, संक्लेश से रहित, अक्षत चारित्र की भावना से युक्त, संयमशील एवं अहिंसक सुसाधु कहलाता है। दूसरी भावना मनःसमिति है। पापमय, अधार्मिक, दारुण, नृशंस, वध, बन्ध और परिक्लेश की बहुलता वाले, भय, मृत्यु एवं क्लेश से संक्लिष्ट ऐसे पापयुक्त मन से लेशमात्र भी विचार नहीं करना चाहिए। इस प्रकार (के आचरण) से – मनःसमिति की प्रवृत्ति से अन्तरात्मा भावित होती है तथा निर्मल, संक्लेशरहित, अखण्ड निरतिचार चारित्र की भावना से युक्त, संयमशील एवं अहिंसक सुसाधु कहलाता है। अहिंसा महाव्रत की तीसरी भावना वचनसमिति है। पापमय वाणी से तनिक भी पापयुक्त वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इस प्रकार की वाक्समिति के योग से युक्त अन्तरात्मा वाला निर्मल, संक्लेशरहित और अखण्ड चारित्र की भावना वाला अहिंसक साधु सुसाधु होता है। आहार की एषणा से शुद्ध, मधुकरी वृत्ति से, भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए। भिक्षा लेनेवाला साधु अज्ञात रहे, अगृद्ध, अदुष्ट, अकरुण, अविषाद, सम्यक् प्रवृत्ति में निरत रहे। प्राप्त संयमयोगों की रक्षा के लिए यतनाशील एवं अप्राप्त संयमयोगों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नवान, विनय का आचरण करने वाला तथा क्षमा आदि गुणों की प्रवृत्ति से युक्त ऐसा भिक्षाचर्या में तत्पर भिक्षु अनेक घरों में भ्रमण करके थोड़ी – थोड़ी भिक्षा ग्रहण करे। भिक्षा ग्रहण करके अपने स्थान पर गुरुजन के समक्ष जाने – आने में लगे हुए अतिचारों का प्रतिक्रमण करे। गृहीत आहार – पानी की आलोचना करे, आहार – पानी उन्हें दिखला दे, फिर गुरुजन के द्वारा निर्दिष्ट किसी अग्रगण्य साधु के आदेश के अनुसार, सब अतिचारों से रहित एवं अप्रमत्त होकर विधिपूर्वक अनेषणाजनित दोषों की निवृत्ति के लिए पुनः प्रतिक्रमण करे। तत्पश्चात् शान्त भाव से सुखपूर्वक आसीन होकर, मुहूर्त्त भर धर्मध्यान, गुरु की सेवा आदि शुभ योग, तत्त्वचिन्तन अथवा स्वाध्याय के द्वारा अपने मन का गोपन करके – चित्त स्थिर करके श्रुत – चारित्र रूप धर्म में संलग्न मनवाला होकर, चित्तशून्यता से रहित होकर, संक्लेश से मुक्त रहकर, कलह से रहित होकर, समाधियुक्त मन वाला, श्रद्धा, संवेग और कर्मनिर्जरा में चित्त को संलग्न करने वाला, प्रवचन में वत्सलतामय मन वाला होकर साधु अपने आसन से उठे और हृष्ट – तुष्ट होकर यथारात्निक अन्य साधुओं को आहार के लिए निमंत्रित करे। गुरुजनों द्वारा लाये हुए आहार को वितरण कर देने के बाद उचित आसन पर बैठे। फिर मस्तक सहित शरीर को तथा हथेली को भलीभाँति प्रमार्जित करके आहार में अनासक्त होकर, स्वादिष्ट भोजन की लालसा से रहित होकर तथा रसों में अनुरागरहित होकर, दाता या भोजन की निन्दा नहीं करता हुआ, सरस वस्तुओं में आसक्ति न रखता हुआ, अकलुषित भावपूर्वक, लोलुपता से रहित होकर, परमार्थ बुद्धि का धारक साधु ‘सुर – सुर’ ध्वनि न करता हुआ, ‘चप – चप’ आवाज न करता हुआ, न बहुत जल्दी – जल्दी और न बहुत देर से, भोजन को भूमि पर न गिराता हुआ, चौड़े प्रकाशयुक्त पात्र में (भोजन करे।) यतनापूर्वक, आदरपूर्वक एवं संयोजनादि सम्बन्धी दोषों से रहित, अंगार तथा धूम दोष से रहित, गाड़ी की धूरी में तेल देने अथवा घाव पर मल्हम लगाने के समान, केवल संयमयात्रा के निर्वाह के लिए एवं संयम के भार को वहन करने के लिए प्राणों को धारण करने के उद्देश्य से साधु को सम्यक् प्रकार से भोजन करना चाहिए। इस प्रकार आहारसमिति में समीचीन रूप से प्रवृत्ति के योग से अन्तरात्मा भावित करने वाला साधु निर्मल, संक्लेशरहित तथा अखण्डित चारित्र की भावना वाला अहिंसक संयमी होता है। अहिंसा महाव्रत की पाँचवीं भावना आदान – निक्षेपणसमिति है। इस का स्वरूप इस प्रकार है – संयम के उपकरण पीठ, चौकी, फलक पाट, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, चोलपट्ट, मुखवस्त्रिका, पादप्रोंछन, ये अथवा इनके अतिरिक्त उपकरण संयम की रक्षा या वृद्धि के उद्देश्य से तथा पवन, धूप, डांस, मच्छर और शीत आदि से शरीर की रक्षा के लिए धारण – ग्रहण करना चाहिए। साधु सदैव इन उपकरणों के प्रतिलेखन, प्रस्फोटन और प्रमार्जन करने में, दिन में और रात्रि में सतत अप्रमत्त रहे और भाजन, भाण्ड, उपधि तथा अन्य उपकरणों को यतनापूर्वक रखे या उठाए। इस प्रकार आदान – निक्षेपणसमिति के योग से भावित अन्तरात्मा – अन्तःकरण वाला साधु निर्मल, असंक्लिष्ट तथा अखण्ड चारित्र की भावना से युक्त अहिंसक संयमशील सुसाधु होता है। इस प्रकार मन, वचन और काय से सुरक्षित इन पाँच भावना रूप उपायों से यह अहिंसा–संवरद्वार पालित होता है। अत एव धैर्यशाली और मतिमान् पुरुष को सदा सम्यक् प्रकार से इसका पालन करना चाहिए। यह अनास्रव है, दीनता से रहित, मलीनता से रहित और अनास्रवरूप है, अपरिस्रावी है, मानसिक संक्लेश से रहित है, शुद्ध है और सभी तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात है। पूर्वोक्त प्रकार से प्रथम संवरद्वार स्पृष्ट होता है, पालित होता है, शोधित होता है, तीर्ण होता है, कीर्तित, आराधित और आज्ञा के अनुसार पालित होता है। ऐसा ज्ञातमुनि – महावीर ने प्रज्ञापित किया है एवं प्ररूपित किया है। यह सिद्धवरशासन प्रसिद्ध है, सिद्ध है, बहुमूल्य है, सम्यक् प्रकार से उपदिष्ट है और प्रशस्त है।