उस काल तथा उस समय में मथुरा नगरी थी। वहाँ भण्डीर नाम का उद्यान था। सुदर्शनयक्ष का आयतन था। श्रीदाम राजा था, बन्धुश्री रानी थी। उनका सर्वाङ्ग – सम्पन्न युवराज पद से अलंकृत नन्दिवर्द्धन नामका सर्वाङ्गसुन्दर पुत्र था। श्रीदाम नरेश का सुबन्धु मन्त्री था, जो साम, दण्ड, भेद – उपप्रदान में कुशल था – उस मन्त्री के बहुमित्रापुत्र नामक सर्वाङ्गसम्पन्न व रूपवान्‌ बालक था। श्रीदाम नरेश का, चित्र नामक अलंकारिक था। वह राजा का अनेकविध, क्षीरकर्म करता हुआ राजा की आज्ञा से सर्वस्थानों, सर्व – भूमिकाओं तथा अन्तःपुर में भी, बेरोक – टोक, आवागमन करता रहता था। उस काल उस समय में मथुरा नगरी में भगवान महावीर पधारे। परिषद्‌ व राजा भगवान की धर्मदेशना श्रवण करने नगर से नीकले, यावत्‌ वापिस चले गए। उस समय भगवान महावीर के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी भिक्षा के लिए नगरी में पधारे। वहाँ उन्होंने हाथियों, घोड़ों और पुरुषों को देखा, तथा उन पुरुषों के मध्य में यावत्‌ बहुत से नर – नारियों के वृन्द से घिरे हुए एक पुरुष को देखा। राजपुरुष उन पुरुष को चत्वर – स्थान में अग्नि के समान – सन्तप्त लोहमय सिंहासन पर बैठाते हैं। बैठाकर कोई – कोई राजपुरुष उसको अग्नि के समान उष्ण लोहे से परिपूर्ण, कोई ताम्रपूर्ण, कोई त्रपु – रांगा से पूर्ण, कोई सीसा से पूर्ण, कोई कलकल से पूर्ण, अथवा कलकल शब्द करते हुए अत्युष्ण पानी से परिपूर्ण, क्षारयुक्त तैल से पूर्ण, अग्नि के समान तपे कलशों के द्वारा महान्‌ राज्याभिषेक से उसका अभिषेक करते हैं। तदनन्तर उसे, लोहमय संडासी से पकड़कर अग्नि के समान तपे हुए अयोमय, अर्द्धहार, यावत्‌ पहनाते हैं। यावत्‌ गौतमस्वामी उस पुरुष के पूर्वभव सम्बन्धी वृत्तान्त को भगवान से पूछते हैं। हे गौतम ! उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप अन्तर्गत भारतवर्ष में सिंहपुर नामक एक ऋद्ध, स्तिमित व समृद्ध नगर था। वहाँ सिंहस्थ राजा था। दुर्योधन नाम का कारागाररक्षक था, जो अधर्मी यावत्‌ कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। दुर्योधन नामक उस चारकपाल के निम्न चारकभाण्ड थे। अनेक प्रकार की लोहमय कुण्डियाँ थी, जिनमें से कई एक ताम्र से, कई एक त्रपुरांगा से, कई एक सीसे से, तो कितनीक चूर्णमिश्रित जल से भरी हुई थी और कितनीक क्षारयुक्त तैल से भरी थी, जो कि अग्नि पर रखी रहती थी। दुर्योधन चारकपाल के पास उष्ट्रिकाएं थे – उनमें से कईं एक अश्वमूत्र से, कितनेक हाथी के मूत्र से, कितनेक उष्ट्रमूत्र से, कितनेक गोमूत्र से, कितनेक महिषमूत्र से, कितनेक बकरे के मूत्र से तो कितनेक भेड़ों के मूत्र से भरे हुए थे। उस दुर्योधन चारकपाल के पास अनेक हस्तान्दुक, पादान्दुक, हडि और शृंखला तथा नीकर लगाए हुए रखे थे। तथा उस दुर्योधन चारकपाल के पास वेणुलताओं, बेंत के चाबुकों, चिंता – इमली के चाबुकों, कोमल चर्म के चाबुकों, सामान्य चर्मयुक्त चाबुकों, वल्कलरश्मियों के पुंज व नीकर रखे रहते थे। उस दुर्योधन चारकपाल के पास अनेक शिलाओं, लकड़ियों, मुद्‌गरों और कनंगरों के पुंज व नीकर रखे रहते थे। उस दुर्योधन चारकपाल के पास चमड़े की रस्सियों, सामान्य रस्सियों, वल्कल रज्जुओं, छाल से निर्मित रस्सियों, केशरज्जुओं और सूत्र रज्जुओं के पुञ्ज व नीकर रखे रहते थे। उस दुर्योधन चारकपाल के पास असिपत्र, करपत्र, क्षुरपत्र और कदम्बचीरपत्र के भी पुञ्ज व नीकर रखे रहते थे। उस दुर्योधन चारकपाल के पास लोहे की कीलों, बाँस की सलाइयों, चमड़े के पट्टों व अल्लपट्ट के पुञ्ज व नीकर रखे हुए थे। उस दुर्योधन चारकपाल के पास अनेक सूइयों, दम्भनों ऐसी सलाइयों तथा लघु मुद्‌गरों के पुञ्ज व नीकर रखे हुए थे। उस दुर्योधन के पास अनेक प्रकार के शस्त्र, पिप्पल, कुल्हाड़ों, नखच्छेदक एवं डाभ के अग्रभाग से तीक्ष्ण हथियारों के पुञ्ज व नीकर रखे हुए थे। तदनन्तर वह दुर्योधन चारपालक सिंहरथ राजा के अनेक चोर, परस्त्रीलम्पट, ग्रन्थिभेदक, राजा के अपकारी – दुश्मनों, ऋणधारक, बालघातकों, विश्वासघातियों, जुआरियों और धूर्त पुरुषों को राजपुरुषों के द्वारा पकड़वाकर ऊर्ध्वमुख गिराता है और गिराकर लोहे के दण्डे से मुख को खोलता है और खोलकर कितनेक को तप्त तांबा पिलाता है, कितनेक को रांगा, सीसक, चूर्णादिमिश्रित जल अथवा कलकल करता हुआ अत्यन्त उष्ण जल और क्षारयुक्त तैल पिलाता है तथा कितनों का इन्हीं से अभिषेक कराता है। कितनों को ऊर्ध्वमुख गिराकर उन्हें अश्वमूत्र हस्तिमूत्र यावत्‌ भेड़ों का मूत्र पिलाता है। कितनों को अधोमुख गिराकर छल छल शब्द पूर्वक वमन कराता है और कितनों को उसी के द्वारा पीड़ा देता है। कितनों को हथकड़ियों बेड़ियों से, हडिबन्धनों से व निगड बन्धनों से बद्ध करता है। कितनों के शरीर को सिकोड़ता व मरोड़ता है। कितनों को सांकलों से बाँधता है, तथा कितनों का हस्तछेदन यावत्‌ शस्त्रों से चीरता – फाड़ता है। कितनों को वेणुलताओं यावत्‌ वृक्षत्वचा के चाबुकों से पिटवाता है। कितनों को ऊर्ध्वमुख गिराकर उनकी छाती पर शिला व लक्कड़ रखवा कर उत्कम्पन कराता है, जिससे हड्डियाँ टूट जाएं। कितनों के चर्मरज्जुओं व सूत्ररज्जुओं से हाथों और पैरों को बँधवाता है, बंधवाकर कूए में उल्टा लटकवाता है, लटकाकर गोते खिलाता है। कितनों का असिपत्रों यावत्‌ कलम्बचीरपत्रों से छेदन कराता है और उस पर क्षारमिश्रित तैल से मर्दन कराता है। कितनों के मस्तकों, कण्ठमणियों, घंटियों, कोहनियों, जानुओं तथा गुल्फों – गिट्टों में लोहे की कीलों को तथा बाँस की शलाकाओं को ठुकवाता है तथा वृश्चिककण्टकों – बिच्छु के काँटों को शरीर में प्रविष्ट कराता है। कितनों के हाथ की अंगुलियों तथा पैर की अंगुलियों में मुद्‌गरों के द्वारा सूईयों तथा दम्भनों – को प्रविष्ट कराता है तथा भूमि को खुदवाता है। कितनों का शस्त्रों व नेहरनों से अङ्ग छिलवाता है और दर्भों, कुशाओं तथा आर्द्र चर्मों द्वारा बंधवाता है। तदनन्तर धूप में गिराकर उनके सूखने पर चड़ चड़ शब्दपूर्वक उनका उत्पाटन कराता है। इस तरह वह दुर्योधन चारकपालक इस प्रकार की निर्दयतापूर्ण प्रवृत्तियों को अपना कर्म, विज्ञान व सर्वोत्तम आचरण बनाए हुए अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके ३१ सौ वर्ष की परम आयु भोगकर कालमास में काल करके छठे नरक में उत्कृष्ट २२ सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप में उत्पन्न हुआ।

 

वह दुर्योधन चारकपाल का जीव छट्ठे नरक से नीकलकर इसी मथुरा नगरी में श्रीदाम राजा की बन्धुश्री देवी की कुक्षि में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। लगभग नौ मास परिपूर्ण होने पर बन्धुश्री ने बालक को जन्म दिया। तत्पश्चात्‌ बारहवे दिन माता – पिता ने नवजात बालक का नन्दिषेण नाम रखा। तदनन्तर पाँच धायमाताओं से सार – संभाल किया जाता हुआ नन्दिषेणकुमार वृद्धि को प्राप्त होने लगा। जब वह बाल्यावस्था को पार करके युवावस्था को प्राप्त हुआ तब युवराज पद से अलंकृत भी हो गया। राज्य और अन्तःपुर में अत्यन्त आसक्त नंदिषेणकुमार श्रीदाम राजा को मारकर स्वयं ही राज्यलक्ष्मी को भोगने एवं प्रजा का पालन करने की ईच्छा करने लगा। एतदर्थ कुमार नन्दिषेण श्रीदाम राजा के अनेक अन्तर, छिद्र अथवा विरह ऐसे अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। श्रीदाम नरेश के वध का अवसर प्राप्त न होने से कुमार नन्दिषेण ने किसी अन्य समय चित्र नामक अलंकारिक को बुलाकर कहा – देवानुप्रिय ! तुम श्रीदाम नरेश के सर्वस्थानों, सर्व भूमिकाओं तथा अन्तःपुर में स्वेच्छापूर्वक आ – जा सकते हो और श्रीदाम नरेश का बारबार क्षौरधर्म करते हो। अतः हे देवानुप्रिय ! यदि तुम श्रीदाम नरेश के क्षौरकर्म करने के अवसर पर उसकी गरदन में उस्तरा घुसेड़ दो तो मैं तुमको आधा राज्य दे दूँगा। तब तुम भी हमारे साथ उदार – प्रधान – कामभोगों का उपभोग करते हुए सानन्द समय व्यतीत कर सकोगे। चित्र नामक नाई ने कुमार नन्दिषेण के उक्त कथन को स्वीकार किया। परन्तु चित्र अलंकारिक के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि यदि किसी प्रकार से श्रीदाम नरेश को इस षड्‌यन्त्र का पता लग गया तो न मालूम वे मुझे किस कुमौत से मारेंगे ? इस विचार से वह भयभीत हो उठा और एकान्त में गुप्त रूप से जहाँ महाराजा श्रीदाम थे, वहाँ आया। दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अञ्जलि कर विनय पूर्वक इस प्रकार बोला – ‘स्वामिन्‌ ! निश्चय ही नन्दिषेण कुमार राज्य में आसक्त यावत्‌ अध्युपपन्न होकर आपका वध करके स्वयं ही राज्यलक्ष्मी भोगना चाह रहा है।’ तब श्रीदाम नरेश ने विचार किया और अत्यन्त क्रोध में आकर नन्दिषेण को अपने अनुचरों द्वारा पकड़वाकर इस पूर्वोक्त विधान से मार डालने का राजपुरुषों को आदेश दिया। ‘हे गौतम ! नन्दिषेण पुत्र इस प्रकार अपने किये अशुभ पापमय कर्मों के फल को भोग रहा है।’ भगवान्‌ ! नन्दिषेण कुमार मृत्यु के समय में यहाँ से काल करके कहाँ जाएगा। कहाँ उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! यह नन्दिषेणकुमार साठ वर्ष की परम आयु को भोगकर मरके इस रत्नप्रभा नामक नरक में उत्पन्न होगा। इसका शेष संसारभ्रमण मृगापुत्र के अध्ययन की तरह समझना यावत्‌ वह पृथ्वीकाय आदि सभी कार्यों में लाखों बार उत्पन्न होगा। पृथ्वीकाय से नीकलकर हस्तिनापुर नगर में मत्स्य के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ मच्छीमारों के द्वारा वध को प्राप्त होकर फिर वहीं हस्तिनापुर नगर में एक श्रेष्ठि – कुल में पुत्ररूप में उत्पन्न होगा। वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा। वहाँ पर चारित्र ग्रहण करेगा और उसका यथाविधि पालन कर उसके प्रभाव से सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, मुक्त होगा और परमनिर्वाण को प्राप्त कर सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त करेगा।