उस काल तथा उस समय में पाटलिखंड नगर था। वहाँ वनखण्ड उद्यान था। उस उद्यान में उम्बरदत्त नामक यक्ष का यक्षायतन था। उस नगर में सिद्धार्थ राजा था। पाटलिखण्ड नगर में सागरदत्त नामक धनाढ्य सार्थवाह था। उसकी गङ्गदत्ता भार्या थी। उस सागरदत्त का पुत्र व गङ्गदत्ता भार्या का आत्मज उम्बरदत्त नाम अन्यून व परिपूर्ण पञ्चेन्द्रियों से युक्त सुन्दर शरीर वाला एक पुत्र था। उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर वहाँ पधारे, यावत्‌ धर्मोपदेश सूनकर राजा तथा परिषद्‌ वापिस चले गए। उस काल तथा उस समय गौतम स्वामी के पारणे के निमित्त भिक्षा के लिए पाटलिखण्ड नगर में पूर्वदिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं। वहाँ एक पुरुष को देखते हैं, वह पुरुष कण्डू, कोढ, जलोदर, भगन्दर तथा अर्श के रोग से ग्रस्त था। उसे खाँसी, श्वास व सूजन का रोग भी हो रहा था। उसका मुख, हाथ और पैर भी सूजे हुए थे। हाथ और पैर की अङ्गुलियाँ सड़ी हुई थीं, नाक और कान गले हुए थे। व्रणों से नीकलते सफेद गन्दे पानी तथा पीव से वह ‘थिव थिव’ शब्द कर रहा था। कृमियों से अत्यन्त ही पीड़ित तथा गिरते हुए पीव और रुधिरवाले व्रणमुखों से युक्त था। उसके कान और नाक फोड़े के बहाव के तारों से गल चूके थे। वारंवार वह पीव, रुधिर, तथा कृमियों के कवलों का वमन कर रहा था। वह कष्टोत्पादक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण शब्द कर रहा था। उसके पीछे – पीछे मक्षिकाओं के झुण्ड के झुण्ड चले जा रहे थे। उसके सिर के बाल अस्तव्यस्त थे। उसने थिगलीवाले वस्त्रखंड धारण कर रखे थे। फूटे हुए घड़े का टुकड़ा उसका भिक्षापात्र था। सिकोरे का खंड उसका जल – पात्र था, जिसे वह हाथ में लिए हुए घर – घर में भिक्षावृत्ति के द्वारा आजीविका कर रहा था। इधर भगवान गौतम स्वामी ऊंच, नीच और मध्यम घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए पाटलिखण्ड नगर से नीकलकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आकर भक्तपान की आलोचना की और आहार – पानी भगवान को दिखलाकर, उनकी आज्ञा मिल जाने पर बिल में प्रवेश करते हुए सर्प की भाँति आहार करते हैं और संयम तथा तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। उसके बाद भगवान गौतमस्वामी ने दूसरी बार बेले के पारणे के निमित्त प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया यावत्‌ भिक्षार्थ गमन करते हुए पाटलिखण्ड नगर में दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश किया तो वहाँ पर भी उन्होंने कंडू आदि रोगों से युक्त उसी पुरुष को देखा और वे भिक्षा लेकर वापिस आए। यावत्‌ तप व संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। तदनन्तर भगवान गौतम तीसरी बार बेले के पारणे के निमित्त उसी नगर में पश्चिम दिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं, तो वहाँ पर भी वे उसी पूर्ववर्णित पुरुष को देखते हैं। इसी प्रकार गौतम चौथी बार बेले के पारणे के लिए पाटलिखण्ड में उत्तरदिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं। तब भी उन्होंने उसी पुरुष को देखा। उसे देखकर मन में यह संकल्प हुआ कि – अहो ! यह पुरुष पूर्वकृत्‌ अशुभ कर्मों के कटु – विपाक को भोगता हुआ दुःखपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है यावत्‌ वापिस आकर उन्होंने भगवान से कहा – ‘भगवन्‌ ! मैंने बेले के पारणे के निमित्त यावत्‌ पाटलिखण्ड नगर की ओर प्रस्थान किया और नगर के पूर्व दिशा के द्वार से प्रवेश किया तो मैंने एक पुरुष को देखा जो कण्डूरोग से आक्रान्त यावत्‌ भिक्षावृत्ति से आजीविका कर रहा था। फिर दूसरी बार, तीसरी बार, यावत्‌ जब चौथी बार में बेले के पारण के निमित्त पाटलिखण्ड में उत्तर दिग्द्वार से प्रविष्ट हुआ तो वहाँ पर भी कंडूरोग से ग्रस्त भिक्षावृत्ति करते हुए उस पुरुष को देखा। उसे देखकर मेरे मानस में यह विचार उत्पन्न हुआ कि अहो ! यह पुरुष पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का फल भुगत रहा है; इत्यादि। प्रभो ! यह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? जो इस प्रकार भीषण रोगों से आक्रान्त हुआ कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है ? भगवान महावीर ने कहा – हे गौतम ! उस काल और उस समय में इस जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में विजयपुर नाम का ऋद्ध, स्तिमित व समृद्ध नगर था। उसमें कनकरथ राजा था। उस कनकरथ का धन्वन्तरि नाम का वैद्य था जो आयुर्वेद के आठों अङ्गों का ज्ञाता था। आयुर्वेद के आठों अङ्गों का नाम इस प्रकार है – कौमारमृत्यु, शालाक्य, शाल्यहत्य, कायचिकित्सा, जांगुल, भूतविद्या, रसायन, वाजीकरण। वह धन्वन्तरि वैद्य शिवहस्त, शुभहस्त व लघुहस्त था। वह धन्वन्तरि वैद्य विजयपुर नगर के महाराज कनकरथ के अन्तःपुर में निवास करने वाली रानियों को तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर यावत्‌ सार्थवाहों को तथा इसी तरह अन्य बहुत से दुर्बल, ग्लान, रोगी, व्याधित या बाधित, रुग्ण व्यक्तियों को एवं सनाथों, अनाथों, श्रमणों – ब्राह्मणों, भिक्षुकों, कापालिकों, कार्पटिकों, अथवा भिखमंगों और आतुरों की चिकित्सा किया करता था। उनमें से कितने को मत्स्यमाँस खाने का, कछुओं के माँस का, ग्राह के माँस का, मगरों के माँस का, सुंसुमारों के माँस का, बकरा के माँस खाने का उपदेश दिया करता था। इसी प्रकार भेड़ों, गवयों, शूकरों, मृगों, शशकों, गौओं और महिषों का माँस खाने का भी उपदेश करता था। कितनों को तित्तरों के माँस का, बटेरों, लावकों, कबूतरों, कुक्कुटों, व मयूरों के माँस का उपदेश देता। इसी भाँति अन्य बहुत से जलचरों, स्थलचरों तथा खेचरों आदि के माँस का उपदेश करता था। यही नहीं, वह धन्वन्तरि वैद्य स्वयं भी उन अनेकविध मत्स्यमाँसों, मयूरमाँसों तथा अन्य बहुत से जलचर, स्थलचर व खेचर जीवों के माँसों से तथा मत्स्यरसों व मयूररसों से पकाये हुए, तले हुए, भूने हुए माँसों के साथ पाँच प्रकार की मदिराओं का आस्वादन व विस्वादन, परिभाजन एवं बार – बार उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करता था। तदनन्तर वह धन्वन्तरि वैद्य इन्हीं पापकर्मों वाला इसी प्रकार की विद्या वाला और ऐसा ही आचरण बनाये हुए, अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके ३२ सौ वर्ष की परम आयु को भोगकर काल मास में काल करके छट्ठी नरकपृथ्वी में २२ सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। उस समय सागरदत्त की गङ्गदत्ता भार्या जातनिन्दुका थी। अत एव उसके बालक उत्पन्न होने के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे। एक बार मध्यरात्रि में कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता से जागती उस गंगदत्ता सार्थवाही के मन में संकल्प उत्पन्न हुआ, मैं चिरकाल से सागरदत्त सार्थवाह के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार – प्रधान कामभोगों का उपभोग करती आ रही हूँ परन्तु मैंने आज तक जीवित रहने वाले एक भी बालक अथवा बालिका को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया है। वे माताएं धन्य हैं, कृतपुण्य हैं, उन्हीं का वैभव सार्थक है और उन्होंने ही मनुष्य सम्बन्धी जन्म और जीवन को सफल किया है, जिनके स्तनगत दूध में लुब्ध, मधुर भाषण से युक्त, व्यक्त तथा स्खलित – तुतलाते वचन वाले, स्तनमूल प्रदेश से कांख तक अभिसरणशील नितान्त सरल, कमल के समान कोमल सुकुमार हाथों से पकड़कर गोद में स्थापित किये जाने वाले व पुनः पुनः सुमधुर कोमल – मंजुल वचनों को बोलने वाले अपने ही कुक्षि – उदर से उत्पन्न हुए बालक या बालिकाएं हैं। उन माताओं को मैं धन्य मानती हूँ। उनका जन्म भी सफल और जीवन भी सफल है। मैं अधन्या हूँ, पुण्यहीन हूँ, मैंने पुण्योपार्जन नहीं किया है, क्योंकि, मैं इन बालसुलभ चेष्टाओं वाले एक सन्तान को भी उपलब्ध न कर सकी। अब मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं प्रातःकाल, सूर्य उदय होते ही, सागरदत्त सार्थवाह से पूछकर विविध प्रकार के पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलङ्कार लेकर बहुत से ज्ञातिजनों, मित्रों, निजकों, स्वजनों, सम्बन्धीजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिखण्ड नगर से नीकलकर बाहर उद्यान में, जहाँ उम्बरदत्त यक्ष का यक्षायतन है, वहाँ जाकर उम्बरदत्त यक्ष की महार्ह पुष्पार्चना करके और उसके चरणों में नतमस्तक हो, इस प्रकार प्रार्थनापूर्ण याचना करूँ – ‘हे देवानुप्रिय ! यदि मैं अब जीवित रहने वाले बालिका या बालक को जन्म दूँ तो मैं तुम्हारे याग, दान, भाग, व देव भंडार में वृद्धि करूँगी।’ इस प्रकार ईप्सित वस्तु की प्रार्थना के लिए उसने निश्चय किया। प्रातःकाल सूर्योदय होने के साथ ही जहाँ पर सागरदत्त सार्थवाह था, वहाँ पर आकर सागरदत्त सार्थवाह से कहने लगी – ‘हे स्वामिन्‌ ! मैंने आपके साथ मनुष्य सम्बन्धी सांसारिक सुखों का पर्याप्त उपभोग करते हुए आजतक एक भी जीवित रहने वाले बालक या बालिका को प्राप्त नहीं किया। अतः मैं चाहती हूँ किय दि आप आज्ञा दे तो मैं अपने मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकों, स्वजनों, सम्बन्धीजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिखण्ड नगर से बाहर उद्यान में उम्बरदत्त यक्ष की महार्ह पुष्पार्चना कर पुत्रोपलब्धि के लिए मनौती मनाऊं।’ ‘भद्रे ! मेरी भी यही ईच्छा है कि किसी प्रकार तुम्हारे जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री उत्पन्न हों।’ उसने गंगदत्ता के उक्त प्रस्ताव का समर्थन किया। तब सागरदत्त सार्थवाह की आज्ञा प्राप्त कर वह गंगदत्ता भार्या विविध प्रकार के पुष्प, वस्त्र, गंध, माला एवं अलंकार तथा विविध प्रकार की पूजा की सामग्री लेकर, मित्र, ज्ञाति, स्वजन, सम्बन्धी एवं परिजनों की महिलाओं के साथ अपने घर से नीकली और पाटलिखण्ड नगर के मध्य से होती हुई एक पुष्करिणी के समीप पहुँची। पुष्करिणी में प्रवेश किया। वहाँ जलमज्जन एवं जलक्रीड़ा कर कौतुक तथा मंगल प्रायश्चित्त को करके गीली साड़ी पहने हुए वह पुष्करिणी से बाहर आई। पुष्पादि पूजासामग्री को लेकर उम्बरदत्त यक्ष के यक्षायतन के पास पहुँची। यक्ष को नमस्कार किया। फिर लोमहस्तक लेकर उसके द्वारा यक्षप्रतिमा का प्रमार्जन किया। जलधारा से अभिषेक किया। कषायरंग वाले सुगन्धित एवं सुकोमल वस्त्र से उसके अंगों को पोंछा। श्वेत वस्त्र पहनाया, महार्ह, पुष्पारोहण, वस्त्रारोहण, गन्धारोहण, माल्यारोहण और चूर्णारोहण किया। धूप जलाकर यक्ष के सन्मुख घुटने टेककर पाँव में पड़कर इस प्रकार निवेदन किया – ‘जो मैं एक जीवित बालक या बालिका को जन्म दूँ तो याग, दान एवं भण्डार की वृद्धि करूँगी।’ इस प्रकार – यावत्‌ याचना करती है फिर जिधर से आयी थी उधर लौट जाती है। तदनन्तर वह धन्वन्तरि वैद्य का जीव नरक से नीकलकर इसी पाटलिखण्ड नगर में गंगदत्ता भार्या की कुक्षि में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। लगभग तीन मास पूर्ण हो जाने पर गंगदत्ता भार्या को यह दोहद उत्पन्न हुआ। ‘धन्य हैं वे माताएं यावत्‌ उन्होंने अपना जन्म और जीवन सफल किया है जो विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम और सुरा आदि मदिराओं को तैयार करवाती हैं और अनेक मित्र, ज्ञाति आदि की महिलाओं से परिवृत्त होकर पाटलिखण्ड नगर के मध्य में से नीकलकर पुष्करिणी पर जाती हैं। जल स्नान व अशुभ – स्वप्न आदि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक कार्य करके उस विपुल अशनादिक का मित्र, ज्ञातिजन आदि की महिलाओं के साथ आस्वादनादि करती हुई दोहद को पूर्ण करती हैं।’ इस तरह विचार करके प्रातःकाल जाज्वल्यमान सूर्य के उदित हो जाने पर जहाँ सागरदत्त सार्थवाह था, वहाँ पर आकर सागरदत्त सार्थवाह से कहती है – ‘स्वामिन्‌ ! वे माताएं धन्य हैं जो यावत्‌ उक्त प्रकार से अपना दोहद पूर्ण करती हैं। मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करना चाहती हूँ।’ सागरदत्त सार्थवाह भी दोहदपूर्ति के लिए गंगदत्ता भार्या को आज्ञा दे देता है। सागरदत्त सार्थवाह से आज्ञा प्राप्त कर गंगदत्ता पर्याप्त मात्रा में अशनादिक चतुर्विध आहार तैयार करवाती है और उपस्कृत आहार एवं छह प्रकार के मदिरादि पदार्थ तथा बहुत सी पुष्पादि पूजासामग्री को लेकर मित्र, ज्ञातिजन आदि की तथा अन्य महिलाओं को साथ लेकर यावत्‌ स्नान तथा अशुभ स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक अनुष्ठान करके उम्बरदत्त यक्ष के आयतन में आ जाती है। वहाँ पहले की ही तरह पूजा करती व धूप जलाती है। तदनन्तर पुष्करिणी – वावड़ी पर आ जाती है, वहाँ पर साथ में आने वाली मित्र, ज्ञाति आदि महिलाएं गंगदत्ता को सर्व अलङ्कारों से विभूषित करती हैं, तत्पश्चात्‌ उन मित्रादि महिलाओं तथा अन्य महिलाओं के साथ उस विपुल अशनादिक तथा षड्‌विध सुरा आदि का आस्वादन करती हुई गंगदत्ता अपने दोहद – मनोरथ को परिपूर्ण करती है। इस तरह दोहद को पूर्ण कर वह वापिस अपने घर आ जाती है। तदनन्तर सम्पूर्णदोहदा, सन्मानितदोहदा, विनीतदोहदा, व्युच्छिन्नदोहदा, सम्पन्नदोहदा वह गंगदत्ता उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती है। तत्पश्चात्‌ नौ मास परिपूर्ण होने पर उस गंगदत्ता ने एक बालक को जन्म दिया। माता – पिता ने स्थिति – पतिता मनाया। फिर उसका नामकरण किया, ‘यह बालक क्योंकि उम्बरदत्त यक्ष की मान्यता मानने से जन्मा है, अतः इसका नाम भी ‘उम्बरदत्त’ ही हो। तदनन्तर उम्बरदत्त बालक पाँच धायमाताओं द्वारा गृहीत होकर वृद्धि को प्राप्त करने लगा। तदनन्तर सागरदत्त सार्थवाह भी विजयमित्र की ही तरह कालधर्म को प्राप्त हुआ। गंगदत्ता भी कालधर्म को प्राप्त हुई। इधर उम्बरदत्त को भी उज्झितकुमार की तरह राजपुरुषों ने घर से नीकाल दिया। उसका घर किसी अन्य को सौंप दिया। तत्पश्चात्‌ किसी समय उम्बरदत्त के शरीर में एक ही साथ सोलह प्रकार के रोगातङ्क उत्पन्न हो गये, जैसे कि – श्वास, कास यावत्‌ कोढ़ आदि। इन सोलह प्रकार के रोगातङ्कों से अभिभूत हुआ उम्बरदत्त खुजली यावत्‌ हाथ आदि के सड़ जाने से दुःखपूर्ण जीवन बिता रहा हे। हे गौतम ! इस प्रकार उम्बरदत्त बालक अपने पूर्वकृत्‌ अशुभ कर्मों का यह भयङ्कर फल भोगता हुआ इस तरह समय व्यतीत कर रहा है। भगवन्‌ ! यह उम्बरदत्त बालक मृत्यु के समय में काल करके कहाँ जाएगा ? और कहाँ उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! उम्बरदत्त बालक ७२ वर्ष का परम आयुष्य भोगकर कालमास में काल करके रत्नप्रभा नरक में नारक रूप से उत्पन्न होगा। वह पूर्ववत्‌ संसार भ्रमण करता हुआ पृथिवी आदि सभी कायों में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहाँ से नीकलकर हस्तिनापुर में कुर्कुट – के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ जन्म लेने के साथ ही गोष्ठिकों द्वारा वध को प्राप्त होगा। पुनः हस्तिनापुर में ही एक श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा। वहाँ सम्यक्त्व प्राप्त करेगा। वहाँ से सौधर्म कल्प में जन्म लेगा। वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा। वहाँ अनगार धर्म को प्राप्त कर यथाविधि संयम की आराधना कर, कर्मों का क्षय करके सिद्धि को प्राप्त होगा I