हे जम्बू ! उस काल उस समय में मृगाग्राम नाम का एक नगर था। उस नगर के बाहर ईशान कोण में सब ऋतुओं में होने वाले फल पुष्प आदि से युक्त चन्दन – पादप नामक एक उपवन था। उस मृगाग्राम नामक नगर में विजय नामका एक क्षत्रिय राजा था। उसकी मृगा नामक रानी थी। उस विजय क्षत्रिय का पुत्र और मृगा देवी का आत्मज मृगापुत्र नामका एक बालक था। वह बालक जन्म के समय से ही अन्धा, गूँगा, बहरा, लूला, हुण्ड था। वह वातरोग से पीड़ित था। उसके हाथ, पैर, कान, आँख और नाक भी न थे। इन अंगोपांगों का केवल आकार ही था और वह आकार – चिह्न भी नाम – मात्र का था। वह मृगादेवी गुप्त भूमिगृह में गुप्तरूप से आहारादि के द्वारा उस बालक का पालन – पोषण करती हुई जीवन बिता रही थी। उस मृगाग्राम में एक जन्मान्ध पुरुष रहता था। आँखों वाला एक व्यक्ति उसकी लकड़ी पकड़े रहा रहता था। उसके मस्तक के बाल बिखरे हुए थे। उसके पीछे मक्खियों के झुण्ड भिनभिनाते रहते थे। ऐसा वह जन्मान्ध पुरुष मृगाग्राम नगर के घर – घर में कारुण्यमय भिक्षावृत्ति से अपनी आजीविका चला रहा था। उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान महावीर पधारे। जनता दर्शनार्थ नीकली। तदनन्तर विजय नामक क्षत्रिय राजा भी महाराजा कूणिक की तरह नगर से चला यावत् समवसरण में जाकर भगवान की पर्युपासना करने लगा। तदनन्तर वह जन्मान्ध पुरुष नगर के कोलाहलमय वातावरण को जानकर उस पुरुष के प्रति इस प्रकार बोला – हे देवानुप्रिय ! क्या आज मृगाग्राम नगर में इन्द्र – महोत्सव है ? यावत् नगर के बाहर जा रहे हैं? उस पुरुष ने जन्मान्ध से कहा – आज इस गाम में इन्द्रमहोत्सव नहीं है किन्तु श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे हैं; वहाँ ये सब जा रहे हैं। तब उस जन्मान्ध पुरुष ने कहा – ‘चलो, हम भी चलें और भगवान की पर्युपासना करें। तदनन्तर दण्ड के द्वारा आगे को ले जाया जाता हुआ वह जन्मान्ध पुरुष जहाँ पर श्रमण भगवान महावीर बिराजमान थे वहाँ पर आ गया। तीन बार प्रदक्षिणा करता है। वंदन – नमस्कार करता है। भगवान की पर्युपासना में तत्पर हुआ। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने विजय राजा तथा नगर – जनत को धर्मोपदेश दिया। यावत् कथा सूनकर विजय राजा तथा परिषद् यथास्थान चले गए।
उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति नाम के अनगार भी वहाँ बिराजमान थे। गौतमस्वामी ने उस जन्मान्ध पुरुष को देखा। जातश्रद्ध गौतम इस प्रकार बोले – ‘अहो भगवन् ! क्या कोई ऐसा पुरुष भी है कि जो जन्मान्ध व जन्मान्धरूप हो ?’ भगवान ने कहा – ‘हाँ, है !’ ‘हे प्रभो ! वह पुरुष कहाँ है ?’ भगवान ने कहा – ‘हे गौतम ! इसी मृगाग्राम नगर में विजयनरेश का पुत्र और मृगादेवी का आत्मज मृगा – पुत्र नाम का बालक है, जो जन्मतः अन्धा तथा जन्मान्धरूप है। उसके हाथ, पैर, चक्षु आदि अङ्गोपाङ्ग भी नहीं है। मात्र उन अङ्गोंपाङ्गों के आकार ही हैं। उसकी माता मृगादेवी उसका पालन – पोषण सावधानी पूर्वक छिपे – छिपे कर रही है। तदनन्तर भगवान गौतम ने भगवान महावीर स्वामी के चरणों में वन्दन – नमस्कार किया। उनसे बिनती की – ‘हे प्रभो ! यदि आपकी अनुज्ञा प्राप्त हो तो मैं मृगापुत्र को देखना चाहता हूँ।’ भगवान ने फरमाया – ‘गौतम ! जैसे तुम्हें सुख उपजे वैसा करो।’ तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के द्वारा आज्ञा प्राप्त कर प्रसन्न व सन्तुष्ट हुए श्री गौतमस्वामी भगवान के पास से नीकले। विवेकपूर्वक भगवान गौतम स्वामी जहाँ मृगाग्राम नगर था वहाँ आकर नगर में प्रवेश किया। क्रमशः जहाँ मृगादेवी का घर था, गौतम स्वामी वहाँ पहुँच गए। तदनन्तर उस मृगादेवी ने भगवान गौतमस्वामी को आते हुए देखा और देखकर हर्षित प्रमुदित हुई, इस प्रकार कहने लगी – ‘भगवन् ! आपके पधारने का क्या प्रयोजन है ?’ गौतम स्वामी ने कहा – ‘हे देवानुप्रिये ! मैं तुम्हारे पुत्र को देखने आया हूँ !’ तब मृगादेवी ने मृगापुत्र के पश्चात् उत्पन्न हुए चार पुत्रों को वस्त्र – भूषणादि से अलंकृत करके गौतमस्वामी के चरणों में रखा और कहा – ‘भगवन् ! ये मेरे पुत्र हैं; इन्हें आप देख लीजिए।’ भगवान गौतम मृगादेवी से बोले – हे देवानुप्रिये ! मैं तुम्हारे इन पुत्रों को देखने के लिए यहाँ नहीं आया हूँ, किन्तु तुम्हारा जो ज्येष्ठ पुत्र मृगापुत्र है, जो जन्मान्ध व जन्मान्धरूप है, तथा जिसको तुमने एकान्त भूमिगृह में गुप्तरूप से सावधानी पूर्वक रखा है और छिपे – छिपे खानपान आदि के द्वारा जिसके पालन – पोषण में सावधान रह रही हो, उसी को देखने मैं यहाँ आया हूँ। यह सुनकर मृगादेवी ने गौतम से निवेदन किया कि – वे कौन तथारूप ऐसे ज्ञानी व तपस्वी हैं, जिन्होंने मेरे द्वारा एकान्त गुप्त रखी यह बात आपको यथार्थरूप में बता दी। जिससे आपने यह गुप्त रहस्य सरलता से जान लिया ? तब भगवान गौतम स्वामी ने कहा – हे भद्रे ! मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर ने ही मुझे यह रहस्य बताया है। जिस समय मृगादेवी भगवान गौतमस्वामी के साथ वार्तालाप कर रही थी उसी समय मृगापुत्र दारक के भोजन का समय हो गया। तब मृगादेवी ने भगवान गौतमस्वामी से निवेदन किया – ‘भगवन् ! आप यहीं ठहरीये, मैं अभी मृगापुत्र बालक को दिखलाती हूँ।’ इतना कहकर वह जहाँ भोजनालय था, वहाँ आकर वस्त्र – परिवर्तन करती है। लकड़े की गाड़ी ग्रहण करती है और उसमें योग्य परिमाण में अशन, पान, खादिम व स्वादिम आहार भरती है। तदनन्तर उस काष्ठ – शकट को खींचती हुई जहाँ भगवान गौतमस्वामी थे वहाँ आकर निवेदन करती है – ‘प्रभो ! आप मेरे पीछे पधारें। मैं आपको मृगापुत्र दारक बताती हूँ।’ गौतमस्वामी मृगादेवी के पीछे – पीछे चलने लगे। तत्पश्चात् वह मृगादेवी उस काष्ठ – शकट को खींचती – खींचती भूमिगृह आकर चार पड़ वाले वस्त्र से मुँह को बाँधकर भगवान गौतमस्वामी से निवेदन करने लगी – ‘हे भगवन् ! आप भी मुँह को बाँध लें।’ मृगादेवी द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भगवान गौतमस्वामी ने भी मुख – वस्त्रिका से मुख को बाँध लिया। तत्पश्चात् मृगादेवी ने पराङ्मुख होकर जब उस भूमिगृह के दरवाजे को खोला उसमें से दुर्गन्ध नीकलने लगी। वह गन्ध मरे हुए सर्प यावत् उससे भी अधिक अनिष्ट थी। तदनन्तर उस महान अशन, पान, खादिम, स्वादिम के सुगन्ध से आकृष्ट व मूर्च्छित हुए उस मृगापुत्र ने मुख से आहार किया। शीघ्र ही वह नष्ट हो गया, वह आहार तत्काल पीव व रुधिर के रूप में परिवर्तित हो गया। मृगापुत्र दारक ने पीव व रुधिर रूप में परिवर्तित उस आहार का वमन कर दिया। वह बालक अपने ही द्वारा वमन किये हुए उस पीव व रुधिर को भी खा गया। मृगापुत्र दारक की ऐसी दशा को देखकर भगवान गौतमस्वामी के मन में ये विकल्प उत्पन्न हुए – अहो ! यह बालक पूर्वजन्मों के दुश्चीर्ण व दुष्प्रतिक्रान्त अशुभ पापकर्मों के पापरूप फल को पा रहा है। नरक व नारकी तो मैंने नहीं देखे, परन्तु यह मृगापुत्र सचमुच नारकीय वेदनाओं का अनुभव करता हुआ प्रतीत हो रहा है। इन्हीं विचारों से आक्रान्त होते हुए भगवान गौतम ने मृगादेवी से पूछकर कि अब मैं जा रहा हूँ, उसके घर से प्रस्थान किया। मृगाग्राम नगर के मध्यभाग से चलकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी बिराजमान थे; वहाँ पधारकर प्रदक्षिणा करके वन्दन तथा नमस्कार किया और इस प्रकार बोले – भगवन् ! आपश्री से आज्ञा प्राप्त करके मृगाग्राम नगर के मध्यभाग से चलता हुआ जहाँ मृगादेवी का घर था वहाँ में पहुँचा। मुझे आते हुए देखकर मृगादेवी हृष्ट तुष्ट हुई यावत् पीव व शोणित – रक्त का आहार करते हुए मृगापुत्र को देखकर मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ – अहह ! यह बालक पूर्वजन्मोपार्जित महापापकर्मों का फल भोगता हुआ बीभत्स जीवन बिता रहा है।
भगवन् ! यह पुरुष मृगापुत्र पूर्वभव में कौन था ? किस नाम व गोत्र का था ? किस ग्राम अथवा नगर का रहने वाला था ? क्या देकर, क्या भोगकर, किन – किन कर्मों का आचरण कर और किन – किन पुराने कर्मों के फल को भोगता हुआ जीवन बिता रहा है ? श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम को कहा – ‘हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में शतद्वार नामक एक समृद्धिशाली नगर था। उस नगर में धनपति नाम का एक राजा राज्य करता था। उस नगर से कुछ दूरी पर अग्निकोण में विजयवर्द्धमान नामक एक खेट नगर था जो ऋद्धि – समृद्धि आदि से परिपूर्ण था। उस विजयवर्द्धमान खेट का पाँच सौ ग्रामों का विस्तार था। उस खेट में इक्काई नाम का राष्ट्रकूट था, जो परम अधार्मिक यावत् दुष्प्रत्यानन्दी था। वह एकादि विजयवर्द्धमान खेट के पाँच सौ ग्रामों का आधिपत्य करता हुआ जीवन बिता रहा था। तदनन्तर वह एकादि नाम का प्रतिनिधि विजयवर्द्धमान खेट के पाँच सौ ग्रामों को करों – महसूलों से, करों की प्रचुरता से, किसानों को दिये धान्यादि के द्विगुण आदि के ग्रहण करने से, रिश्वत से, दमन से, अधिक ब्याज से, हत्यादि के अपराध लगा देने से, धन – ग्रहण के निमित्त किसी को स्थान आदि का प्रबन्धक बना देने से, चोर आदि व्यक्तियों के पोषण से, ग्रामादि को जलाने से, पथिकों को मार – पीट करने से, व्यथित – पीड़ित करता हुआ, धर्म से विमुख करता हुआ, कशादि से ताड़ित और सधनों को निर्धन करता हुआ प्रजा पर अधिकार जमा रहा था। तदनन्तर वह राजप्रतिनिधि एकादि विजयवर्द्धमान खेट के राजा – मांडलिक, ईश्वर, तलवर ऐसे नागरिक लोग, माडंबिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी, सार्थनायक तथा अन्य अनेक ग्रामीण पुरुषों के कार्यों में, कारणों में, गुप्त मंत्रणाओं में, निश्चयों और विवादास्पद निर्णयों में सूनता हुआ भी कहता था कि ‘‘मैंने नहीं सूना’’ और नहीं सूनता हुआ कहता था कि ‘‘मैंने सूना है।’’ इसी प्रकार देखता हुआ, बोलता हुआ, ग्रहण करता हुआ और जानता हुआ भी वह कहता था कि मैंने देखा नहीं, बोला नहीं, ग्रहण किया नहीं और जाना नहीं। इसी प्रकार के वंचना – प्रधान कर्म करने वाला मायाचारों को ही प्रधान कर्तव्य मानने वाला, प्रजा को पीड़ित करने रूप विज्ञान वाला और मनमानी करने को ही सदाचरण मानने वाला, यह प्रान्ताधिपति दुःख के कारणीभूत परम कलुषित पापकर्मों को उपार्जित करता हुआ जीवन – यापन कर रहा था। उसके बाद किसी समय उसके शरीर में एक साथ ही सोलह प्रकार के रोगांतक उत्पन्न हो गए। जैसे कि – श्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल, भगन्दर, अर्श, बवासीर, अजीर्ण, दृष्टिशूल, मस्तक – शूल, अरोचक, अक्षिवेदना, कर्णवेदना, खुजली, जलोदर और कुष्टरोग।
तदनन्तर उक्त सोलह प्रकार के भयंकर रोगों से खेद को प्राप्त वह एकादि नामक प्रान्ताधिपति सेवकों को बुलाकर कहता है – ‘‘देवानुप्रियो ! तुम जाओ और विजयवर्द्धमान खेट के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ और साधारण मार्ग पर जाकर अत्यन्त ऊंचे स्वरों से इस तरह घोषणा करो – ‘हे देवानुप्रियो ! एकादि प्रान्तपति के शरीर में श्वास, कास, यावत् कोढ़ नामक १६ भयङ्कर रोगांतक उत्पन्न हुए हैं। यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, ज्ञायक या ज्ञायक – पुत्र, चिकित्सक या चिकित्सक – पुत्र उन सोलह रोगांतकों में से किसी एक भी रोगांतक को उपशान्त करे तो एकादि राष्ट्रकूट उसको बहुत सा धन प्रदान करेगा।’ इस प्रकार दो तीन बार उद्घोषणा करके मेरी इस आज्ञा के यथार्थ पालन की मुझे सूचना दो।’ उन कौटुम्बिक पुरुषों – सेवकों ने आदेशानुसार कार्य सम्पन्न करके उसे सूचना दी। तदनन्तर उस विजयवर्द्धमान खेट में इस प्रकार की उद्घोषणा को सूनकर तथा अवधारण करके अनेक वैद्य, वैद्यपुत्र, ज्ञायक, ज्ञायकपुत्र, चिकित्सक, चिकित्सकपुत्र अपने अपने शस्त्रकोष को हाथ में लेकर अपने अपने घरों से नीकलकर एकादि प्रान्ताधिपति के घर आते हैं। एकादि राष्ट्रकूट के शरीर का संस्पर्श करते हैं, निदान की पृच्छा करते हैं और एकादि राष्ट्रकूट के इन सोलह रोगांतकों में से किसी एक रोगांतक को शान्त करने के लिए अनेक प्रकार के अभ्यंगन, उद्वर्तन, स्नेहपान, वमन, विरेचन, स्वेदन, अवदहन, अवस्नान, अनुवासन, निरूह, बस्तिकर्म, शिरोवेध, तक्षण, प्रतक्षण, शिरोबस्ति, तर्पण, पुटपाक, छल्ली, मूलकन्द, शिलिका, गुटिका, औषध और भेषज्य आदि के प्रयोग से प्रयत्न करते हैं परन्तु उपर्युक्त अनेक प्रकार के प्रयोगात्मक उपचारों से इन सोलह रोगों में से किसी एक रोग को भी उपशान्त करने में समर्थ न हो सके ! जब उन वैद्यों व वैद्यपुत्रादि से उन १६ रोगान्तकों में से एक भी रोग का उपशमन न हो सका तब वे वैद्य व वैद्यपुत्रादि श्रान्त तान्त, तथा परितान्त से खेदित होकर जिधर से आए थे उधर ही चल दिए। इस प्रकार वैद्यों के द्वारा प्रत्याख्यात होकर सेवकों द्वारा परित्यक्त होकर औषध और भैषज्य से निर्विण्ण विरक्त, सोलह रोगांतकों से परेशान, राज्य, राष्ट्र, यावत् अन्तःपुर – रणवास में मूर्च्छित – आसक्त एवं राज्य व राष्ट्र का आस्वादन, प्रार्थना, स्पृहा और अभिलाषा करता हुआ एकादि प्रान्तपति व्यथित, दुखार्त्त और वशार्त्त होने से परतंत्र जीवन व्यतीत करके २५० वर्ष की सम्पूर्ण आयु को भोगकर यथासमय काल करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारकरूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर वह एकादि का जीव भवस्थिति संपूर्ण होने पर नरक से नीकलते ही इस मृगाग्राम नगर में विजय क्षत्रिय की मृगादेवी नाम की रानी की कुक्षि में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। मृगादेवी के उदर में उत्पन्न होने पर मृगादेवी के शरीर में उज्ज्वल यावत् ज्वलन्त व जाज्वल्यमान वेदना उत्पन्न हुई। जिस दिन से मृगापुत्र बालक मृगादेवी के उदर में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ, तबसे लेकर वह मृगादेवी विजय नामक क्षत्रिय को अनिष्ट, अमनोहर, अप्रिय, अमनोज्ञ – असुन्दर और अप्रिय हो गई। तदनन्तर किसी काल में मध्यरात्रि के समय कुटुम्बचिन्ता से जागती हुई उस मृगादेवी के हृदय में यह अध्य – वसाय उत्पन्न हुआ कि मैं पहले तो विजय क्षत्रिय को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और अत्यन्त मनगमती, ध्येय, चिन्तनीय, विश्वसनीय, व सम्माननीय थी परन्तु जबसे मेरी कुक्षि में यह गर्भस्थ जीव गर्भ के रूप में उत्पन्न हुआ तबसे विजय क्षत्रिय को मैं अप्रिय यावत् मन से अग्राह्य हो गई हूँ। इस समय विजय क्षत्रिय मेरे नाम तथा गोत्र को ग्रहण करना – अरे स्मरण करना भी नहीं चाहते ! तो फिर दर्शन व परिभोग – भोगविलास की तो बात ही क्या है ? अतः मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं इस गर्भ को अनेक प्रकार की शातना, पातना, गालना, व मारणा से नष्ट कर दूँ। इस प्रकार विचार करके गर्भपात के लिए गर्भ को गिर देने वाली क्षारयुक्त, कड़वी, कसैली, औषधियों का भक्षण तथा पान करती हुई उस गर्भ के शातन, पातन, गालन व मारण करने की ईच्छा करती है। परन्तु वह गर्भ उपर्युक्त सभी उपायों से भी नाश को प्राप्त नहीं हुआ। तब वह मृगादेवी शरीर से श्रान्त, मन से दुःखित तथा शरीर और मन से खिन्न होती हुई ईच्छा न रहते हुए भी विवशता के कारण अत्यन्त दुःख के साथ गर्भ वहन करने लगी। गर्भगत उस बालक की आठ नाड़ियाँ अन्दर की ओर और आठ नाड़ियाँ बाहर की ओर बह रही थी। उनमें प्रथम आठ नाड़ियों से रुधिर बह रहा था। इन सोलह नाड़ियों में से दो नाड़ियाँ कर्ण – विवरों में, दो – दो नाड़ियाँ नेत्र – विवरों में, दो – दो नासिकाविवरों में तथा दो – दो धमनियों में बार – बार पीव व लोहू बहा रही थी। गर्भ में ही उस बालक को भस्मक नामक व्याधि उत्पन्न हो गयी थी, जिसके कारण वह बालक जो कुछ खाता, वह शीघ्र ही भस्म हो जाता था, तब वह तत्काल पीव व शोणित के रूप में परिणत हो जाता था। तदनन्तर वह बालक उस पीव व शोणित को भी खा जाता था। तत्पश्चात् नौ मास परिपूर्ण होने के अनन्तर मृगादेवी ने एक बालक को जन्म दिया जो जन्म से अन्धा और अवयवों की आकृति मात्र रखने वाला था। तदनन्तर विकृत, बेहूदे अंगोपांग वाले तथा अन्धरूप उस बालक को मृगादेवी ने देखा और देखकर भय, त्रास, उद्विग्नता और व्याकुलता को प्राप्त हुई। उसने तत्काल धायमाता को बुलाकर कहा – तुम जाओ और इस बालक को ले जाकर एकान्त में किसी कूड़े – कचरे के ढ़ेर पर फेंक आओ। उस धायमाता ने मृगादेवी के इस कथन को ‘बहुत अच्छा’ कहकर स्वीकार किया और वह जहाँ विजय नरेश थे वहाँ पर आई और दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहने लगी – ‘हे स्वामिन ! पूरे नव मास हो जाने पर मृगादेवी ने एक जन्मान्ध यावत् अवयवों की आकृति मात्र रखने वाले बालक को जन्म दिया है। उस हुण्ड बेहूदे अवयववाले, विकृतांग, व जन्मान्ध बालक को देखकर मृगादेवी भयभीत हुई और मुझे बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा – तुम जाओ और इस बालक को ले जाकर एकान्त में किसी कूड़े – कचरे के ढ़ेर पर फेंक आओ। अतः हे स्वामिन ! आप ही मुझे बतलाएं कि मैं उसे एकान्त में ले जाकर फेंक आऊं या नहीं ? उसके बाद वह विजय नरेश उस धायमाता के पास से यह सारा वृत्तान्त सूनकर सम्भ्रान्त होकर जैसे ही बैठे थे उठकर खड़े हो गए। जहाँ रानी मृगादेवी थी, वहाँ आए और मृगादेवी से कहने लगे – ‘हे देवानुप्रिये ! तुम्हारा यह प्रथम गर्भ है, यदि तुम इसको कूड़े – कचरे के ढेर पर फिकवा दोगी तो तुम्हारी भावी प्रजा – सन्तान स्थिर न रहेगी। अतः तुम इस बालक को गुप्त भूमिगृह में रखकर गुप्त रूप से भक्तपानादि के द्वारा इसका पालन – पोषण करो। ऐसा करने से तुम्हारी भावी सन्तति स्थिर रहेगी। तदनन्तर वह मृगादेवी विजय क्षत्रिय के इस कथन को स्वीकृतिसूचक ‘तथेति’ ऐसा कहकर विनम्र भाव से स्वीकार करती है और उस बालक को गुप्त भूमिगृह में स्थापित कर गुप्तरूप से आहारपानादि के द्वारा पालन – पोषण करती हुई समय व्यतीत करने लगी। भगवान महावीर स्वामी फरमाते हैं – हे गौतम ! यह मृगापुत्र दारक अपने पूर्वजन्मोपार्जित कर्मों का प्रत्यक्ष रूप से फलानु – भव करता हुआ इस तरह समय – यापन कर रहा है।
हे भगवन् ! यह मृगापुत्र नामक दारक यहाँ से मरणावसर पर मृत्यु को पाकर कहाँ जाएगा ? और कहाँ पर उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! मृगापुत्र दारक २६ वर्ष के परिपूर्ण आयुष्य को भोगकर मृत्यु का समय आने पर काल करके इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में वैताढ्य पर्वत की तलहटी में सिंहकुल में सिंह के रूप में उत्पन्न होगा। वह सिंह महाअधर्मी तथा पापकर्म में साहसी बनकर अधिक से अधिक पापरूप कर्म एकत्रित करेगा। वह सिंह मृत्यु को प्राप्त होकर इस रत्नप्रभापृथ्वी में, जिसकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है; – उन नारकियों में उत्पन्न होगा। बिना व्यवधान के पहली नरक से नीकलकर सीधा सरीसृपों की योनियों में उत्पन्न होगा। वहाँ से काल करके दूसरे नरक में, जिसकी उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की है, उत्पन्न होगा। वहाँ से नीकलकर सीधा पक्षी – योनि में उत्पन्न होगा। वहाँ से सात सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले तीसरे नरक में उत्पन्न होगा। वहाँ से सिंह की योनि में उत्पन्न होगा। वहाँ वह बड़ा अधर्मी, दूर – दूर तक प्रसिद्ध शूर एवं गहरा प्रहार करने वाला होगा। वहाँ से चौथी नरकभूमि में जन्म लेगा। चौथे नरक से नीकलकर सर्प बनेगा। वहाँ से पाँचवे नरक में उत्पन्न होगा। वहाँ से स्त्रीरूप में उत्पन्न होगा। स्त्री पर्याय से काल करके छट्ठे नरक में उत्पन्न होगा। वहाँ से पुरुष होगा। वहाँ से सबसे निकृष्ट सातवीं नरक में उत्पन्न होगा। वहाँ से जो ये पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों में मच्छ, कच्छप, ग्राह, मगर, सुंसुमार आदि जलचर पञ्चेन्द्रिय जाति में योनियाँ, एवं कुलकोटियों में, जिनकी संख्या साढ़े बारह लाख है, उनके एक एक योनि – भेद में लाखों बार उत्पन्न होकर पुनः पुनः उत्पन्न होकर मरता रहेगा। तत्पश्चात् चतुष्पदों में उरपरिसर्प, भुज – परिसर्प, खेचर, एवं चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और दो इन्द्रिय वाले प्राणियों में तथा वनस्पति कायान्तर्गत कटु वृक्षों में, कटु दुग्धवाली अर्कादि वनस्पतियों में, वायुकाय, तेजस्काय, अप्काय व पृथ्वीकाय में लाखों – लाखों बार जन्म मरण करेगा। तदनन्तर वहाँ से नीकलकर सुप्रतिष्ठपुर नामक नगर में वृषभ के पर्याय में उत्पन्न होगा। जब वह बाल्या – वस्था को त्याग करके युवावस्था में प्रवेश करेगा तब किसी समय, वर्षाऋतु के आरम्भ – काल में गंगा नामक महानदी के किनारे पर स्थित मिट्टी को खोदता हुआ नदी के किनारे पर गिर जाने से पीड़ित होता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। मृत्यु के अनन्तर उसी सुप्रतिष्ठपुर नामक नगर में किसी श्रेष्ठि के घर में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहाँ पर वह बालभाव को परित्याग कर युवावस्था को प्राप्त होने पर तथारूप – साधुजनोचित गुणों को धारण करने वाले स्थविर – वृद्ध जैन साधुओं के पास धर्म को सूनकर, मनन कर तदनन्तर मुण्डित होकर अगारवृत्ति का परित्याग कर अनगारधर्म को प्राप्त करेगा। अनगारधर्म में ईयासमिति युक्त यावत् ब्रह्मचारी होगा। वह बहुत वर्षों तक यथाविधि श्रामण्य – पर्याय का पालन करके आलोचना व प्रतिक्रमण से आत्मशुद्धि करता हुआ समाधि को प्राप्त कर समय आने पर कालमास में काल प्राप्त करके सौधर्म नाम के प्रथम देव – लोक में देवरूप में उत्पन्न होगा। तदनन्तर देवभव की स्थिति पूरी हो जाने पर वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में जो आढ्य कुल हैं; – उनमें उत्पन्न होगा। वहाँ उसका कलाभ्यास, प्रव्रज्याग्रहण यावत् मोक्षगमन रूप वक्तव्यता दृढ़प्रतिज्ञ की भाँति ही समझ लेनी चाहिए।