उस काल उस समय में पुरिमताल नगर था। वह भवनादि की अधिकता से तथा धन – धान्यादि से परिपूर्ण था। उस पुरिमताल नगर के ईशान – कोणमें अमोघदर्शी नामक उद्यान था उसमें अमोघदर्शी नामक यक्ष का एक यक्षायतन था। पुरिमताल नगर में महाबल नामक राजा राज्य करता था। उस पुरिमताल नगर के ईशान कोण में सीमान्त पर स्थित अटवी में शालाटवी नाम की चोरपल्ली थी जो पर्वतीय भयंकर गुफाओं के प्रातभाग पर स्थित थी। बाँस की जाली की बनी हुई वाड़रूप प्राकार से घिरी हुई थी। छिन्न पर्वत के ऊंचे – नीचे गर्तरूप खाई वाली थी। उसमें पानी की पर्याप्त सुविधा थी। उसके बाहर दूर – दूर तक पानी अप्राप्य था। उसमें भागने वाले मनुष्यों के मार्गरूप अनेक गुप्तद्वार थे। जानकार व्यक्ति ही उसमें निर्गम कर सकता था। बहुत से मोष – चोरों से चुराई वस्तुओं को वापिस लाने के लिए उद्यत मनुष्यों द्वारा भी उसका पराजय नहीं किया जा सकता था। उस शालाटवी चोरपल्ली में विजय नाम का चोर सेनापति रहता था। वह महा अधर्मी था यावत् उसके हाथ सदा खून से रंगे रहते थे। उसका नाम अनेक नगरों में फैला हुआ था। वह शूरवीर, दृढ़प्रहारी साहसी, शब्दवेधी तथा तलवार और लाठी का अग्रगण्य योद्धा था। वह सेनापति उस चोरपल्ली में पाँच सौ चोरों का स्वामित्व, अग्रेसरत्व, नेतृत्व, बड़प्पन करता हुआ रहता था।
तदनन्तर वह विजय नामक चोर सेनापति अनेक चोर, पारदारिक, ग्रन्थिभेदक, सन्धिच्छेदक, धूर्त वगैरह लोग तथा अन्य बहुत से छिन्न, भिन्न तथा शिष्टमण्डली से बहिष्कृत व्यक्तियों के लिए बाँस के वन के समान गोपक या संरक्षक था। वह विजय चोर सेनापति पुरिमताल नगर के ईशान कोणगत जनपद को अनेक ग्रामों को नष्ट करने से, अनेक नगरों का नाश करने से, गाय आदि पशुओं के अपहरण से, कैदियों को चुराने से, पथिकों को लूटने से, खात – सेंध लगाकर चोरी करने से, पीड़ित करता हुआ, विध्वस्त करता हुआ, तर्जित, ताडित, स्थान – धन तथा धान्यादि से रहित करता हुआ तथा महाबल राजा के राजदेयकर – महसूल को भी बारंबार स्वयं ग्रहण करता हुआ समय व्यतीत करता था। उस विजय नामक चोर सेनापति की स्कन्दश्री नामकी परिपूर्ण पाँच इन्द्रियों से युक्त सर्वांगसुन्दरी पत्नी थी। उस विजय चोर सेनापति का पुत्र एवं स्कन्दश्री का आत्मज अभग्नसेन नाम का एक बालक था, जो अन्यून पाँच इन्द्रियों वाला तथा विशेष ज्ञान रखने वाला और बुद्धि की परिपक्वता से युक्त यौवनावस्था को प्राप्त किये हुए था। उस काल तथा उस समय में पुरिमताल नगर में श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे। परिषद् नीकली। राजा भी गया। भगवान ने धर्मोपदेश दिया। राजा तथा जनता वापिस लौट आये। उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी राजमार्ग में पधारे। उन्होंने बहुत से हाथियों, घोड़ों तथा सैनिकों की तरह शस्त्रों से सुसज्जित और कवच पहने हुए अनेक पुरुषों को देखा। उन सब के बीच अवकोटक बन्धन से युक्त उद्घोषित एक पुरुष को भी देखा। राजपुरुष उस पुरुष को चत्वर पर बैठाकर उसके आगे आठ लघुपिताओं को मारते हैं। तथा कशादि प्रहारों से ताड़ित करते हुए दयनीय स्थिति को प्राप्त हुए उस पुरुष को उसके ही शरीर में से काटे गए माँस के छोटे – छोटे टुकड़ों को खिलाते हैं और रुधिर का पान कराते हैं। द्वितीय चत्वर पर उसकी आठ लघुमाताओं को उसके समक्ष ताड़ित करते हैं और माँस खिलाते तथा रुधिरपान कराते हैं। तीसरे चत्वर पर आठ महापिताओं को, चौथे चत्वर पर आठ महामाताओं को, पाँचवें पर पुत्रों को, छट्ठे पर पुत्रवधूओं को, सातवें पर जामाताओं को, आठवें पर लड़कियों को, नवमें पर नप्ताओं को, दसवें पर लड़के और लड़कियों की लड़कियों को, ग्यारहवे पर नप्तृकापतियों को, तेरहवें पर पिता की बहिनों के पतियों को, चौदहवें पर पिता की बहिनों को, पन्द्रहवें पर माता की बहिनों के पतियों को, सोलहवें पर माता की बहिनों को, सत्रहवें पर मामा की स्त्रियों को, अठारहवें पर शेष मित्र, ज्ञाति, स्वजन सम्बन्धी और परिजनों को उस पुरुष के आगे मारते हैं तथा चाबुक के प्रहारों से ताड़ित करते हुए वे राजपुरुष करुणाजनक उस पुरुष को उसके शरीर से नीकाले हुए माँस के टुकड़े खिलाते और रुधिर का पान कराते हैं।
तदनन्तर भगवान गौतम के हृदय में उस पुरुष को देखकर यह सङ्कल्प उत्पन्न हुआ यावत् पूर्ववत् वे नगर से बाहर नीकले तथा भगवान के पास आकर निवेदन करने लगे। यावत् भगवन् ! वह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? जो इस तरह अपने कर्मों का फल पा रहा है ? इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! उस काल तथा उस समय इस जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में पुरिमताल नामक समृद्धिपूर्ण नगर था। वहाँ उदित नाम का राजा राज्य करता था, जो हिमालय पर्वत की तरह महान था। निर्णय नाम का एक अण्डों का व्यापारी भी रहता था। वह धनी तथा पराभव को न प्राप्त होने वाला, अधर्मी यावत् परम असंतोषी था। निर्णयनामक अण्डवणिक के अनेक दत्तभृति – भक्तवेतन अनेक पुरुष प्रतिदिन कुद्दाल व बाँस की पिटारियों को लेकर पुरिमताल नगर के चारों और अनेक, कौवी के, घूकी के, कबूतरी के, बगुली के, मोरनी के, मुर्गी के, तथा अनेक जलचर, स्थलचर, व खेचर आदि जीवों के अण्डों को लेकर पिटारियों में भरते थे और भरकर निर्णय नामक अण्डों के व्यापारी को अण्डों से भरी हुई वे पिटारियाँ देते थे। तदनन्तर वह निर्णय नामक अण्डवर्णक के अनेक वेतनभोगी पुरुष बहुत से कौवी यावत् कुकड़ी के अण्डों तथा अन्य जलचर, स्थलचर एवं खेचर आदि पूर्वोक्त जीवों के अण्डों को तवों पर कहाड़ों पर हाथों में एवं अंगारों में तलते थे, भूनते थे, पकाते थे। राजमार्ग की मध्यवर्ती दुकानों पर अण्डों के व्यापार से आजीविका करते हुए समय व्यतीत करते थे। वह निर्णय अण्डवणिक स्वयं भी अनेक कौवी यावत् कुकड़ी के अण्डों के, जो कि पकाये हुए, तले हुए और भुने हुए थे, साथ ही सुरा, मधु, मेरक, जाति तथा सीधु इन पंचविध मदिराओं का आस्वादन करता हुआ जीवन – यापन कर रहा था। तदनन्तर वह निर्णय अण्डवणिक् इस प्रकार के पापकर्मों का करने वाला अत्यधिक पापकर्मों को उपार्जित करके एक हजार वर्ष की परम आयुष्य को भोगकर, मृत्यु के समय में मृत्यु को प्राप्त करके तीसरी नरक में उत्कृष्ट सात सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ।
वह निर्णय नामक अण्डवणिक् नरक से नीकलकर विजय नामक चोर सेनापति की स्कन्दश्री भार्या के उदर में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। किसी अन्य समय लगभग तीन मास परिपूर्ण होने पर स्कन्दश्री को यह दोहद उत्पन्न हुआ – वे माताएं धन्य हैं, जो मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धियों और परिजनों की महिलाओं तथा अन्य महिलाओं से परिवृत्त होकर स्नान यावत् अनिष्टोत्पादक स्वप्नादि को निष्फल बनाने के लिए प्रायश्चित्त रूप में माङ्गलिक कृत्यों को करके सर्व प्रकार के अलंकारों से अलंकृत हो, बहुत प्रकार के अशन, पान, खादिम, स्वादिम पदार्थों तथा सुरा, मधु, मेरक, जाति और प्रसन्नादि मदिराओं का आस्वादन, विस्वादन, परिभाजन और परिभोग करती हुई विचरती हैं, तथा भोजन के पश्चात् जो उचित स्थान पर उपस्थित हुई हैं, जिन्होंने पुरुष का वेश पहना हुआ है और जो दृढ़ बन्धनों से बंधे हुए, लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच – लोहमय बख्तर को शरीर पर धारण किये हुए हैं, यावत् आयुध और प्रहरणों से युक्त हैं, तथा वाम हस्त में धारण किये हुए फलक – ढालों से, कोश – म्यान से बाहर नीकली हुई तलवारों से, कन्धे पर रखे हुए तरकशों से ऊंचे किये हुए जालों अथवा शस्त्रविशेषों से, प्रत्यंचा युक्त धनुषों से, सम्यक्तया फेंके जाने वाले बाणों से, लटकती व अवसारित चालित जंघा – घण्टियों के द्वारा तथा क्षिप्रतूर्य बजाने से महान्, उत्कृष्ट – आनन्दमय महाध्वनि से समुद्र की आवाज के समान आकाशमण्डल को शब्दाय – मान करती हुई शालाटवी नामक चोरपल्ली के चारों ओर अवलोकन तथा चारों तरफ भ्रमण करती हुई अपना दोहद पूर्ण करती हैं। क्या अच्छा हो यदि मैं भी इसी भाँति अपने दोहद को पूर्ण करूँ ? ऐसा विचार करने के पश्चात् वह दोहद के पूर्ण न होने से उदास हुई, दुबली पतली और जमीन पर नजर लगाए आर्तध्यान करने लगी। तदनन्तर विजय चोर सेनापति ने आर्तध्यान करती हुई स्कन्दश्री को देखकर इस प्रकार पूछा – देवानुप्रिये ! तुम उदास हुई क्यों आर्तध्यान कर रही हो ? स्कन्दश्री ने विजय चोर सेनापति से कहा – देवानुप्रिय ! मुझे गर्भ धारण किये हुए तीन मास हो चूके हैं। मुझे पूर्वोक्त दोहद हुआ, उसकी पूर्ति न होने से आर्तध्यान कर रही हूँ। तब विजय चोर सेनापति ने अपनी स्कन्दश्री भार्या का यह कथन सून और समझ कर कहा – हे सुभगे ! तुम इस दोहद की अपनी ईच्छा के अनुकूल पूर्ति कर सकती हो, इसकी चित्ता न करो। तदनन्तर वह स्कन्दश्री पति के वचनों को सूनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई। हर्षातिरेक से बहुत सहचारियों व चोरमहिलाओं को साथ में लेकर स्नानादि से निवृत्त हो, अलंकृत होकर विपुल अशन, पान, व सुरा मदिरा आदि का आस्वादन, विस्वादन करने लगी। इस तरह सबके साथ भोजन करने के पश्चात् उचित स्थान पर एकत्रित होकर पुरुषवेश को धारण कर तथा दृढ़ बन्धनों से बंधे हुए लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को शरीर पर धारण करके यावत् भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती है। दोहद के सम्पूर्ण होने, सम्मानित होने, विनीत होने, तथा सम्पन्न होने पर अपने उस गर्भ को परमसुख – पूर्वक धारण करती हुई रहने लगी। तदनन्तर उस चोर सेनापति की पत्नी स्कन्दश्री ने नौ मास के परिपूर्ण होन पर पुत्र को जन्म दिया। विजय चोर सेनापति ने भी दश दिन पर्यन्त महान वैभव के साथ स्थिति – पतित कुलक्रमागत उत्सव मनाया। उसके बाद बालक के जन्म के ग्यारहवे दिन विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराया। मित्र, ज्ञाति, स्वजनों आदि को आमन्त्रित किया, जिमाया और उनके सामने इस प्रकार कहा, ‘जिस समय यह बालक गर्भ में आया था, उस समय इसकी माता को एक दोहद उत्पन्न हुआ था, अतः माता को जो दोहद उत्पन्न हुआ वह अभग्न रहा तथा निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। इसलिए इस बालक का ‘अभग्नसेन’ यह नामकरण किया जाता है।’ तदनन्तर यह अभग्न – सेन बालक क्षीरधात्री आदि पाँच धायमाताओं के द्वारा सँभाला जाता हुआ वृद्धि को प्राप्त होने लगा।
अनुक्रम से कुमार अभग्नसेन ने बाल्यावस्था को पार करके युवावस्था में प्रवेश किया। आठ कन्याओं के साथ उसका विवाह हुआ। विवाह में उसके माता – पिता ने आठ – आठ प्रकार की वस्तुएं प्रीतिदान में दीं और वह ऊंचे प्रासादों में रहकर मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करने लगा। तत्पश्चात् किसी समय वह विजय चोर सेनापति कालधर्म को प्राप्त हो गया। उसकी मृत्यु पर कुमार अभग्नसेन ने पाँच सौ चोरों के साथ रोते हुए, आक्रन्दन करते हुए और विलाप करते हुए अत्यन्त ठाठ के साथ एवं सत्कार सम्मान के साथ विजय चोर सेनापति का नीहरण किया। बहुत से लौकिक मृतककृत्य किए। थोड़े समय के पश्चात् अभग्नसेन शोक रहित हो गया। तदनन्तर उन पाँच सौ चोरों से बड़े महोत्सव के साथ अभग्नसेन को शालाटवी नामक चोरपल्ली में चोर सेनापति के पद पर प्रस्थापित किया। सेनापति के पद पर नियुक्त हुआ वह अभग्नसेन, अधार्मिक, अधर्मनिष्ठ, अधर्मदर्शी एवं अधर्म का आचरण करता हुआ यावत् राजदेय कर – महसूल को भी ग्रहण करने लगा। तदनन्तर अभग्नसेन चोर सेनापति के द्वारा बहुत ग्रामों के विनाश से सन्तप्त हुए उस देश के लोगों ने एक दूसरे को बुलाकर इस प्रकार कहा – हे देवानुप्रियो ! चोर सेनापति अभग्नसेन पुरिमताल नगर के उत्तरदिशा के बहुत से ग्रामों का विनाश करके वहाँ के लोगों को धन – धान्यादि से रहित कर रहा है। इसलिए हे देवानुप्रियो ! पुरिमताल नगर के महाबल राजा को इस बात से संसूचित करना अपने लिए श्रेयस्कर है। तदनन्तर देश के एकत्रित सभी जनों जहाँ पर महाबल राजा था, वहाँ महार्थ, महार्ध, महार्ह व राजा के योग्य भेंट लेकर आए और दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके महाराज को वह मूल्यवान भेंट अर्पण की। अर्पण करके महाबल राजा से बोले – ‘हे स्वामिन् ! शालाटवी नामक चोरपल्ली का चोर सेनापति अभग्नसेन ग्रामघात तथा नगरघात आदि करके यावत् हमें निर्धन बनाता है। हम चाहते हैं कि आपकी भुजाओं की छाया से संरक्षित होते हुए निर्भय और उपसर्ग रहित होकर हम सुखपूर्वक निवास करें। इस प्रकार कहकर, पैरों में पड़कर तथा दोनों हाथ जोड़कर उन प्रान्तीय पुरुषों ने महाबल नरेश से विज्ञप्ति की। महाबल नरेश उन जनपदवासियों के पास से उक्त वृत्तान्त को सूनकर रुष्ट, कुपित और क्रोध से तमतमा उठे। उसके अनुरूप क्रोध से दाँत पीसते हुए भोहें चढ़ाकर कोतवाल को बुलाते हैं और कहते हैं – देवानुप्रिय ! तुम जाओ और शालाटवी नामक चोरपल्ली को नष्ट – भ्रष्ट कर दो और उसके चोर सेनापति अभग्नसेन को जीवित पकड़कर मेरे सामने उपस्थित करो। महाबल राजा की आज्ञा को दण्डनायक विनयपूर्वक स्वीकार करता हुआ, दृढ़ बंधनों से बंधे हुए लोहमय कुसूलक आदि से युक्त कवच को धारण कर आयुधों और प्रहरणों से युक्त अनेक पुरुषों को साथ में लेकर, हाथों में फलक – ढाल बाँधे हुए यावत् क्षिप्रतूर्य के बजाने से महान् उत्कृष्ट महाध्वनि एवं सिंहनाद आदि के द्वारा समुद्र की सी गर्जना करते हुए, आकाश को विदीर्ण करते हुए पुरिमताल नगर के मध्य से नीकलकर शालाटवी चोरपल्ली की ओर जाने का निश्चय करता है। तदनन्तर अभग्नसेन चोर सेनापति के गुप्तचरों को इस वृत्तान्त का पता लगा। वे सालाटवी चोरपल्ली में, जहाँ अभग्नसेन चोर सेनापति था, आए और दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके अभग्नसेन से इस प्रकार बोले – हे देवानुप्रिय ! पुरिमताल नगर में महाबल राजा ने महान् सुभटों के समुदायों के साथ दण्डनायक – कोतवाल को बुलाकर आज्ञा दी है कि – ‘तुम लोग शीघ्र जाओ, जाकर सालाटवी चोरपल्ली को नष्ट – भ्रष्ट कर दो और उसके सेनापति अभग्नसेन को जीवित पकड़ लो और पकड़कर मेरे सामने उपस्थित करो।’ राजा की आज्ञा को शिरोधार्य करके कोतवाल योद्धाओं के समूह के साथ सालाटवी चोरपल्ली में आने के लिए रवाना हो चूका है। तदनन्तर उस अभग्नसेन सेनापति ने अपने गुप्तचरों की बातों को सूनकर तथा विचारकर अपने पाँच सौ चोरों को बुलाकर कहा – देवानुप्रियो ! पुरिमताल नगर के महाबल राजा ने आज्ञा दी है कि यावत् दण्डनायक ने चोरपल्ली पर आक्रमण करने का तथा मुझे जीवित पकड़ने को यहाँ आने का निश्चय कर लिया है, अतः उस दण्डनायक को सालाटवी चोर – पल्ली पहुँचने से पहले ही मार्ग में रोक देना हमारे लिए योग्य है। अभग्नसेन सेनापति के इस परामर्श को ‘तथेति’ ऐसा कहकर पाँच सौ चोरों ने स्वीकार किया। तदनन्तर अभग्नसेन चोर सेनापति ने अशन, पान, खादिम और स्वादिम – अनेक प्रकार की स्वादिष्ट भोजन सामग्री तैयार कराई तथा पाँच सौ चोरों के साथ स्नानादि क्रिया कर दुःस्वप्नादि के फलों को निष्फल करने के लिए मस्तक पर तिलक तथा अन्य माङ्गलिक कृत्य करके भोजनशाला में उस विपुल अशनादि वस्तुओं तथा पाँच प्रकार की मदिराओं का यथारुचि आस्वादन, विस्वादन आदि किया। भोजन के पश्चात् योग्य स्थान पर आचमन किया, मुख के लेपादि को दूर कर, परम शुद्ध होकर, पाँच सौ चोरों के साथ आर्द्रचर्म पर आरोहण किया। दृढ़बन्धनों से बंधे हुए, लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण करके यावत् आयुधों और प्रहरणों से सुसज्जित होकर हाथों में ढालें बाँधकर यावत् महान् उत्कृष्ट, सिंहनाद आदि शब्दों के द्वारा समुद्र के समान गर्जन करते हुए एवं आकाशमण्डल को शब्दायमान करते हुए अभग्नसेन ने सालाटवी चोरपल्ली से मध्याह्न के समय प्रस्थान किया। खाद्य पदार्थों को साथ लेकर विषम और दूर्ग – गहन वन में ठहरकर वह दण्डनायक की प्रतीक्षा करने लगा। उसके बाद वह कोतवाल जहाँ अभग्नसेन चोर सेनापति था, वहाँ पर आता है, और आकर अभग्नसेन चोर सेनापति के साथ युद्ध में संप्रवृत हो जाता है। तदनन्तर, अभग्नसेन चोर सेनापति ने उस दण्डनायक को शीघ्र ही हतमथित कर दिया, वीरों का घात किया, ध्वजा पताका को नष्ट कर दिया, दण्डनायक का भी मानमर्दन कर उसे और उसके साथियों को इधर उधर भगा दिया। तदनन्तर अभग्नसेन चोर सेनापति के द्वारा हत – मथित यावत् प्रतिषेधित होने से तेजोहीन, बलहीन, वीर्यहीन तथा पुरुषार्थ और पराक्रम से हीन हुआ वह दण्डनायक शत्रुसेना को परास्त करना अशक्य जानकर पुनः पुरिमताल नगर में महाबल नरेश के पास आकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दसों नखों की अञ्जलि कर इस प्रकार कहने लगा – प्रभो ! चोर सेनापति अभग्नसेन ऊंचे, नीचे और दुर्ग – गहन वन में पर्याप्त खाद्य तथा पेय सामग्री के साथ अवस्थित है। अतः बहुल अश्वबल, गजबल, योद्धाबल और रथबल, कहाँ तक कहूँ – चतुरङ्गिणी सेना के साक्षात् बल से भी वह जीते जी पकड़ा नहीं जा सकता है ! तब राजा ने सामनीति, भेदनीति व उपप्रदान नीति से उसे विश्वास में लाने के लिए प्रवृत्त हुआ। तदर्थ वह उसके शिष्य – तुल्य, समीप में रहने वाले पुरुषों को तथा मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को धन, स्वर्ण, रत्न और उत्तम सारभूत द्रव्यों के द्वारा तथा रुपयों पैसों का लोभ देकर उससे जुदा करने का प्रयत्न करता है और अभग्नसेन चोर सेनापति को भी बार बार महाप्रयोजन वाली, सविशेष मूल्य वाली, बड़े पुरुष को देने योग्य यहाँ तक कि राजा के योग्य भेंट भेजने लगा। इस तरह भेंट भेजकर अभग्नसेन चोर सेनापति को विश्वास में ले आता है I
तदनन्तर किसी अन्य समय महाबल राजा ने पुरिमताल नगर में महती सुन्दर व अत्यन्त विशाल, मन में हर्ष उत्पन्न करने वाली, दर्शनीय, जिसे देखने पर भी आँखें न थकें ऐसी सैकड़ों स्तम्भों वाली कूटाकारशाला बनवायी। उसके बाद महाबल नरेश ने किसी समय उस षड्यन्त्र के लिए बनवाई कूटाकारशाला के निमित्त उच्छुल्क यावत् दश दिन के प्रमोद उत्सव की उद्घोषणा कराई। कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा कि – हे भद्रपुरुषों ! तुम शालाटवी चोरपल्ली में जाओ और वहाँ अभग्नसेन चोर सेनापति से दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दस नखों वाली अञ्जलि करके, इस प्रकार निवेदन करो – हे देवानुप्रिय ! पुरिमताल नगर में महाबल नरेश ने उच्छुल्क यावत् दश दिन पर्यन्त प्रमोद – उत्सव की घोषणा कराई है, तो क्या आप के लिए विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तथा पुष्प वस्त्र माला अलङ्कार यहीं पर लाकर उपस्थित किए जाएं अथवा आप स्वयं वहाँ इस प्रसंग पर उपस्थित होंगे? तदनन्तर वे कौटुम्बिक पुरुष महाबल नरेश की इस आज्ञा को दोनों हाथ जोड़कर यावत् अञ्जलि करके ‘जी हाँ स्वामी’ कहकर विनयपूर्वक सूनते हैं, सूनकर पुरिमताल नगर से नीकलते हैं। छोटी – छोटी यात्राएं करते हुए, तथा सुखजनक विश्राम – स्थानों पर प्रातःकालीन भोजन आदि करते हुए जहाँ शालाटवी नामक चोर – पल्ली थी वहाँ पहुँचे। वहाँ पर अभग्नसेन चोर सेनापति से दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दसों नखोंवाली अञ्जलि करके इस प्रकार निवेदन करने लगे – देवानुप्रिय ! पुरिमताल नगरमें महाबल नरेश ने उच्छुल्क यावत् दस दिनों का प्रमोद उत्सव घोषित किया है, तो आपके लिए अशन, पान, खादिम, स्वादिम, पुष्पमाला, अलंकार यहाँ पर ही उपस्थित किये जाएं अथवा आप स्वयं वहाँ पधारते हैं ? तब अभग्नसेन सेनापति ने कहा – ‘हे पुरुषों ! मैं स्वयं ही प्रमोद – उत्सवमें पुरिमताल नगर आऊंगा।’ तत्पश्चात् अभग्नसेन ने उनका उचित सत्कार – सम्मान करके उन्हें बिदा किया। तदनन्तर मित्र, ज्ञाति व स्वजन – परिजनों से घिरा हुआ वह अभग्नसेन चोर सेनापति स्नानादि से निवृत्त हो यावत् अशुभ स्वप्न का फल विनष्ट करने के लिए प्रायश्चित्त के रूप में मस्तक पर तिलक आदि माङ्गलिक अनुष्ठान करके समस्त आभूषणों से अलंकृत हो शालाटवी चोरपल्ली से नीकलकर जहाँ पुरिमताल नगर था और महाबल नरेश थे, वहाँ पर आता है। आकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दश नखों वाली अञ्जलि करके महाबल राजा को ‘जय – विजय शब्द से बधाई देकर महार्थ यावत् राजा के योग्य प्राभृत – भेंट अर्पण करता है। तदनन्तर महाबल राजा उस अभग्नसेन चोर सेनापति द्वारा अर्पित किए गए उपहार को स्वीकार करके उसे सत्कार – सम्मानपूर्वक – अपने पास से बिदा करता हुआ कूटाकारशाला में उसे रहने के लिए स्थान देता है। तदनन्तर अभग्नसेन चोर सेनापति महाबल राजा के द्वारा सत्कारपूर्वक विसर्जित होकर कूटाकारशाला में आता है और वहाँ पर ठहरता है। इसके बाद महाबल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा – तुम लोग विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, पुष्प, वस्त्र, गंधमाला, अलंकार एवं सूरादि मदिराओं तैयार कराओ और कूटाकार – शालामें चोर सेनापति अभग्नसेन की सेवामें पहुँचा दो। कौटुम्बिक पुरुषों ने हाथ जोड़कर यावत् अञ्जलि करके राजा की आज्ञा स्वीकार की और तदनुसार विपुल अशनादिक सामग्री वहाँ पहुँचा दी। तदनन्तर अभग्नसेन चोर सेनापति स्नानादि से निवृत्त हो, समस्त आभूषणों को पहनकर अपने बहुत से मित्रों व ज्ञातिजनों आदि के साथ उस विपुल अशनादिक तथा पंचविध मदिराओं का सम्यक् आस्वादन विस्वादन करता हुआ प्रमत्त – बेखबर होकर विहरण करने लगा। पश्चात् महाबल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को इस प्रकार कहा – ‘हे देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ और जाकर पुरिमताल नगर के दरवाजों को बन्द कर दो और अभग्नसेन चोर सेनापति को जीवित स्थिति में ही पकड़ लो और पकड़कर मेरे सामने उपस्थित करो।’ तदनन्तर कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा की यह आज्ञा हाथ जोड़कर यावत् दश नखों वाली अञ्जलि करके शिरोधार्य की और पुरिमताल नगर के द्वारों को बन्द करके चोर सेनापति अभग्नसेन को जीवित पकड़कर महाबल नरेश के समक्ष उपस्थित किया। तत्पश्चात् महाबल नरेश ने अभग्नसेन चोर सेनापति को इस विधि से वध करने की आज्ञा प्रदान कर दी। हे गौतम ! इस प्रकार निश्चित रूप से वह चोर सेनापति अभग्नसेन पूर्वोपार्जित पापकर्मों के नरक तुल्य विपाकोदय के रूपमें घोर वेदना का अनुभव कर रहा है। अहो भगवन् ! वह अभग्नसेन चोर सेनापति कालावसर में काल करके कहाँ जाएगा ? तथा कहाँ उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! अभग्नसेन चोर सेनापति ३७ वर्ष की परम आयु को भोगकर आज ही त्रिभागावशेष दिनमें सूली पर चढ़ाये जाने से काल करके रत्नप्रभा नामक प्रथम नरकमें उत्कृष्ट एक सागरोपम स्थितिक नारकी रूप से उत्पन्न होगा। फिर प्रथम नरक से नीकलकर प्रथम अध्ययन में प्रतिपादित मृगापुत्र के संसार – भ्रमण की तरह इसका भी परिभ्रमण होगा, यावत् पृथ्वीकाय, अप्काय, वायुकाय, तेजस्काय आदि में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहाँ से नीकलकर बनारस नगरीमें शूकर के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ शूकर के शिकारियों द्वारा उसका घात किया जाएगा। तत्पश्चात् उसी बनारस नगरी के श्रेष्ठिकुलमें पुत्र रूप से उत्पन्न होगा। वहाँ बालभाव पार कर युवावस्था को प्राप्त होता हुआ, प्रव्रजित होकर, संयमपालन करके यावत् निर्वाण पद प्राप्त करेगा I