उस काल उस समय में साहंजनी नाम की एक ऋद्ध – भवनादि की सम्पत्ति से सम्पन्न, स्तिमित तथा समृद्ध नगरी थी। उसके बाहर ईशानकोण में देवरमण नाम का एक उद्यान था। उस उद्यान में अमोघ नामक यक्ष का एक पुरातन यक्षायतन था। उस नगरी में महचन्द्र राजा था। वह हिमालय के समान दूसरे राजाओं से महान था। उस महचन्द्र नरेश का सुषेण मन्त्री था, जो सामनीति, भेदनीति, दण्डनीति और उपप्रदाननीति के प्रयोग को और न्याय नीतियों की विधि को जानने वाला तथा निग्रह में कुशल था। उस नगर में सुदर्शना नाम की एक सुप्रसिद्ध गणिका – वेश्या रहती थी। उस नगरी में सुभद्र नाम का सार्थवाह था। उस सुभद्र सार्थवाह की निर्दोष सर्वाङ्गसुन्दर शरीरवाली भद्रा भार्या थी। समुद्र सार्थवाह का पुत्र व भद्रा भार्या का आत्मज शकट नाम का बालक था। वह भी पंचेन्द्रियों से परिपूर्ण – सुन्दर शरीर से सम्पन्न था। उस काल, उस समय साहंजनी नगरी के बाहर देवरमण उद्यान में श्रमण भगवान महावीर पधारे। नगर से जनता और राजा नीकले। भगवान ने धर्मदेशना दी। राजा और प्रजा सब वापस लौट गए। उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान महावीर ने ज्येष्ठ अन्तेवासी श्री गौतम स्वामी यावत् राजमार्ग में पधारे। वहाँ उन्होंने हाथी, घोड़े और बहुतेरे पुरुषों को देखा। उन पुरुषों के मध्य में अवकोटक बन्धन से युक्त, कटे कान और नाक वाले यावत् उद्घोषणा सहित एक सस्त्रीक पुरुष को देखा। देखकर गौतम स्वामी ने पूर्ववत् विचार किया और भगवान से आकर प्रश्न किया। भगवान ने इस प्रकार कहा – हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इसी जम्बूद्वीप अन्तर्गत भारतवर्ष में छगलपुर नगर था। वहाँ सिंहगिरि राजा राज्य करता था। वह हिमालयादि पर्वतों के समान महान था। उस नगर में छण्णिक नामक एक छागलिक कसाई रहता था, जो धनाढ्य, अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था। उस छण्णिक छागलिक के अनेक अजो, रोझो, वृषभों, खरगोशो, मृगशिशुओं, शूकरो, सिंहो, हरिणो, मयूरो और महषि के शतबद्ध तथा सहस्रबद्ध यूथ, बाड़े में सम्यक् प्रकार से रोके हुए रहते थे। वहाँ जिनको वेतन के रूप में भोजन तथा रुपया पैसा दिया जाता था, ऐसे उसके अनेक आदमी अजादि और महिषादि पशुओं का संरक्षण – संगोपन करते हुए उन पशुओं को बाड़े में रोके रहते थे। अनेक नौकर पुरुष सैकड़ों तथा हजारों अजों तथा भैसों को मारकर उनके माँसों को कैंची तथा छूरी से काटकर छण्णिक छागलिक को दिया करते थे। उसके अन्य अनेक नौकर उन बहुत से बकरों के माँसों तथा महिषों के माँसों को तवों पर, कड़ाहों में, हांडों में अथवा कड़ाहियों या लोहे के पात्रविशेषों में, भूनने के पात्रों में, अंगारों पर तलते, भूनते और शूल द्वारा पकाते हुए अपनी आजीविका चलाते थे। वह छण्णिक स्वयं भी उन माँसों के साथ सूरा आदि पाँच प्रकार के मद्यों का आस्वादन विस्वादन करता हुआ वह जीवनयापन कर रहा था। उस छण्णिक छागलिक ने अजादि पशुओं के माँसों को खाना तथा मदिराओं का पीना अपना कर्तव्य बना लिया था। इन्हीं पापपूर्ण प्रवृत्तियों में वह सदा तत्पर रहता था। और ऐसे ही पापपूर्ण कर्मों को उसने अपना सर्वोत्तम आचरण बना रखा था। अत एव वह क्लेशोत्पादक और कालुष्य पूर्ण अत्यधिक क्लिष्ट कर्मों का उपार्जन कर, सात सौ वर्ष की आयु पालकर कालमास में काल करके चतुर्थ नरक में, उत्कृष्ट दस सागरोपम स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ।
तदनन्तर उस सुभद्र सार्थवाह की भद्रा नामकी भार्या जातनिन्दुका थी। उसके उत्पन्न होते हुए बालक मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे। इधर छण्णिक नामक छागलिक का जीव चतुर्थ नरक से नीकलकर सीधा इसी साहंजनी नगरी में सुभद्र सार्थवाह की भद्रा नामकी भार्या के गर्भ में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। लगभग नौ मास परिपूर्ण हो जाने पर किसी समय भद्रा नामक भार्या ने बालक को जन्म दिया। उत्पन्न होते ही माता – पिता ने उस बालक को शकट के नीचे स्थापित कर दिया – रख दिया और फिर उठा लिया। उठाकर यथाविधि संरक्षण, संगोपन व संवर्द्धन किया। यावत् यथासमय उसके माता – पिता ने कहा – उत्पन्न होते ही हमारा यह बालक शकट के नीचे स्थापित किया गया था, अतः इसका ‘शकट’ ऐसा नामाभिधान किया जाता है। शकट का शेष जीवन उज्झित की तरह समझना। इधर सुभद्र सार्थवाह लवणसमुद्र में कालधर्म को प्राप्त हुआ और शकट की माता भद्रा भी मृत्यु को प्राप्त हो गई। तब शकटकुमार को राजपुरुषों के द्वारा घर से नीकाल दिया गया। अपने घर से नीकाले जाने पर शकट – कुमार साहंजनी नगरी के शृंगाटक आदि स्थानों में भटकता रहा तथा जुआरियों के अड्डों तथा शराबघरों में घूमने लगा। किसी समय उसकी सुदर्शना गणिका के साथ गाढ़ प्रीति हो गई। तदनन्तर सिंहगिरि राजा का अमात्य – मन्त्री सुषेण किसी समय उस शकटकुमार को सुदर्शना वेश्या के घर से नीकलवा देता है और सुदर्शना गणिका को अपने घर में पत्नी के रूप में रख लेता है। इस तरह घर में पत्नी के रूप में रखी हुई सुदर्शना के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार विशिष्ट कामभोगों को यथारुचि उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करता है। घर से नीकाला गया शकट सुदर्शना वेश्या में मूर्च्छित, गृद्ध, अत्यन्त आसक्त होकर अन्यत्र कहीं भी सुख चैन, रति, शान्ति नहीं पा रहा था। उसका चित्त, मन, लेश्या अध्यवसाय उसी में लीन रहता था। वह सुदर्शना के विषय में ही सोचा करता, उसमें करणों को लगाए रहता, उसी की भावना से भावित रहता। वह उसके पास जाने की ताक में रहता और अवसर देखता रहता था। एक बार उसे अवसर मिल गया। वह सुदर्शना के घर में घूस गया और फिर उसके साथ भोग भोगने लगा। इधर एक दिन स्नान करके तथा सर्व अलङ्कारों से विभूषित होकर अनेक मनुष्यों से परिवेष्टित सुषेण मंत्री सुदर्शना के घर पर आया। आते ही उसने सुदर्शना के साथ यथारुचि कामभोगों का उपभोग करते हुए शकटकुमार को देखा। देखकर वह क्रोध के वश लाल – पीला हो, दाँत पीसता हुआ मस्तक पर तीन सल वाली भृकुटि चढ़ा लेता है। शकटकुमार को अपने पुरुषों से पकड़वाकर यष्टियों, मुट्ठियों, घुटनों, कोहनियों से उसके शरीर को मथित कर अवकोटकबन्धन से जकड़वा लेता है। तदनन्तर उसे महाराज महचन्द्र के पास ले जाकर दोनों हाथ जोड़कर तथा मस्तक पर दसों नख वाली अञ्जलि करके इस प्रकार निवेदन करता है – ‘स्वामिन् ! इस शकटकुमार ने मेरे अन्तःपुर में प्रवेश करने का अपराध किया है।’ महाराज महचन्द्र सुषेण मंत्री से इस प्रकार बोले – ‘देवानुप्रिय ! तुम ही इसको अपनी ईच्छानुसार दण्ड दे सकते हो।’ तत्पश्चात् महाराज महचन्द्र से आज्ञा प्राप्त कर सुषेण अमात्य ने शकटकुमार और सुदर्शना गणिका को पूर्वोक्त विधि से वध करने की आज्ञा राजपुरुषों को प्रदान की।
शकट की दुर्दशा का कारण भगवान से सूनकर गौतम स्वामी ने प्रश्न किया – हे प्रभो ! शकटकुमार बालक यहाँ से काल करके कहाँ जाएगा और कहाँ पर उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! शकट दारक को ५७ वर्ष की परम आयु को भोगकर आज ही तीसरा भाग शेष रहे दिन में एक महालोहमय तपी हुई अग्नि के समान देदीप्यमान स्त्रीप्रतिमा से आलिङ्गन कराया जाएगा। तब वह मृत्यु – समय में मरकर रत्नप्रभा नाम की प्रथम नरक भूमि में नारक रूप से उत्पन्न होगा। वहाँ से नीकलकर राजगृह नगर में मातङ्ग कुल में युगल रूप से उत्पन्न होगा। युगल के माता – पिता बारहवें दिन उनमें से बालक का नाम ‘शकटकुमार’ और कन्या का नाम ‘सुदर्शना’ रखेंगे। तदनन्तर शकटकुमार बाल्यभाव को त्याग कर यौवन को प्राप्त करेगा। सुदर्शना कुमारी भी बाल्यावस्था पार करके विशिष्ट ज्ञानबुद्धि की परिपक्वता को प्राप्त करती हुई युवावस्था को प्राप्त होगी। वह रूप, यौवन व लावण्य में उत्कृष्ट – श्रेष्ठ व सुन्दर शरीर वाली होगी। तदनन्तर सुदर्शना के रूप, यौवन और लावण्य की सुन्दरता में मूर्च्छित होकर शकटकुमार अपनी बहिन सुदर्शना के साथ ही मनुष्य सम्बन्धी प्रधान कामभोगों का सेवन करता हुआ जीवन व्यतीत करेगा। किसी समय वह शकटकुमार स्वयमेव कूटग्राहित्व को प्राप्त कर विचरण करेगा। वह कूटग्राह बना हुआ वह महाअधर्मी एवं दुष्प्रत्यानन्द होगा। इन अधर्म – प्रधान कर्मों से बहुत से पापकर्मों को उपार्जित कर मृत्युसमय में मरकर रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होगा। उसका संसार – भ्रमण भी पूर्ववत् जानना यावत् वह पृथ्वीकाय आदि में लाखों – लाखों बार उत्पन्न होगा। वहाँ से वाराणसी नगरी में मत्सय के रूप में जन्म लेगा। वहाँ पर मत्स्यघातकों के द्वारा वध को प्राप्त होकर यह फिर उसी वाराणसी नगरी में एक श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहाँ सम्यक्त्व एवं अनगार धर्म को प्राप्त करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देव होगा। वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा। वहाँ साधुवृत्ति का सम्यक्तया पालन करके सिद्ध, बुद्ध होगा, समस्त कर्मों और दुःखों का अन्त करेगा।