उस काल तथा उस समय में रोहीतक नाम का नगर था। वह ऋद्ध, स्तिमित तथा समृद्ध था। पृथिवी – अवतंसक नामक उद्यान था। उसमें धारण नामक यक्ष का यक्षायतन था। वहाँ वैश्रमणदत्त नाम का राजा था। श्रीदेवी नामक रानी थी। युवराज पद से अलंकृत पुष्पनंदी कुमार था। उस रोहीतक नगर में दत्त गाथापति रहता था। वह बड़ा धनी यावत् सम्माननीय था। उसकी कृष्णश्री नामकी भार्या थी। उस दत्त गाथापति की पुत्री तथा कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता नाम की बालिका थी; जो अन्यून एवं निर्दोष इन्द्रियों से युक्त सुन्दर शरीरवाली थी। उस काल उस समय में वहाँ श्रमण भगवान महावीर पधारे यावत् उनकी धर्मदेशना सूनकर राजा व परिषद् वापिस चले गये। उस काल, उस समय भगवान के ज्येष्ठ शिष्य गौतमस्वामी बेले के पारणे के निमित्त भिक्षार्थ नगर में गये यावत् राजमार्ग में पधारे। वहाँ पर वे हस्तियों, अश्वों और पुरुषों को देखते हैं, और उन सबके बीच उन्होंने अवकोटक बन्धन से बंधी हुई, कटे हुए कर्ण तथा नाक वाली यावत् ऐसी सूली पर भेदी जाने वाली एक स्त्री को देखा और देखकर उनके मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि यह नरकतुल्य वेदना भोग रही है। यावत् पूर्ववत् भिक्षा लेकर नगर से नीकले और भगवान के पास आकर इस प्रकार निवेदन करने लगे कि – भदन्त ! यह स्त्री पूर्वभव में कौन थी ? हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप अन्तर्गत् भारतवर्ष में सुप्रतिष्ठ नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित व समृद्ध नगर था। वहाँ पर महासेन राजा थे। उसके अन्तःपुर में धारिणी आदि एक हजार रानियाँ थीं। महाराज महासेन का पुत्र और महारानी धारिणी का आत्मज सिंहसेन नामक राजकुमार था जो अन्यून पाँचों इन्द्रियों वाला व युवराजपद से अलंकृत था। तदनन्तर सिंहसेन राजकुमार के माता – पिता ने एक बार किस समय पाँचसौ सुविशाल प्रासादावतंसक बनवाए। किसी अन्य समय उन्होंने सिंहसेन राजकुमार का श्यामा आदि ५०० राजकन्याओं के साथ एक दिनमें विवाह कर दिया। पाँच सौ – पाँच सौ वस्तुओं का प्रीतिदान दिया। राजकुमार सिंहसेन श्यामाप्रमुख ५०० राजकन्याओं के साथ प्रासादोंमें रमण करता हुआ सानन्द समय व्यतीत करने लगा तत्पश्चात् किसी समय राजा महासेन कालधर्म को प्राप्त हुए। राजकुमार सिंहसेन ने निःसरण किया। तत्पश्चात् वह राजा बन गया। तदनन्तर महाराजा सिंहसेन श्यामादेवी में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित व अध्युपपन्न होकर अन्य देवियों का न आदर करता है और न उनका ध्यान ही रखता है। इसके विपरीत उनका अनादर व विस्मरण करके सानंद समय यापन कर रहा है। तत्पश्चात् उन एक कम पाँच सौ देवियों की एक कम पाँच सौ माताओं को जब इस वृत्तान्त का पता लगा कि – ‘राजा, सिंहसेन श्यामादेवी में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित व अध्युपपन्न होकर हमारी कन्याओं का न तो आदर करता और न ध्यान ही रखता है, अपितु उनका अनादर व विस्मरण करता है; तब उन्होंने मिलकर निश्चय किया कि हमारे लिये यही उचित है कि हम श्यामादेवी को अग्नि के प्रयोग से, विष के प्रयोग से अथवा शस्त्र के प्रयोग से जीवन रहित कर डालें। इस तरह विचार करने के अनंतर अन्तर, छिद्र की प्रतीक्षा करती हुई समय बिताने लगीं। इधर श्यामादेवी को भी इस षड्यन्त्र का पता लग गया। जब उसे यह वृत्तान्त विदित हुआ तब वह इस प्रकार विचारने लगी – मेरी एक कम पाँच सौ सपत्नीयों की एक कम पाँच सौ माताएं – ‘महाराजा सिंहसेन श्यामामें अत्यन्त आसक्त होकर हमारी पुत्रियों का आदर नहीं करते, यह जानकर एकत्रित हुई और ‘अग्नि, शस्त्र या विष के प्रयोग से श्यामा के जीवन का अन्त कर देना ही हमारे लिए श्रेष्ठ है’ ऐसा विचार कर, वे अवसर की खोज में है। जब ऐसा है तो न जाने वे किस कुमौत से मुझे मारें ? ऐसा विचार कर वह श्यामा भीत, त्रस्त, उद्विग्न व भयभीत हो उठी और जहाँ कोपभवन था वहाँ आई। आकर मानसिक संकल्पों के विफल रहने से मनमें निराश होकर आर्त्त ध्यान करने लगी। तदनन्तर सिंहसेनराजा इस वृत्तान्त से अवगत हुआ और जहाँ कोपगृह था और जहाँ श्यामादेवी थी वहाँ पर आया। जिसके मानसिक संकल्प विफल हो गए हैं, जो निराश व चिन्तित हो रही है, ऐसी निस्तेज श्यामादेवी को देखकर कहा – हे देवानुप्रिये ! तू क्यों इस तरह अपहृतमनःसंकल्पा होकर चिन्तित हो रही है ? सिंहसेन राजा के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर दूध के उफान के समान क्रुद्ध हुई अर्थात् क्रोधयुक्त प्रबल वचनों से सिंह राजा के प्रति इस प्रकार बोली – हे स्वामिन् ! मेरी एक कम पाँच सौ सपत्नियों की एक कम पाँच सौ मातें इस वृत्तान्त को जानकर इकट्ठी होकर एक दूसरे को इस प्रकार कहने लगीं – महाराज सिंहसेन श्यामादेवी में अत्यन्त आसक्त, गृद्ध, ग्रथित व अध्युपपन्न हुए हमारी कन्याओं का आदर सत्कार नहीं करते हैं। उनका ध्यान भी नहीं रखते हैं; प्रत्युत उनका अनादर व विस्मरण करते हुए समय – यापन कर हे हैं; इसलिए हमारे लिये यही समुचित है कि अग्नि, विष या किसी शस्त्र के प्रयोग से श्यामा का अन्त कर डालें। तदनुसार वे मेरे अन्तर, छिद्र और विवर की प्रतीक्षा करती हुई अवसर देख रही हैं। न जाने मुझे किस कुमौत से मारे ! इस कारण भयाक्रान्त हुई मैं कोपभवन में आकर आर्त्तध्यान कर रही हूँ। तदनन्तर महाराजा सिंहसेन ने श्यामादेवी से कहा – हे देवानुप्रिये ! तू इस प्रकार अपहृत मन वाली होकर आर्तध्यान मत कर। निश्चय ही मैं ऐसा उपाय करूँगा कि तुम्हारे शरीर को कहीं से भी किसी प्रकार की आबाधा तथा प्रबाधा न होने पाएगी। इस प्रकार श्यामा देवी को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर वचनों से आश्वासन देता है और वहाँ से नीकल जाता है। नीकलकर कौटुम्बिक – अनुचर पुरषों को बुलाता है और कहता है – तुम लोग जाओ और जाकर सुप्रतिष्ठित नगर से बाहर पश्चिम दिशा के विभाग में एक बड़ी कूटाकारशाला बनाओ जो सैकड़ों स्तम्भों से युक्त हो, प्रासादीय, अभिरूप, प्रतिरूप तथा दर्शनीय हो – वे कौटुम्बिक पुरुष दोनों हाथ जोड़कर सिर पर दसों नख वाली अञ्जलि रख कर इस राजाज्ञा को शिरोधार्य करते हुए चले जाते हैं। जाकर सुप्रतिष्ठित नगर के बाहर पश्चिम दिक् विभाग में एक महती व अनेक स्तम्भों वाली प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप कूटा – कारशाला तैयार करवा कर महाराज सिंहसेन की आज्ञा प्रत्यर्पण करते हैं – तदनन्तर राजा सिंहसेन किसी समय एक कम पाँच सौ देवियों की एक कम पाँच सौ माताओं को आमन्त्रित करता है। सिंहसेन राजा का आमंत्रण पाकर वे एक कम पाँच सौ देवियों की एक कम पाँच सौ माताएं सर्वप्रकार से वस्त्रों एवं आभूषणों से सुसज्जित हो अपने – अपने वैभव के अनुसार सुप्रतिष्ठित नगर में राजा सिंहसेन जहाँ थे, वहाँ आ जाती हैं। सिंहसेन राजा भी उन एक कम पाँच सौ देवियों की एक कम पाँच सौ माताओं को निवास के लिए कूटाकार – शाला में स्थान दे देता है। तदनन्तर सिंहसेना राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा – ‘देवानुप्रियो ! तुम जाओ और विपुल अशनादिक ले जाओ तथा अनेकविध पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों, मालाओं और अलंकारों को कूटाकार शाला में पहुँचाओ। कौटुम्बिक पुरुष भी राजा की आज्ञा के अनुसार सभी सामग्री पहुँचा देते हैं। तदनन्तर सर्व – प्रकार के अलंकारों से विभूषित उन एक कम पाँच सौ देवियों की एक कम पाँच सौ माताओं ने उस विपुल अशनादिक और सुरादिक सामग्री का आस्वादन किया और गान्धर्व तथा नाटक नर्तकों से उपगीय – मान – प्रशस्यमान होती हुई सानन्द विचरने लगीं। तत्पश्चात् सिंहसेन राजा अर्द्धरात्रि के समय अनेक पुरुषों के साथ, उनसे घिरा हुआ, जहाँ कूटाकारशाला थी वहाँ पर आया। आकर उसने कूटाकारशाला के सभी दरवाजे बन्द करवा दिए। कूटाकारशाला को चारों तरफ से आग लगवा दी। तदनन्तर राजा सिंहसेन के द्वारा आदीप्त की गई, जलाई गई, त्राण व शरण से रहित हुई एक कम पाँच सौ रानियों की एक कम पाँच सौ माताएं रुदन, क्रन्दन व विलाप करती हुई कालधर्म को प्राप्त हो गई। इस प्रकार के कर्म करने वाला, ऐसी विद्या – बुद्धि वाला, ऐसा आचरण करने वाला सिंहसेन राजा अत्यधिक पाप – कर्मों का उपार्जन करके ३४ – सौ वर्ष की परम आयु भोगकर काल करके उत्कृष्ट २२ सागरोपम की स्थिति वाली छट्ठी नरकभूमि में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। वही सिंहसेन राजा का जीव स्थिति के समाप्त होने पर वहाँ से नीकलकर इसी रोहीतक नगर में दत्त सार्थवाह की कृष्णश्री भार्या की कुक्षि में बालिका के रूप में उत्पन्न हुआ। तब उस कृष्णश्री भार्या ने नौ मास परिपूर्ण होने पर एक कन्या को जन्म दिया। वह अन्यन्त कोमल हाथ – पैरों वाली तथा अत्यन्त रूपवती थी। तत्पश्चात् उस कन्या के मातापिता न बारहवे दिन बहुत – सा अशनादिक तैयार करवाया यावत् मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धीजन तथा परिजनों को निमन्त्रित करके एवं भोजनादि से निवृत्त हो लेने पर कन्या का नामकरण संस्कार करते हुए कहा – हमारी इस कन्या का नाम देवदत्ता रखा जाता है। तदनन्तर वह देवदत्ता पाँच धायमाताओं के संरक्षण में वृद्धि को प्राप्त होने लगी। वह देवदत्ता बाल्यावस्था से मुक्त होकर यावत् यौवन, रूप व लावण्य से अत्यन्त उत्तम व उत्कृष्ट शरीर वाली हो गई। एक बार वह देवदत्ता स्नान करके यावत् समस्त आभूषणों से विभूषित होकर बहुत सी कुब्जा आदि दासियों के साथ अपने मकान के ऊपर सोने की गेंद के साथ क्रीड़ा करती हुई विहरण कर रही थी। इधर स्नानादि से निवृत्त यावत् सर्वालङ्कारविभूषित राजा वैश्रमणदत्त अश्व पर आरोहण करता है और बहुत से पुरुषों के साथ परिवृत अश्वक्रीड़ा के लिए जाता हुआ दत्त गाथापति के घर से कुछ पास से नीकलता है। तदनन्तर वह वैश्रमणदत्त राजा देवदत्ता कन्या को ऊपर सोने की गेंद से खेलती हुई देखता है और देखकर देवदत्ता दारिका के रूप, यौवन व लावण्य से विस्मय को प्राप्त होता है। कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहता है – ‘हे देवानुप्रियो ! यह बालिका किसकी है ? और इसका क्या नाम है ?’ तब वे कौटुम्बिक पुरुष हाथ जोड़कर यावत् कहने लगे – ‘स्वामिन् ! यह कन्या दत्त गाथापति की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा है जो रूप, यौवन तथा लावण्य – कान्ति से उत्तम तथा उत्कृष्ट शरीर वाली है। तदनन्तर राजा वैश्रमणदत्त अश्ववाहनिका से वापिस आकर अपने आभ्यन्तर स्थानीय को बुलाकर उनको इस प्रकार कहता है – देवानुप्रियो ! तुम जाओ और जाकर सार्थवाह दत्त की पुत्री और कृष्णश्री भार्या की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्या की युवराज पुष्पनन्दी के लिए भार्या रूप में माँग करो। यदि वह राज्य के बदले भी प्राप्त की जा सके तो भी प्राप्त करने के योग्य है। तदनन्तर वे अभ्यंतर – स्थानीय पुरुष राजा वैश्रमण की इस आज्ञा को सम्मानपूर्वक स्वीकार कर, हर्ष को प्राप्त हो यावत् स्नानादि क्रिया करके तथा राजसभा में प्रवेश करने योग्य उत्तम वस्त्र पहनकर जहाँ दत्त सार्थवाह का घर था, वहाँ आए। दत्त सार्थवाह भी उन्हें आता देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ आसन से उठकर उनके सन्मान के लिए सात – आठ कदम उनके सामने अगवानी करने गया। उनका स्वागत कर आसन पर बैठने की प्रार्थना की। तदनन्तर आश्वस्त, विश्वस्त, को उपलब्ध हुए एवं सुखपूर्वक उत्तम आसनों पर अवस्थित हुए। इन आने वाले राजपुरुषों से दत्त ने इस प्रकार कहा – देवानुप्रियो ! आज्ञा दीजिए, आपके शुभागमन का प्रयोजन क्या है ? दत्त सार्थवाह के इस तरह पूछने पर आगन्तुक राजपुरुषों ने कहा – ‘हे देवानुप्रिय ! हम आपकी पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्या की युवराज पुष्पनन्दी के लिए भार्या रूप से मंगनी करने आए हैं। यदि हमारी माँग आपको युक्त, अवसरप्राप्त, श्लाघनीय लगे तथा वरवधू का यह संयोग अनुरूप जान पड़ता हो तो देवदत्ता को युवराज पुष्पनन्दी के लिए दीजिए और बतलाइए कि इसके लिए आपको क्या शुल्क – उपहार दिया जाय ? उन आभ्यन्तरस्थानीय पुरुषों के इस कथन को सूनकर दत्त बोले – ‘देवानुप्रियो ! मेरे लिए यही बड़ा शुल्क है कि महाराज वैश्रमणदत्त मेरी इस बालिका को ग्रहण कर मुझे अनुगृहीत कर रहे हैं।’ तदनन्तर दत्त गाथापति ने उन अन्तरङ्ग राजपुरुषों का पुष्प, गंध, माला तथा अलङ्कारादि से यथोचित सत्कार – सम्मान किया और उन्हें विसर्जित किया। वे आभ्यन्तर स्थानीय पुरुष जहाँ वैश्रमणदत्त राजा था वहाँ आए और उन्होंने वैश्रमण राजा को उक्त सारा वृत्तान्त निवेदित किया। तदनन्तर किसी अन्य समय दत्त गाथापति शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र व मुहूर्त्त में विपुल अशनादिक सामग्री तैयार करवाता है और मित्र, ज्ञाति, निजक स्वजन सम्बन्धी तथा परिजनों को आमन्त्रित कर यावत् स्नानादि करके दुष्ट स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक कार्य करके सुखप्रद आसन पर स्थित हो उस विपुल अशनादिक का मित्र, ज्ञाति, स्वजन, सम्बन्धी व परिजनों के साथ आस्वादन, विस्वादन करने के अनन्तर उचित स्थान पर बैठ आचान्त, चोक्ष, अतः परम शुचिभूत होकर मित्र, ज्ञाति, निजक का विपुल पुष्प, माला, गन्ध, वस्त्र, अलङ्कार आदि से सत्कार करता है, सन्मान करता है। देवदत्ता – नामक अपनी पुत्री को स्नान करवा कर यावत् शारीरिक आभूषणों द्वारा उसके शरीर को विभूषित कर पुरुषसहस्र – वाहिनी में बिठाता है। बहुत से मित्र व ज्ञातिजनों आदि से घिरा हुआ सर्व प्रकार के ठाठ – ऋद्धि से तथा वादित्र – ध्वनि के साथ रोहीतक नगरके बीचों बीच होकर जहाँ वैश्रमण राजा का घर था और जहाँ वैश्रमण राजा था, वहाँ आकर हाथ जोड़कर उसे बधाया। वैश्रमण राजा को देवदत्ता कन्या अर्पण कर दी। तब राजा वैश्रमण लाई हुई उस देवदत्ता दारिका को देखकर बड़े हर्षित हुए और विपुल अशनादिक तैयार कराया और मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी व परिजनों को आमंत्रित कर उन्हें भोजन कराया। उनका पुष्प, वस्त्र, गंध, माला व अलङ्कार आदि से सत्कार – सन्मान किया। तदनन्तर कुमार पुष्पनन्दी और कुमारी देवदत्ता को पट्टक – पर बैठाकर श्वेत व पीत अर्थात् चाँदी सोने के कलशों से स्नान कराते हैं। सुन्दर वेशभूषा से सुसज्जित करते हैं। अग्निहोम कराते हैं। बाद में कुमार पुष्पनन्दी को कुमारी देवदत्ता का पाणिग्रहण कराते हैं। तदनन्तर वह वैश्रमणदत्त नरेश पुष्पनन्दी व देवदत्ता का सम्पूर्ण ऋद्धि यावत् महान वाद्य – ध्वनि और ऋद्धिसमुदाय व सन्मान – समुदाय के साथ विवाह रचाते हैं। तदनन्तर देवदत्ता के माता – पिता तथा उनके साथ आने वाले अन्य अनेक मित्रजनों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धीजनों और परिजनों का भी विपुल अशनादिक तथा वस्त्र, गन्ध, माला और अलङ्कारादि से सत्कार व सन्मान करने के बाद उन्हें बिदा करते हैं। राजकुमार पुष्पनन्दी श्रेष्ठिपुत्री देवदत्ता के साथ उत्तम प्रासाद में विविध प्रकार के वाद्यों और जिनमें मृदङ्ग बज रहे हैं, ऐसे ३२ प्रकार के नाटकों द्वारा उपगीयमान – प्रशंसित होते सानंद मनुष्य संबंधी शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंधरूप भोग भोगते हुए समय बिताने लगे। कुछ समय बाद महाराजा वैश्रमण कालधर्म को प्राप्त हो गए। उनकी मृत्यु पर शोकग्रस्त पुष्पनन्दी ने बड़े समारोह के साथ उनका निस्सरण किया यावत् मृतक – कर्म करके राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए यावत् युवराज से राजा बन गए। पुष्पनन्दी राजा अपनी माता श्रीदेवी का परम भक्त था। प्रतिदिन माता श्रीदेवी जहाँ भी हों वहाँ आकर श्रीदेवी के चरणों में प्रणाम करके शतपाक और सहस्रपाक तैलों की मालिश करवाता था। अस्थि को सुख देने वाले, माँस को सुखकारी, त्वचा की सुखप्रद और दोनों को सुखकारी ऐसी चार प्रकार की अंगमर्दन क्रिया से सुखशान्ति पहुँचाता था। सुगन्धित गन्धवर्तक से उद्वर्तन करवाता पश्चात् उष्ण, शीत और सुगन्धित जल से स्नान करवाता, फिर विपुल अशनादि चार प्रकार का भोजन कराता। इस प्रकार श्रीदेवी के नहा लेने यावत् अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक कार्य करके भोजन कर लेने के अनन्तर अपने स्थान पर आ चूकने पर और वहाँ पर कुल्ला तथा मुखगत लेप को दूर कर परम शुद्ध हो सुखासन पर बैठ जाने के बाद ही पुष्पनन्दी स्नान करता, भोजन करता था। तथा फिर मनुष्य सम्बन्धी उदार भोगों का उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करता था। तदनन्तर किसी समय मध्यरात्रि में कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ताओं में उलझी हुई देवदत्ता के हृदय में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि ‘इस प्रकार निश्चय ही पुष्पनन्दी राजा अपनी माता श्रीदेवी का ‘यह पूज्या है’ इस बुद्धि से परम भक्त बना हुआ है। इस अवक्षेप के कारण मैं पुष्पनन्दी राजा के साथ पर्याप्त रूप से मनुष्य सम्बन्धी विषयभोगों का उपभोग नहीं कर पाती हूँ। इसलिए अब मुझे यही करना योग्य है कि अग्नि, शस्त्र, विष या मन्त्र के प्रयोग से श्रीदेवी को जीवन से व्यारोपित करके महाराज पुष्पनन्दी के साथ उदार – प्रधान मनुष्य सम्बन्धी विषय – भोगों का यथेष्ट उपभोग करूँ।’ ऐसा विचार कर वह श्रीदेवी को मारने के लिए अन्तर, छिद्र और विवर की प्रतीक्षा करती हुई विहरण करने लगी। तदनन्तर किसी समय स्नान की हुई श्रीदेवी एकान्त में अपनी शय्या पर सुखपूर्वक सो रही थी। इधर लब्धावकाश देवदत्ता भी जहाँ श्रीदेवी थी वहाँ पर आती है। स्नान व एकान्त में शय्या पर सुखपूर्वक सोई हुई श्रीदेवी को देखकर दिशा का अवलोकन करती है। उसके बाद जहाँ भक्तगृह था वहाँ पर जाकर लोहे के डंडे को ग्रहण करती है। ग्रहण कर लोहे के उस डंडे को तपाती है, तपाकर अग्नि के समान देदीप्यमान या खिले हुए किंशुक के फूल के समान लाल हुए उस लोहे के दण्ड को संडासी से पकड़कर जहाँ श्रीदेवी थी वहाँ आकर श्रीदेवी के गुदास्थान में घुसेड़ देती है। लोहदंड के घुसेड़ने से बड़े जोर के शब्दों से चिल्लाती हुई श्रीदेवी कालधर्म से संयुक्त हो गई – मृत्यु को प्राप्त हो गई। तदनन्तर उस श्रीदेवी की दासियाँ भयानक चीत्कार शब्दों को सूनकर अवधारण कर जहाँ श्रीदेवी थी वहाँ आती हैं और वहाँ से देवदत्ता देवी को नीकलती हुई देखती हैं। जिधर श्रीदेवी सोई हुई थी वहाँ आकर श्रीदेवी को प्राणरहित, चेष्टारहित देखती हैं। देखकर – ‘हा ! हा ! बड़ा अनर्थ हुआ’ इन प्रकार कहकर रुदन, आक्रन्दन तथा विलाप करती हुई, महाराजा पुष्पनन्दी से इस प्रकार निवेदन करती हैं – ‘निश्चय ही हे स्वामिन् ! श्रीदेवी को देवदत्ता देवी ने अकाल में ही जीवन से पृथक् कर दिया – तदनन्तर पुष्पनन्दी राजा उन दासियों से इस वृत्तान्त को सून समझ कर महान् मातृशोक से आक्रान्त होकर परशु से काटे हुए चम्पक वृक्ष की भाँति धड़ाम से पृथ्वी – तल पर सर्व अङ्गों से गिर पड़ा। तदनन्तर एक मुहूर्त्त के बाद वह पुष्पनन्दी राजा होश में आया। अनेक राजा – नरेश, ईश्वर, यावत् सार्थवाह के नायकों तथा मित्रों यावत् परिजनों के साथ रुदन, आक्रन्दन व विलाप करता हुआ श्रीदेवी का महान ऋद्धि तथा सत्कार के साथ निष्कासन कृत्य करता है। तत्पश्चात् क्रोध के आवेश में रुष्ट, कुपित, अतीव क्रोधाविष्ट तथा लाल – पीला होता हुआ देवदत्ता देवी को राजपुरुषों से पकड़वाता है। पकड़वाकर इस पूर्वोक्त विधान से ‘यह वध्या है’ ऐसी राजपुरुषों को आज्ञा देता है। इस प्रकार निश्चय ही, हे गौतम ! देवदत्ता देवी अपने पूर्वकृत् अशुभ पापकर्मों का फल पा रही हैं। अहो भगवन् ! देवदत्ता देवी यहाँ से काल मास में काल करके कहाँ जाएगी ? कहाँ उत्पन्न होगी ? हे गौतम ! देवदत्ता देवी ८० वर्ष की परम आयु भोग कर काल मास में काल करके इस रत्नप्रभा नामक नरक में नारक पर्याय में उत्पन्न होगी। शेष संसारभ्रमण पूर्ववत् करती हुई यावत् वनस्पति अन्तर्गत निम्ब आदि कटु – वृक्षों तथा कटुदुग्ध वाले अकादि पौधों में लाखों बार उत्पन्न होगी। तदनन्तर वहाँ से नीकलकर गङ्गपुर नगर में हंस रूप से उत्पन्न होगी। वहाँ शाकुनिकों द्वारा वध किए जान पर वह गङ्गपुर में ही श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूपमें जन्म लेगी। वहाँ उसका जीव सम्यक्त्व को प्राप्त कर सौधर्म नामक प्रथम देवलोकमें उत्पन्न होगा। वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्रमें उत्पन्न होगा। वहाँ चारित्र ग्रहण कर यथावत् पालन कर सिद्धि प्राप्त करेगा।