उस काल और उस समय में कौशाम्बी नगरी थी, जो भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्वचक्र – परचक्र के भय से मुक्त तथा समृद्धि से समृद्ध थी। उस नगरी के बाहर चन्द्रावतरण उद्यान था। उसमें श्वेतभद्र यक्ष का आयतन था। उस कौशाम्बी नगरी में शतानीक राजा था। जो हिमालय पर्वत आदि के समान महान्‌ और प्रतापी था। उसको मृगादेवी रानी थी। उस शतानीक राजा का पुत्र और रानी मृगादेवी का आत्मज उदयन नाम का एक कुमार था, जो सर्वेन्द्रिय सम्पन्न था और युवराज पद से अलंकृत था। उस उदयनकुमार की पद्मावती नाम की देवी थी। उस शतानीक राजा का सोमदत्त पुरोहित था, जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का पूर्ण ज्ञाता था। उस सोमदत्त पुरोहित को वसुदत्ता नाम की भार्या थी, तथा सोमदत्त का पुत्र एवं वसुदत्ता का आत्मज बृहस्पतिदत्त नाम का सर्वाङ्गसम्पन्न एक सुन्दर बालक था। उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी कौशाम्बी नगरी के बाहर चन्द्रावतरण उद्यान में पधारे। गौतम स्वामी पूर्ववत्‌ कौशाम्बी नगरी में भिक्षार्थ गए। और लौटते हुए राजमार्ग में पधारे। वहाँ हाथियों, घोड़ों और बहुसंख्यक पुरुषों को तथा उन पुरुषों के बीच एक वध्य पुरुष को देखा। उनको देखकर मन में विचार करते हैं और स्वस्थान पर आकर भगवान से उसके पूर्व – भव के सम्बन्ध में पृच्छा करते हैं। भगवान इस प्रकार वर्णन करते हैं – हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में सर्वतोभद्र नाम का एक भवनादि के आधिक्य से युक्त उपद्रवों से मुक्त तथा धनधान्यादि से परिपूर्ण नगर था। उस सर्वतोभद्र नगर में जितशत्रु राजा था। महेश्वरदत्त पुरोहित था जो ऋग्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में कुशल था। महेश्वरदत्त पुरोहित जितशत्रु राजा के राज्य की एवं बल की वृद्धि के लिए प्रतिदिन एक – एक ब्राह्मण बालक, क्षत्रिय बालक, वैश्य बालक और शूद्र बालक को पकड़वा लेता था और पकड़वा कर, जीते जी उनके हृदयों के माँसपिण्डों को ग्रहण करवाता – नीकलवा लेता था और जितशत्रु राजा के निमित्त उनसे शान्ति – होम किया करता था। इसके अतिरिक्त वह पुरोहित अष्टमी और चतुर्दशी के दिन दो – दो बालकों के, चार – चार मास में चार – चार के, छह मास में आठ – आठ बालकों के और संवत्सर – वर्ष में सोलह – सोलह बालकों के हृदयों के माँसपिण्डों से शान्तिहोम किया करता था। जब – जब जितशत्रु राजा का किसी शत्रु के साथ युद्ध होता तब – तब वह महेश्वरदत्त पुरोहित एक सौ आठ ब्राह्मण बालकों, एक सौ आठ क्षत्रिय बालकों, एक सौ आठ वैश्य बालकों और एक सौ आठ शूद्रबालकों को अपने पुरुषों द्वारा पकड़वाकर और जीते जी उनके हृदय के माँसपिण्डों को नीकलवाकर जितशत्रु नरेश की विजय के निमित्त शान्तिहोम करता था। उसके प्रभाव से जितशत्रु राजा शीघ्र ही शत्रु का विध्वंस कर देता या उसे भगा देता था।

 

इस प्रकार के क्रूर कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, क्रूर कर्मों में प्रधान, नाना प्रकार के पापकर्मों को एकत्रित कर अन्तिम समय में वह महेश्वरदत्त पुरोहित तीन हजार वर्ष का परम आयुष्य भोगकर पाँचवे नरक में उत्कृष्ट सत्तरह सागरोपम की स्थिति वाले नारक के रूप में उत्पन्न हुआ। पाँचवे नरक से नीकलकर सीधा इसी कौशाम्बी नगरी में सोमदत्त पुरोहित की वसुदत्ता भार्या के उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। उस बालक के माता – पिता ने जन्म से बारहवे दिन नामकरण संस्कार करते हुए कहा – यह बालक सोमदत्त का पुत्र और वसुदत्ता का आत्मज होने के कारण इसका बृहस्पतिदत्त यह नाम रखा जाए। तदनन्तर वह बृहस्पतिदत्त बालक पाँच धायमाताओं से परिगृहीत यावत्‌ वृद्धि को प्राप्त करता हुआ तथा बालभाव को पार करके युवावस्था को प्राप्त होता हुआ, परिपक्व विज्ञान को उपलब्ध किये हुए वह उदयन कुमार का बाल्यकाल से ही प्रिय मित्र हो गया। कारण यह था कि ये दोनों एक साथ ही उत्पन्न हुए, एक साथ बढ़े और एक साथ ही दोनों ने धूलि – क्रीड़ा की थी। तदनन्तर किसी समय राजा शतानीक कालधर्म को प्राप्त हो गया। तब उदयनकुमार बहुत से राजा, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी सेनापति और सार्थवाह आदि के साथ रोता हुआ, आक्रन्दन करता हुआ तथा विलाप करता हुआ शतानीक नरेश का राजकीय समृद्धि के अनुसार सन्मानपूर्वक नीहरण तथा मृतक सम्बन्धी सम्पूर्ण लौकिक कृत्यों को करता है। तदनन्तर उन राजा, ईश्वर यावत्‌ सार्थवाह आदि ने मिलकर बड़े समारोह के साथ उदयन कुमार का राज्याभिषेक किया। उदयनकुमार हिमालय पर्वत समान महान राजा हो गया। तदनन्तर बृहस्पतिदत्त कुमार उदयन नरेश का पुरोहित हो गया और पौरोहित्य कर्म करता हुआ सर्वस्थानों, सर्व भूमिकाओं तथा अन्तःपुर में भी ईच्छानुसार बेरोक – टोक गमनागमन करने लगा। तत्पश्चात्‌ वह बृहस्पतिदत्त पुरोहित उदय – नरेश के अन्तःपुर में समय – असमय, काल – अकाल तथा रात्रि एवं सन्ध्याकाल में स्वेच्छापूर्वक प्रवेश करते हुए धीरे धीरे पद्मावती देवी के साथ अनुचित सम्बन्ध वाला हो गया। पद्मावती देवी के साथ उदर यथेष्ट मनुष्य सम्बन्धी काम – भोगों का सेवन करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। इधर किसी समय उदयन नरेश स्नानादि से निवृत्त होकर और समस्त अलङ्कारों से अलंकृत होकर जहाँ पद्मावती देवी थी वहाँ आया। आकर उसने बृहस्पतिदत्त पुरोहित को पद्मावती देवी के साथ भोगोपभोग भोगते हुए देखा। देखते ही वह क्रोध से तमतमा उठा। मस्तक पर तीन वल वाली भृकुटि चढ़ाकर बृहस्पतिदत्त पुरोहित को पुरुषों द्वारा पकड़वाकर यष्टि, मुट्ठी, घुटने, कोहनी आदि के प्रहारों से उसके शरीर को भग्न कर दिया गया, मथ डाला और फिर इस प्रकार ऐसा कठोर दण्ड देने की राजपुरुषों को आज्ञा दी। हे गौतम ! इस तरह बृहस्पतिदत्त पुरोहित पूर्वकृत क्रूर पापकर्मों के फल को प्रत्यक्षरूप से अनुभव कर रहा है। हे भगवन्‌ ! बृहस्पतिदत्त यहाँ से काल करके कहाँ जाएगा ? हे गौतम ! बृहस्पतिदत्त पुरोहित ६४ वर्ष की आयु को भोगकर दिन का तीसरा भाग शेष रहने पर शूली से भेदन किया जाकर कालावसर में काल करके रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में उत्पन्न होगा। वहाँ से नीकलकर प्रथम अध्ययन में वर्णित मृगापुत्र की तरह सभी नरकों में, सब तिर्यंचों में तथा एकेन्द्रियों में लाखों बार जन्म – मरण करेगा। तत्पश्चात्‌ हस्तिनापुर नगर में मृग के रूप में जन्म लेगा। वहाँ पर वागुरिकों द्वारा मारा जाएगा। और इसी हस्तिनापुर में श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से जन्म धारण करेगा। वहाँ सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा और काल करके सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होगा। वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा। वहाँ पर अनगार वृत्ति धारण कर, संयम की आराधना करके सब कर्मों का अन्त करेगा।