उस काल तथा उस समय में वाणिजग्राम नामक नगर था जो ऋद्धिस्तिमित – समृद्ध था। उस वाणिजग्राम के ईशानकोण में दूतिपलाश नामक उद्यान था। उस दूतिपलाश संज्ञक उद्यान में सुधर्मा नाम के यक्ष का यक्षायतन था। उस वाणिजग्राम नामक नगर में मित्र नामक राजा था। उस मित्र राजा की श्री नाम की पटरानी थी। उस वाणिजग्राम नगर में सम्पूर्ण पाँचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर वाली, यावत्‌ परम सुन्दरी, ७२ कलाओं में कुशल, गणिका के ६४ गुणों से युक्त, २६ प्रकार के विशेषों – विषयगुणों में रमण करने वाली, २१ प्रकार के रतिगुणों में प्रधान, कामशास्त्र प्रसिद्ध पुरुष के ३२ उपचारों में कुशल, सुप्त नव अंगों से जागृत, अठारह देशों की अठारह प्रकार की भाषाओं में प्रवीण, शृंगारप्रधान वेषयुक्त गीत, रति, गान्धर्व, नाट्य में कुशल मन को आकर्षित करने वाली, उत्तम गति – गमन से युक्त जिसके विलास भवन पर ऊंची ध्वजा फहरा रही थी, जिसको राजा की ओर से पारितोषिक रूप में छत्र, चामर – चँवर, बाल व्यजनिका कृपापूर्वक प्रदान किये गए थे और कर्णीरथ नामक रथविशेष से गमनागमन करने वाली थी; ऐसी काम – ध्वजा नाम की गणिका – वेश्या रहती थी जो हजारों गणिकाओं का स्वामित्व, नेतृत्व करती हुई समय व्यतीत कर रही थी।

 

उस वाणिजग्राम नगर में विजयमित्र नामक एक धनी सार्थवाह निवास करता था। उस विजयमित्र की अन्यून पञ्चेन्द्रिय शरीर से सम्पन्न सुभद्रा नाम की भार्या थी। उस विजयमित्र का पुत्र और सुभद्रा का आत्मज उज्झितक नामक सर्वाङ्गसम्पन्न और रूपवान्‌ बालक था। उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान महावीर वाणिजग्राम नामक नगर में पधारे। प्रजा दर्शनार्थ नीकली। राजा भी कूणिक नरेश की तरह गया। भगवान ने धर्म का उपदेश दिया। जनता तथा राजा दोनों वापिस चले गए। उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार, जो कि तेजोलेश्या को संक्षिप्त करके अपने अन्दर धारण किये हुए हैं तथा बेले की तपस्या करते हुए थे। वे भिक्षार्थ वाणिज्यग्राम नगर में पधारे। वहाँ (राजमार्ग में) उन्होंने अनेक हाथियों को देखा। वे हाथी युद्ध के लिए उद्यत थे, जिन्हें कवच पहनाए हुए थे, जो शरीररक्षक उपकरण आदि धारण किये हुए थे, जिनके उदर दृढ़ बन्धन से बाँधे हुए थे। जिनके झूलों के दोनों तरफ बड़े बड़े घण्टे लटक रहे थे। जो नाना प्रकार के मणियों ओर रत्नों से जुड़े हुए विविध प्रकार के ग्रैवेयक पहने हुए थे तथा जो उत्तर कंचुक नामक तनुत्राणविशेष एवं अन्य कवच आदि सामग्री धारण किए हुए थे। जो ध्वजा पताका तथा पंचविध शिरोभूषण से विभूषित थे एवं जिन पर आयुध व प्रहरणादि लिए हुए महावत बैठे हुए थे अथवा उन हाथियों पर आयुध लदे हुए थे। इसी तरह वहाँ अनेक अश्वों को भी देखा, जो युद्ध के लिए उद्यत थे तथा जिन्हें कवच तथा शारीरिक रक्षा के उपकरण पहनाए हुए थे। जिनके शरीर पर सोने की बनी हुई झूल पड़ी हुई थी तथा जो लटकाए हुए तनुत्राण से युक्त थे। जो बखतर विशेष से युक्त तथा लगाम से अन्वित मुख वाले थे। जो क्रोध से अधरों को चबा रहे थे। चामर तथा स्थासक से जिनका कटिभाग परिमंडित हो रहा था तथा जिन पर सवारी कर रहे अश्वारोही आयुध और प्रहरण ग्रहण किये हुए थे अथवा जिन पर शस्त्रास्त्र लदे हुए थे। इसी तरह वहाँ बहुत से पुरुषों को भी देखा जो दृढ़ बन्धनों से बंधे हुए लोहमय कुसूलादि से युक्त कवच शरीर पर धारण किये हुए, जिन्होंने पट्टिका कसकर बाँध रखी थी। जो गले में ग्रैवेयक धारण किये हुए थे। जिनके शरीर पर उत्तम चिह्नपट्टिका लगी हुई थी तथा जो आयुधों और प्रहरणों को ग्रहण किये हुए थे। उन पुरुषों के मध्य में भगवान गौतम ने एक और पुरुष को देखा जिसके हाथों को मोड़कर पृष्ठभाग के साथ रस्सी से बाँधा हुआ था। जिसके नाक और कान कटे हुए थे। जिसका शरीर स्निग्ध किया गया था। जिसके कर और कटि – प्रदेश में वध्य पुरुषोचित्त वस्त्र – युग्म धारण किया हुआ था। हाथ जिसके हथकड़ियों पर रखे हुए थे जिसके कण्ठ में धागे के समान लाल पुष्पों की माला थी, जो गेरु के चूर्ण से पोता गया था, जो भय से संत्रस्त, तथा प्राणों को धारण किये रखने का आकांक्षी था, जिसको तिल – तिल करके काटा जा रहा था, जिसको शरीर के छोटे – छोटे माँस के टुकड़े खिलाए जा रहे थे। ऐसा वह पापात्मा सैकड़ों पत्थरों या चाबुकों से मारा जा रहा था। जो अनेक स्त्री – पुरुष – समुदाय से घिरा हुआ और प्रत्येक चौराहे आदि पर उद्‌घोषित किया जा रहा था। हे महानुभावो! इस उज्झितक बालक का किसी राजा अथवा राजपुत्र ने कोई अपराध नहीं किया, किन्तु यह इसके अपने ही कर्मों का अपराध है, जो इस दुःस्थिति को प्राप्त है।

 

तत्पश्चात्‌ उस पुरुष को देखकर भगवान्‌ गौतम को यह चिन्तन, विचार, मनःसंकल्प उत्पन्न हुआ कि – ‘अहो ! यह पुरुष कैसी नरकतुल्य वेदना का अनुभव कर रहा है !’ ऐसा विचार करके वाणिजग्राम नगर में उच्च, नीच, मध्यम घरों में भ्रमण करते हुए यथापर्याप्त भिक्षा लेकर वाणिजग्राम नगर के मध्य में से होते हुए श्रमण भगवान महावीर के पास आए। भिक्षा दिखलाई भगवान को वन्दना – नमस्कार करके उनसे इस प्रकार कहने लगे – हे प्रभो ! आपकी आज्ञा से मैं भिक्षा के हेतु वाणिजग्राम नगर में गया। वहाँ मैंने एक ऐसे पुरुष को देखा जो साक्षात्‌ नारकीय वेदना का अनुभव कर रहा है। हे भगवन्‌ ! वह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? जो यावत्‌ नरक जैसी विषम वेदना भोग रहा है ? हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरतक्षेत्र में हस्तिनापुर नामक एक समृद्ध नगर था। उस नगर का सुनन्द नामक राजा था। वह हिमालय पर्वत के समान महान्‌ था। उस हस्तिनापुर नामक नगर के लगभग मध्यभाग में सैकड़ों स्तम्भों से निर्मित सुन्दर, मनोहर, मन को प्रसन्न करने वाली एक विशाल गोशाला थी। वहाँ पर नगर के अनेक सनाथ और अनाथ, ऐसी नगर की गायें, बैल, नागरिक छोटी गायें, भैंसे, नगर के साँड, जिन्हें प्रचुर मात्रा में घास – पानी मिलता था, भय तथा उपसर्गादि से रहित होकर परम सुख – पूर्वक निवास करते थे। उस हस्तिनापुर नगर में भीम नामक एक कूटग्राह रहता था। वह स्वभाव से ही अधर्मी व कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। उस भीम कूटग्राह की उत्पला नामक भार्या थी जो अहीन पंचेन्द्रिय वाली थी। किसी समय वह उत्पला गर्भवती हुई। उस उत्पला नाम की कूटग्राह की पत्नी को पूरे तीन मास के पश्चात्‌ इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ – वे माताएं धन्य हैं, पुण्यवती हैं, कृतार्थ हैं, सुलक्षणा हैं, उनका ऐश्वर्य सफल है, उनका मनुष्यजन्म – जीवन भी सार्थक है, जो अनेक अनाथ या सनाथ नागरिक पशुओं यावत्‌ वृषभों के ऊधस्‌, स्तन, वृषण, पूँछ, ककुद्‌, स्कन्ध, कर्ण, नेत्र, नासिका, जीभ, ओष्ठ, कम्बल, जो कि शूल्य, तलित, भृष्ट, शुष्क और लवणसंस्कृत माँस के साथ सुरा, मधु मेरक, सीधु, प्रसन्ना, इन सब मद्यों का सामान्य व विशेष रूप से आस्वादन, विस्वादन, परिभाजन तथा परिभोग करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। काश ! मैं भी अपने दोहद को इसी प्रकार पूर्ण करूँ। इस विचार के अनन्तर उस दोहद के पूर्ण न होने से वह उत्पला नामक कूटग्राह की पत्नी सूखने लगी, भूखे व्यक्त के समान दीखने लगी, माँस रहित – अस्थि – शेष हो गयी, रोगिणी व रोगी के समान शिथिल शरीर वाली, निस्तेज, दीन तथा चिन्तातुर मुख वाली हो गयी। उसका बदन फीका तथा पीला पड़ गया, नेत्र तथा मुख – कमल मुर्झा गया, यथोचित पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माल्य – फूलों की गूँथी हुई माला – आभूषण और हार आदि का उपभोग न करनेवाली, करतल से मर्दित कमल को माला की तरह म्लान हुई कर्तव्य व अकर्तव्य के विवेकरहित चिन्ता – ग्रस्त रहने लगी। इतने में भीम नामक कूटग्राह, जहाँ पर उत्पला नाम की कूटग्राहिणी थी, वहाँ आया और उसने आर्तध्यान ध्याती हुई चिन्ताग्रस्त उत्पला को देखकर कहने लगा – ‘देवानुप्रिये ! तुम क्यों इस तरह शोकाकुल, हथेली पर मुख रखकर आर्तध्यान में मग्न हो रही हो ? स्वामिन्‌ ! लगभग तीन मास पूर्ण होने पर मुझे यह दोहद उत्पन्न हुआ कि वे माताएं धन्य हैं, कि जो चतुष्पाद पशुओं के ऊधस्‌, स्तन आदि के लवण – संस्कृत माँस का अनेक प्रकार की मदिराओं के साथ आस्वादन करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती है। उस दोहद के पूर्ण न होने से निस्तेज व हतोत्साह होकर मैं आर्तध्यान में मग्न हूँ। तदनन्तर भीम कूटग्राह ने उत्पला से कहा – देवानुप्रिये ! तुम चिन्ताग्रस्त व आर्तध्यान युक्त न होओ, मैं वह सब कुछ करूँगा जिससे तुम्हारे इस दोहद की परिपूर्ति हो जाएगी। इस प्रकार के इष्ट, प्रिय, कान्त, मनोहर, मनोज्ञ वचनों से उसने उसे समाश्वासन दिया। तत्पश्चात्‌ भीम कूटग्राह आधी रात्रि के समय अकेला ही दृढ़ कवच पहनकर, धनुष – बाण से सज्जि होकर, ग्रैवेयक धारण कर एवं आयुध प्रहरणों को लेकर अपने घर से नीकला और हस्तिनापुर नगर के मध्य से होता हुआ जहाँ पर गोमण्डप था वहाँ आकर वह नागरिक पशुओं यावत्‌ वृषभों में से कईं एक के ऊधस्‌, कईं एक के सास्ना – कम्बल आदि व कईं एक के अन्यान्य अङ्गोंपाङ्गों को काटता है और काटकर अपने घर आता है। आकर अपनी भार्या उत्पला को दे देता है। तदनन्तर वह उत्पला उन अनेक प्रकार के शूल आदि पर पकाये गए गोमांसों के साथ अनेक प्रकार की मदिरा आदि का आस्वादन, विस्वादन करती हुई अपने दोहद परिपूर्ण करती है। इस तरह वह परिपूर्ण दोहदवाली, सन्मानित दोहद वाली, विनीत दोहदवाली, व्युच्छिन्न दोहदवाली व सम्पन्न दोहदवाली होकर गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती है।

 

तदनन्तर उस उत्पला नामक कूटग्राहिणी ने किसी समय नव – मास परिपूर्ण हो जाने पर पुत्र को जन्म दिया। जन्म के साथ ही उस बालक ने अत्यन्त कर्णकटु तथा चीत्कारपूर्ण भयंकर आवाज की। उस बालक के कठोर, चीत्कारपूर्ण शब्दों को सूनकर तथा अवधारण कर हस्तिनापुर नगर के बहुत से नागरिक पशु यावत्‌ वृषभ आदि भयभीत व उद्वेग को प्राप्त होकर चारों दिशाओं में भागने लगे। इससे उसके माता – पिता ने इस तरह उसका नाम – संस्करण किया कि जन्म के साथ ही उस बालक ने चीत्कार के द्वारा कर्णकटु स्वर युक्त आक्रन्दन किया, इस प्रकार के उस कर्णकटु, चीत्कारपूर्ण आक्रन्दन को सूनकर तथा अवधारण कर हस्तिनापुर के गौ आदि नागरिक पशु भयभीत व उद्विग्न होकर चारों तरफ भागने लगे, अतः इस बालक का नाम गोत्रास रखा जाता है। तदनन्तर यथासमय उस गोत्रास नामक बालक ने बाल्यावस्था को त्याग कर युवावस्था में प्रवेश किया। तत्पश्चात्‌ भीम कूटग्राह किसी समय कालधर्म को प्राप्त हुआ। तब गोत्रास बालक ने अपने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से परिवृत्त होकर रुदन, विलपन तथा आक्रन्दन करते हुए अपने पिता भीम कूटग्राह का दाहसंस्कार किया। अनेक लौकिक मृतक – क्रियाएं की। तदनन्तर सुनन्द नामक राजा ने किसी समय स्वयमेव गोत्रास बालक को कूटग्राह के पद पर नियुक्त किया। गोत्रास भी महान्‌ अधर्मी व दुष्प्रत्यानन्द था। उसके बाद वह गोत्रास कूटग्राह प्रतिदिन आधी रात्रि के समय सैनिक की तरह तैयार होकर कवच पहनकर और शास्त्रास्त्रों को धारण कर अपने घर से नीकलता। गोमण्डप में जाता। अनेक गौ आदि नागरिक पशुओं के अङ्गोंपाङ्गों को काटकर आ जाता। उन गौ आदि पशुओं के शूलपक्व तले, भुने, सूखे और नमकीन माँसों के साथ मदिरा आदि का आस्वादन, विस्वादन करता हुआ जीवनयापन करता। तदनन्तर वह गोत्रास कूटग्राह इस प्रकार के कर्मोंवाला, इस प्रकार के कार्यों में प्रधानता रखने वाला, इस प्रकार की पाप – विद्या को जानने वाला तथा ऐसे क्रूर आचरणों वाला नाना प्रकार के पापकर्मों का उपार्जन कर पाँच सौ वर्ष का पूरा आयुष्य भोगकर चिन्ता और दुःख से पीड़ित होकर मरणावसर में काल करके उत्कृष्ट तीन सागर की उत्कृष्ट स्थिति वाले दूसरे नरक में नारक रूप से उत्पन्न हुआ।

विजयमित्र की सुभद्रा नाम की भार्या जातनिन्दुका थी। अत एव जन्म लेते ही उसके बालक विनाश को प्राप्त हो जाते थे। तत्पश्चात्‌ वह गोत्रास कूटग्राह का जीव भी दूसरे नरक से नीकलकर सीधा इसी वाणिजग्राम नगर के विजयमित्र सार्थवाह की सुभद्रा नाम की भार्या के उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ – नव मास परिपूर्ण होने पर सुभद्रा सार्थवाही ने पुत्र को जन्म दिया। तत्पश्चात्‌ सुभद्रा सार्थवाही उस बालक को जन्मते ही एकान्त में कूड़े – कर्कट के ढ़ेर पर डलवा देती है, और पुनः उठवा लेती है। तत्पश्चात्‌ क्रमशः संरक्षण व संगोपन करती हुई उसका परिवर्द्धन करने लगती है। उसके बाद उस बालक के माता – पिता स्थितिपतित के अनुसार पुत्रजन्मोचित बधाई बाँटने आदि की क्रिया करते हैं। चन्द्र – सूर्य – दर्शन – उत्सव व जागरण महोत्सव भी महान्‌ ऋद्धि एवं सत्कार के साथ करते हैं। तत्पश्चात्‌ उस बालक के माता – पिता ग्यारहवे दिन के व्यतीत हो जाने पर तथा बारहवाँ दिन आ जाने पर इस प्रकार का गुण से सम्बन्धित व गुणनिष्पन्न नामकरण करते हैं – क्योंकि हमारा यह बालक एकान्त में उकरड़े पर फेंक दिया गया था, अतः हमारा यह बालक ‘उज्झितक’ नाम से प्रसिद्ध हो। तदनन्तर वह उज्झितक कुमार पाँच धायमाताओं की देखरेख में रहने लगा। उन धायमाताओं के नाम ये हैं – क्षीरधात्री, स्नानधात्री, मण्डनधात्री, क्रीडापनधात्री, गोद में उठाकर खिलाने वाली। इन धायमाताओं के द्वारा दृढ़प्रतिज्ञ की तरह निर्वात एवं निर्व्याघात पर्वतीय कन्दरा में अवस्थित चम्पक वृक्ष की तरह सुखपूर्वक वृद्धि को प्राप्त होने लगा। इसके बाद विजयमित्र सार्थवाह ने जहाज द्वारा गणिम, धरिम, मेय और पारिच्छेद्य रूप चार प्रकार की बेचने योग्य वस्तुएं लेकर लवणसमुद्र में प्रस्थान किया। परन्तु लवण – समुद्र में जहाज के विनष्ट हो जाने से विजय – मित्र की उपर्युक्त चारों प्रकार की महामूल्य वस्तुएं जलमग्न हो गयीं और वह स्वयं त्राण रहित और अशरण होकर कालधर्म को प्राप्त हो गया। तदनन्तर ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी तथा सार्थवाहों ने जब लवणसमुद्र में जहाज के नष्ट और महामूल्य वाले क्रयाणक के जलमग्न हो जाने पर त्राण और शरण से रहित विजयमित्र की मृत्यु का वृत्तान्त सूना तो वे हस्तनिक्षेप – धरोहर व बाह्य भाण्डसार को लेकर एकान्त स्थान में चले गये। तदनन्तर सुभद्रा सार्थवाही ने जिस समय लवणसमुद्र में जहाज के नष्ट हो जाने के कारण भाण्डसार के जलमग्न हो जाने के साथ विजयमित्र सार्थवाह की मृत्यु के वृत्तान्त को सूना, तब यह पतिवियोगजन्य महान्‌ शोक से ग्रस्त हो गई। कुल्हाड़े से कटी हुई चम्पक वृक्ष की शाखा की तरह धड़ाम से पृथ्वीतल पर गिर पड़ी। तत्पश्चात्‌ वह सुभद्रा – सार्थवाही एक मुहूर्त्त के अनन्तर आश्वस्त हो अनेक मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनों, सम्बन्धियों तथा परिजनों से घिरी हुई रुदन क्रन्दन विलाप करती हुई विजयमित्र के लौकिक मृतक – क्रियाकर्म करती है। तदनन्तर वह सुभद्रा सार्थवाही किसी अन्य समय लवणसमुद्र में पति का गमन, लक्ष्मी का विनाश, पोत – जहाज का जलमग्न होना तथा पति की मृत्यु की चिन्ता में निमग्न रहती हुई काल – धर्म को प्राप्त हो गई।

 

तदनन्तर नगररक्षक पुरुषों ने सुभद्रा सार्थवाही की मृत्यु के समाचार जानकर उज्झितक कुमार को अपने घर से नीकाल दिया और उसके घर को किसी दूसरे को सौंप दिया। अपने घर से नीकाला जाने पर वह उज्झितक कुमार वाणिजग्राम नगर के त्रिपथ, चतुष्पथ, चत्वर, राजमार्ग एवं सामान्य मार्गों पर, द्यूतगृहों, वेश्यागृहों व मद्यपान गृहों में सुखपूर्वक भटकने लगा। तदनन्तर बेरोकटोक स्वच्छन्दमति एवं निरंकुश बना हुआ वह चौर्यकर्म, द्यूतकर्म, वेश्यागमन और परस्त्रीगमन में आसक्त हो गया। तत्पश्चात्‌ किसी समय कामध्वजा वेश्या के साथ विपुल, उदार – प्रधान मनुष्य सम्बन्धी विषयभोगों का उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। तदनन्तर उस विजयमित्र राजा की श्री नामक देवी को योनिशूल उत्पन्न हो गया। इसलिए विजयमित्र राजा अपनी रानी के साथ उदार – प्रधान मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगने में समर्थ न रहा। अतः अन्य किसी समय उस राजा ने उज्झितकुमार को कामध्वजा गणिका के स्थान से नीकलवा दिया और कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार – प्रधान विषयभोगों का उपभोग करने लगा। तदनन्तर कामध्वजा गणिका के घर से निकाले जाने पर कामध्वजा गणिको में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन्न, वह उज्झितक कुमार अन्यत्र कहीं भी स्मृति, रति, व धृति को प्राप्त न करता हुआ, उसी में चित्त व मन को लगाए हुए, तद्विषयक परिणाम वाला, तद्विषयक अध्यवसाय, उसी सम्बन्धी प्रयत्न – विशेष वाला, उसकी ही प्राप्ति के लिए उद्यत, उसीमें मन, वचन और इन्द्रियों को समर्पित करने वाला, उसी की भावना से भावित होता हुआ कामध्वजा वेश्या के अनेक अन्तर, छिद्र व विवर की गवेषणा करता हुआ जीवनयापन कर रहा था। तदनन्तर वह उज्झितक कुमार किसी अन्य समय में कामध्वजा गणिका के पास जाने का अवसर प्राप्त कर गुप्तरूप से उसके घर में प्रवेश करके कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार विषयभोगों का उपभोग करता हुआ जीवनयापन करने लगा। इधर किसी समय बलमित्र नरेश, स्नान, बलिकर्म, कौतुक, मंगल प्रायश्चित्त के रूप में मस्तक पर तिलक एवं मांगलिक कार्य करके सर्व अलंकारों से अलंकृत हो, मनुष्यों के समूह से घिरा हुआ कामध्वजा वेश्या के घर गया। वहाँ उसने कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करते हुए उज्झितक कुमार को देखा। देखते ही वह क्रोध से लाल – पीला हो गया। मस्तक पर त्रिवलिक भृकुटि चढ़ाकर अपने अनुचरों के द्वारा उज्झितक कुमार को पकड़वाया। यष्टि, मुष्टि, जानु, कर्पूर के प्रहारों से उसके शरीर को चूर – चूर और मथित करके अवकोटक बन्धन से बाँधा और बाँधकर ‘इसी प्रकार से यह बध्य है’ ऐसी आज्ञा दी। हे गौतम ! इस प्रकार वह उज्झितक कुमार पूर्वकृत्‌ पापमय कर्मों का फल भोग रहा है।

 

हे प्रभो ! यह उज्झितक कुमार यहाँ से कालमास में काल करके कहाँ जाएगा ? और कहाँ उत्पन्न होगा ? गौतम ! उज्झितक कुमार २५ वर्ष की पूर्ण आयु को भोगकर आज ही त्रिभागविशेष दिन में शूली द्वारा भेद को प्राप्त होकर कालमास में काल करके रत्नप्रभा में नारक रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ से नीकलकर सीधा इसी जम्बू द्वीप में भारतवर्ष के वैताढ्य पर्वत के पादमूल में वानर के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ पर बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त होता हुआ वह पशु सम्बन्धी भोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, भोगों के स्नेहपाश में जकड़ा हुआ और भोगों ही में मन को लगाए रखने वाला होगा। वह उत्पन्न हुए वानरशिशुओं का अवहनन किया करेगा। ऐसे कुकर्म में तल्लीन हुआ वह काल – मास में काल करके इसी जम्बूद्वीप में इन्द्रपुर नामक नगर में गणिका के घर में पुत्र रूप में उत्पन्न होगा। माता – पिता उत्पन्न होते ही उस बालक को वर्द्धितक बना देंगे और नपुंसक के कार्य सिखलाएंगे। बारह दिन के व्यतीत हो जाने पर उसके माता – पिता उसका ‘प्रियसेन’ यह नामकरण करेंगे। बाल्यभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त तथा विज्ञ, एवं बुद्धि आदि की परिपक्व अवस्था को उपलब्ध करने वाला यह प्रियसेन नपुंसक रूप, यौवन व लावण्य के द्वारा उत्कृष्ट – उत्तम और उत्कृष्ट शरीर वाला होगा। तदनन्तर वह प्रियसेन नपुंसक इन्द्रपुर नगर के राजा, ईश्वर यावत्‌ अन्य मनुष्यों को अनेक प्रकार के प्रयोगों से, मन्त्रों से मन्त्रित चूर्ण, भस्म आदि से, हृदय को शून्य कर देने वाले, अदृश्य कर देने वाले, वश में करने वाले, प्रसन्न कर देने वाले और पराधीन कर देने वाले प्रयोगों से वशीभूत करके मनुष्य सम्बन्धी उदार भोगों को भोगता हुआ समययापन करेगा। इस तरह वह प्रियसेन नपुंसक इन पापपूर्ण कामों में ही बना रहेगा। वह बहुत पापकर्मों का उपार्जन करके १२१ वर्ष की परम आयु को भोगकर मृत्यु को प्राप्त होकर इस रत्नप्रभा नरक में नारक के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ से सरीसृप आदि प्राणियों की योनियों में जन्म लेगा। वहाँ से उसका संसार – भ्रमण मृगापुत्र की तरह होगा यावत्‌ पृथिवीकाय आदि में जन्म लेगा। वहाँ से इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष की चम्पा नगरी में भैंसा के रूप में जन्म लेगा। वहाँ गोष्ठिकों के द्वारा मारे जाने पर उसी नगरी के श्रेष्ठि कुल में पुत्ररूप में उत्पन्न होगा। यहाँ पर बाल्यावस्था को पार करके यौवन अवस्था को प्राप्त होता हुआ वह तथारूप स्थविरों के पास शंका कांक्षा आदि दोषों से रहित बोधिलाभ को प्राप्त कर अनगार धर्म को ग्रहण करेगा। वहाँ से कालमास में कालकर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा। यावत्‌ मृगापुत्र के समान कर्मों का अन्त करेगा।