श्रावस्ती नगरी में लेइयापिता नामक धनाढ्य एवं दीप्त – गाथापति निवास करता था। उसकी चार करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं, चार करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं व्यापार में लगी थीं तथा चार करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं घर के वैभव – साधन – सामग्री में लगी थीं। उसके चार गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस – दस हजार गायें थीं। उसकी पत्नी का नाम फाल्गुनी था। भगवान महावीर श्रावस्ती में पधारे। समवसरण हुआ। आनन्द की तरह लेइयापिता ने श्रावक – धर्म स्वीकार किया। कामदेव की तरह उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र को पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व सौंपा। भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्मशिक्षा के अनुरूप स्वयं पोषधशाला में उपासना निरत रहने लगा। इतना ही अन्तर रहा – उसे उपासना में कोई उपसर्ग नहीं हुआ, पूर्वोक्त रूप में उसने ग्यारह श्रावक – प्रतिमाओं की निर्विघ्न आराधना की। उसका जीवन – क्रम कामदेव की तरह समझना चाहिए। देव – त्याग कर वह सौधर्म – देवलोक में अरुणकील विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ। उसकी आयुस्थिति चार पल्योपम की है। महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध – मुक्त होगा।
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