उस काल तथा उस समय में शौरिकपुर नाम का नगर था। वहाँ ‘शौरिकावतंसक’ नाम का उद्यान था। शौरिक यक्ष था। शौरिकदत्त राजा था। उस शौरिकपुर नगर के बाहर ईशान को में एक मच्छीमारों का पाटक था। वहाँ समुद्रदत्त नामक मच्छीमार था। वह महा – अधर्मी यावत्‌ दुष्प्रत्या – नन्द था। उसकी समुद्रदत्ता नामकी अन्यून व निर्दोष पाँचों इन्द्रियों परिपूर्ण शरीर वाली भार्या थी। उस समुद्रदत्त का पुत्र और समुद्रदत्ता भार्या का आत्मज शौरिकदत्त नामक सर्वाङ्गसम्पन्न सुन्दर बालक था। उस काल व उस समयमें भगवान महावीर पधारे यावत्‌ परीषद्‌ व राजा धर्मकथा सूनकर वापिस चले गए उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गौतमस्वामी यावत्‌ षष्ठभक्त के पारणे के अवसर पर शौरिकपुर नगरमें उच्च, नीच तथा मध्यममें भ्रमण करते हुए यथेष्ठ आहार लेकर शौरिकपुर नगर से बाहर नीकलते हैं। उस मच्छीमार मुहल्ले के पास से जाते हुए उन्होंने विशाल जनसमुदाय के बीच एक सूखे, बुभुक्षित, मांसरहित व अतिकृश होने के कारण जिसके चमड़े हड्डियों से चिपटे हुए हैं, उठते – बैठते वक्त जिसकी हड्डियाँ कड़कड़ कर रही हैं, जो नीला वस्त्र पहने हुए हैं एवं गले में मत्स्य – कण्टक लगा होने के कारण कष्टात्मक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण आक्रन्दन कर रहा है, ऐसे पुरुष को देखा। वह खून के कुल्लों, पीव के कुल्लों और कीड़ों के कुल्लों का बारंबार वमन कर रहा था। उसे देख कर गौतमस्वामी के मन में संकल्प उत्पन्न हुआ – अहो! यह पुरुष पूर्वकृत्‌ यावत्‌ अशुभकर्मों के फलस्वरूप नरकतुल्य वेदना अनुभवता हुआ समय बिता रहा है! इस तरह विचार कर श्रमण भगवान महावीर पास पहुँचे यावत्‌ भगवान से उसका पूर्वभव पृच्छा। यावत्‌ भगवानने कहा – हे गौतम ! उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप अन्तर्गत भारतवर्ष में नन्दिपुर नगर था। वहाँ मित्र राजा था। उस मित्रराजा के श्रीयक नामक रसोईया था। महाअधर्मी यावत्‌ दुष्प्रत्यानन्द था। उसके पैसे और भोजनादि रूप से वेतन ग्रहण करनेवाले अनेक मच्छीमार, वागुरिक, शाकुनिक, नौकर पुरुष थे; जो श्लक्ष्ण – मत्स्यों यावत्‌ पताकातिपताकों तथा अजों यावत्‌ महिषों एवं तित्तिरों यावत्‌ मयूरों का वध करके श्रीद रसोईये को देते थे। अन्य बहुत से तित्तिर यावत्‌ मयूर आदि पक्षी उसके यहाँ पिंजरों में बन्द किये हुए रहते थे। श्रीद रसोईया के अन्य अनेक वेतन लेकर काम करनेवाले पुरुष अनेक जीते हुए तित्तरों यावत्‌ मयूरों को पक्ष रहित करके लाकर दिया करते थे। तदनन्तर वह श्रीद नामक रसोईया अनेक जलचर, स्थलचर व खेचर जीवों के मांसों को लेकर सूक्ष्म, वृत्त, दीर्घ, तथा ह्रस्व खण्ड किया करता था। उन खण्डों में से कईं एक को बर्फ से पकाता था, कईं एक को अलग रख देता जिससे वे स्वतः पक जाते थे, कईं एक को धूप की गर्मी से व कईं एक को हवा के द्वारा पकाता था। कईं एक को कृष्ण वर्ण वाले तो कईं एक को हिंगुल वर्ण वाले किया करता था। वह उन खण्डों को तक्र, आमलक, द्राक्षारस, कपित्थ तथा अनार के रस से भी संस्कारित करता था एवं मत्स्यरसों से भी भावित किया करता था। तदनन्तर उन मांसखण्डों में से कईं एक को तेल से तलता, कईं एक को आग पर भूनता तथा कईं एक को सूल में पिरोकर पकाता था। इसी प्रकार मत्स्यमांसों, मृगमांसों, तित्तिरमांसों, यावत्‌ मयूरमांसों के रसों को तथा अन्य बहुत से हरे शाकों को तैयार करता था, तैयार करके राजा मित्र के भोजनमंडप में ले जाकर भोजन के समय उन्हें प्रस्तुत करता था। श्रीद रसोईया स्वयं भी अनेक जलचर, स्थलचर एवं खेचर जीवों के मांसों, रसों व हरे शाकों के साथ, जो कि शूलपक्व होते, तले हुए होते, भूने हुए होते थे, छह प्रकार की सुरा आदि का आस्वादनादि करता हुआ काल यापन कर रहा था। तदनन्तर इन्हीं कर्मों को करने वाला, इन्हीं कर्मों में प्रधानता रखने वाला, इन्हीं का विज्ञान रखने वाला, तथा इन्हीं पापों को सर्वोत्तम आचरण मानने वाला वह श्रीद रसोईया अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन कर ३३०० वर्ष की परम आयु को भोग कर कालमास में काल करके छट्ठे नरक में उत्पन्न हुआ। उस समय वह समुद्रदत्ता भार्या – मृतवत्सा थी। उसके बालक जन्म लेने के साथ ही मर जाया करते थे। उसने गंगदत्ता की ही तरह विचार किया, पति की आज्ञा लेकर, मान्यता मनाई और गर्भवती हुई। दोहद की पूर्ति पर समुद्रदत्त बालक को जन्म दिया। ‘शौरक यक्ष की मनौती के कारण हमें यह बालक उपलब्ध हुआ है’ ऐसा कहकर उसका नाम ‘शौरिकदत्त’ रखा। तदनन्तर पाँच धायमाताओं से परिगृहीत, बाल्यावस्था को त्यागकर विज्ञान की परिपक्व अवस्था से सम्पन्न वह शौरिकदत्त युवावस्था को प्राप्त हुआ। तदनन्तर समुद्रदत्त कालधर्म को प्राप्त हो गया। रुदन, आक्रन्दन व विलाप करते हुए शौरिकदत्त बालक ने अनेक मित्र – ज्ञाति – स्वजन परिजनों के साथ समुद्रदत्त का निस्सरण किया, दाहकर्म व अन्य लौकिक क्रियाएं की। तत्पश्चात्‌ किसी समय वह स्वयं ही मच्छीमारों का मुखिया बन कर रहने लगा। अब वह मच्छीमार हो गया जो महा अधर्मी यावत्‌ दुष्प्रत्यानन्द था। तदनन्तर शौरिकदत्त मच्छीमारने पैसे और भोजनादि का वेतन लेकर काम करनेवाले अनेक वेतनभोगी रखे, जो छोटी नौकाओं द्वारा यमुना महानदी में प्रवेश करते, ह्रदगलन, ह्रदमलन, ह्रदमर्दन, ह्रदमन्थन, ह्रदवहन, ह्रदप्रवहन से, तथा प्रपंचुल, प्रपंपुल, मत्स्यपुच्छ, जृम्भा, त्रिसरा, भिसरा, विसरा, द्विसरा, हिल्लिरि, झिल्लिरि, लल्लिरि, जाल, गल, कूटपाश, वल्कबन्ध, सूत्रबन्ध और बालबन्ध साधनों के द्वारा कोमल मत्स्यों यावत्‌ पताका – तिपताक मत्स्य – विशेषों को पकड़ते, उनसे नौकाएं भरते हैं। नदी के किनारे पर लाते हैं, बाहर एक स्थल पर ढेर लगा देते हैं। तत्पश्चात्‌ उनको वहाँ धूप में सूखने के लिए रख देते हैं। इसी प्रकार उसके अन्य वेतनभोगी पुरुष धूप से सूखे हुए उन मत्स्यों के मांसों को शूलाप्रोत कर पकाते, तलते और भूनते तथा उन्हें राजमार्गों में विक्रयार्थ रखकर आजीविका समय व्यतीत कर रहे थे। शौरिकदत्त स्वयं भी उन शूलाप्रोत किये हुए, भूने हुए और तले हुए मत्स्यमांसों के साथ विविध प्रकार की सुरा सीधु आदि मदिराओं का सेवन करता हुआ जीवन यापन कर रहा था। तदनन्तर किसी अन्य समय शूल द्वारा पकाये गये, तले गए व भूने गए मत्स्यमांसों का आहार करते समय उस शौरिकदत्त मच्छीमार के गले में मच्छी का काँटा फँस गया। इसके कारण वह महती असाध्य वेदना का अनुभव करने लगा। अत्यन्त दुःखी हुए शौरिक ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा – ‘हे देवानुप्रियो ! शौरिकपुर नगर के त्रिकोण मार्गों व यावत्‌ सामान्य मार्गों पर जाकर ऊंचे शब्दों से इस प्रकार घोषणा करो कि – हे देवानुप्रियो ! शौरिकदत्त के गले में मत्स्य का काँटा फँस गया है, यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र जानकार या जानकार का पुत्र, चिकित्सक या चिकित्सक – पुत्र उस मत्स्य – कंटक को नीकाल देगा तो, शौरिकदत्त उसे बहुत सा धन देगा। कौटुम्बिक पुरुषों – अनुचरों ने उसकी आज्ञानुसार सारे नगर में उद्‌घोषणा कर दी। उसके बाद बहुत से वैद्य, वैद्यपुत्र आदि उपर्युक्त उद्‌घोषणा को सूनकर शौरिकदत्त का जहाँ घर था और शौरिक मच्छीमार जहाँ था वहाँ पर आए, आकर बहुत सी औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी बुद्धियों से सम्यक्‌ परिणमन करते वमनो, छर्दनों अवपीड़नों कवलग्राहों शल्योद्धारों विशल्य – करणों आदि उपचारों से शौरिकदत्त के गले के काँटों को नीकालने का तथा पीव को बन्द करने का बहुत प्रयत्न करते हैं परन्तु उसमें वे सफल न हो सके। तब श्रान्त, तान्त, परितान्त होकर वापिस अपने अपने स्थान पर चले गये। इस तरह वैद्यों के इलाज से निराश शौरिकदत्त उस महती वेदना को भोगता हुआ सूखकर यावत्‌ अस्थिपिञ्जर हो गया। वह दुःख पूर्वक समय बीता रहा है। हे गौतम ! वह शौरिकदत्त अपने पूर्वकृत्‌ अत्यन्त अशुभ कर्मों का फल भोग रहा है। अहो भगवन्‌ ! शौरिकदत्त मच्छीमार यहाँ से कालमास में काल करके कहाँ जाएगा ? कहाँ उत्पन्न होगा ? हे गौतम ७० वर्ष की परम आयु को भोगकर कालमास में काल करके रत्नप्रभा नरक में उत्पन्न होगा। उसका अवशिष्ट संसार – भ्रमण पूर्ववत्‌ ही समझना यावत्‌ पृथ्वीकाय आदि में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहाँ से नीकलकर हस्तिनापुर में मत्स्य होगा। वहाँ मच्छीमारों के द्वारा वध को प्राप्त होकर वहीं हस्तिनापुर में एक श्रेष्ठिकुल में जन्म लेगा। वहाँ सम्यक्त्व की उसे प्राप्ति होगी। वहाँ से मरकर सौधर्म देवलोक में देव होगा। वहाँ से चय करके महा – विदेह क्षेत्र में जन्मेगा, चारित्र ग्रहण कर उसके सम्यक्‌ आराधन से सिद्ध पद को प्राप्त करेगा।