राजगृह नगर में महाशतक गाथापति था। वह समृद्धिशाली था, वैभव आदि में आनन्द की तरह था। केवल इतना अन्तर था, उसकी आठ करोड़ कांस्य – परिमित स्वर्ण – मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थी, आठ करोड़ कांस्य – परिमित स्वर्ण – मुद्राएं व्यापार में लगी थी, आठ करोड़ कांस्य – परिमित स्वर्ण – मुद्राएं घर के वैभव में लगी थीं। उसके आठ व्रज – गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस – दस हजार गायें थीं। महाशतक के रेवती आदि तेरह रूपवती पत्नीयाँ थीं। अहीनप्रतिपूर्ण यावत् सुन्दर थी। महाशतक की पत्नी रेवती के पास अपने पीहर से प्राप्त आठ करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं तथा दस – दस हजार गायों के आठ गोकुल व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में थे। बाकी बारह पत्नों के पास उनके पीहर से प्राप्त एक – एक करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं तथा दस – दस हजार गायों का एक – एक गोकुल व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में था।
उस समय भगवान महावीर का राजगृह में पदार्पण हुआ। परीषद् जुड़ी। महाशतक आनन्द की तरह भगवान की सेवा में गया। उसने श्रावक – धर्म स्वीकार किया। केवल इतना अन्तर था, महाशतक ने परिग्रह के रूप में आठ – आठ करोड़ कांस्य – परिमित स्वर्ण – मुद्राएं निधान आदि में रखने की तथा गोकुल रखने की मर्यादा की। रेवती आदि तेरह पत्नीयों के सिवाय अवशेष मैथुन – सेवन का परित्याग किया। एक विशेष अभिग्रह लिया – मैं प्रतिदिन लेन – देन में दो द्रोण – परिमाण कांस्य – परिमित स्वर्ण – मुद्राओं की सीमा रखूँगा। तब महाशतक, जो जीव, अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त कर चूका था, श्रमणोपासक हो गया। धार्मिक जीवन जीने लगा। श्रमण भगवान महावीर अन्य जनपदों में विहार कर गए।
एक दिन आधी रात के समय गाथापति महाशतक की पत्नी रेवती के मन में, जब वह अपने पारिवारिक विषयों की चिन्ता में जग रही थी, यों विचार उठा – मैं इन अपनी बारह, सौतों के विघ्न के कारण अपने पति श्रमणो – पासक महाशतक के साथ मनुष्य – जीवन के विपुल विषय – सुख भोग नहीं पा रही हूँ। अतः मेरे लिए यही अच्छा है कि मैं इन बारह सौतों की अग्नि – प्रयोग, शस्त्र – प्रयोग या विष – प्रयोग द्वारा जान ले लूँ। इससे इनकी एक – एक करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं और एक – एक गोकुल मुझे सहज ही प्राप्त हो जाएगा। मैं महाशतक के साथ मनुष्य – जीवन के विपुल विषय – सुख भोगती रहूँगी। यों विचार कर वह अपनी बारह सौतों को मारने के लिए अनुकूल अवसर, सूनापन एवं एकान्त की शोध में रहने लगी। एक दिन गाथापति की पत्नी रेवती ने अनुकूल पाकर अपनी बारह सौतों में से छह को शस्त्र – प्रयोग द्वारा और छह को विष – प्रयोग द्वारा मार डाला। यों अपनी बारह सौतों को मार कर उनकी पीहर से प्राप्त एक – एक करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं तथा एक – एक गोकुल स्वयं प्राप्त कर लिया और वह श्रमणोपासक महाशतक के साथ विपुल भोग भोगती हुई रहने लगी। गाथापति की पत्नी रेवती मांस – भक्षण में लोलुप, आसक्त, लुब्ध तथा तत्पर रहती। वह लोहे की सलाख पर सेके हुए, घी आदि में तले हुए तथा आग पर भूने हुए बहुत प्रकार के मांस एवं सुरा, मधु, मेरक, मद्य, सीधु व प्रसन्न नामक मदिराओं का आस्वादन करती, मजा लेती, छक कर सेवन करती।
एक बार राजगृह नगर में अमारि – की घोषणा हुई। गाथापति की पत्नी रेवती ने, जो मांस में लोलुप एवं आसक्त थी, अपने पीहर के नौकरों को बुलाया और उनसे कहा – तुम मेरे पीहर के गोकुलों में से प्रतिदिन दो – दो बछड़े मारकर मुझे ला दिया करो। पीहर के नौकरों ने गाथापति की पत्नी रेवती के कथन को ‘जैसी आज्ञा’ कहकर विनयपूर्वक स्वीकार किया तथा वे उसके पीहर के गोकुलों में से हर रोज सवेरे दो बछड़े लाने लगी। गाथापति की पत्नी रेवती बछड़ों के मांस के शूलक – सलाखों पर सेके हुए टुकड़ों आदि का तथा मदिरा का लोलुप भाव से सेवन करती हुई रहने लगी।
श्रमणोपासक महाशतक को विविध प्रकार के व्रतों, नियमों द्वारा आत्मभावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। आनन्द आदि की तरह उसने भी ज्येष्ठ पुत्र को अपनी जगह स्थापित किया – पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व बड़े पुत्र को सौंपा तथा स्वयं पोषधशाला में धर्माराधना में निरत रहने लगा। एक दिन गाथापति की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त, लड़खड़ाती हुई, बाल बिखेरे, बार – बार अपना उत्तरीय – फेंकती हुई, पोषध – शाला में जहाँ श्रमणोपासक महाशतक था, आई। बार – बार मोह तथा उन्माद जनक, कामोद्दीपक कटाक्ष आदि हाव भाव प्रदर्शित करती हुई श्रमणोपासक महाशतक से बोली – धर्म, पुण्य, स्वर्ग तथा मोक्ष की कामना, ईच्छा एवं उत्कंठा रखने वाले श्रमणोपासक महाशतक ! तुम मेरे साथ मनुष्य – जीवन के विपुल विषय – सुख नहीं भोगते, देवानुप्रिय ! तुम धर्म, पुण्य, स्वर्ग तथा मोक्ष से क्या पाओगे – श्रमणोपासक महाशतक ने अपनी पत्नी रेवती की इस बात को कोई आदर नहीं दिया और न उस पर ध्यान ही दिया। वह मौन भाव से धर्माराधना में लगा रहा। उसकी पत्नी रेवती ने दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसा कहा। पर वह उसी प्रकार अपनी पत्नी रेवती के कथन को आदर न देता हुआ, उस पर ध्यान न देता हुआ धर्म – ध्यान में निरत रहा। यों श्रमणोपासक महाशतक द्वारा आदर न दिए जाने पर, ध्यान न दिए जाने पर उसकी पत्नी रेवती, जिस दिशा से आई थी उसी दिशा की ओर लौट गई।
श्रमणोपासक महाशतक ने पहली उपासकप्रतिमा स्वीकार की। यों पहली से लेकर क्रमशः ग्यारहवीं तक सभी प्रतिमाओं की शास्त्रोक्त विधि से आराधना की। उग्र तपश्चरण से श्रमणोपासक के शरीर में इतनी कृशता – आ गई की नाडियाँ दीखने लगीं। एक दिन अर्द्ध रात्रि के समय धर्म – जागरण – करते हुए आनन्द की तरह श्रमणोपासक महाशतक के मन में विचार उत्पन्न हुआ – उग्र तपश्चरण द्वारा मेरा शरीर अत्यन्त कृश हो गया है, आदि। उसने अन्तिम मारणान्तिक संलेखना स्वीकार की, खान – पान का परित्याग किया – अनशन स्वीकार किया, मृत्यु की कामना न करता हुआ, वह आराधना में लीन हो गया। तत्पश्चात् श्रमणोपासक महाशतक को शुभ अध्यवसाय के कारण अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। फलतः वह पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में एक – एक हजार योजन तक का लवण समुद्र का क्षेत्र, उत्तर दिशा में हिमवान् वर्षधर पर्वत तक क्षेत्र तथा अधोलोक में प्रथम नारकभूमि रत्नप्रभा में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले लोलुपाच्युत नामक नरक तक जानने – देखने लगा।
तत्पश्चात् एक दिन महाशतक गाथापति की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त बार – बार अपना उत्तरीय फेंकती हुई पोषधशालामें जहाँ श्रमणोपासक महाशतक था, आई। महाशतक से पहले की तरह बोली। दूसरी बार, तीसरी बार, फिर वैसा ही कहा। अपनी पत्नी रेवती द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार कहने पर श्रमणोपासक महाशतक को क्रोध आ गया। उसने अवधिज्ञान का उपयोग लगाया। अवधिज्ञान द्वारा जानकर उसने अपनी पत्नी रेवती से कहा – मौत को चाहने वाली रेवती ! तू सात रात के अन्दर अलसक नामक रोग से पीड़ित होकर आर्त्त – व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई आयु – काल पूरा होने पर अशान्तिपूर्वक मरकर अधोलोक में प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के आयुष्य वाले नैरयिकों में उत्पन्न होगी। श्रमणोपासक महाशतक के यों कहने पर रेवती अपने आप से कहने लगी – श्रमणोपासक महाशतक मुझ पर रुष्ट हो गया है, मेरे प्रति उसमें दुर्भावना उत्पन्न हो गई है, वह मेरा बूरा चाहता है, न मालूम मैं किस बूरी मौत से मार डाली जाऊं। यों सोचकर वह भयभीत, त्रस्त, व्यथित, उद्विग्न होकर, डरती – डरती धीरे – धीरे वहाँ से नीकली, घर आई। उसके मन में उदासी छा गई, यावत् व्याकुल होकर सोच में पड़ गई। तत्पश्चात् रेवती सात रात के भीतर अलसक रोग से पीड़ित हो गई। व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई वह अपना आयुष्य पूरा कर प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरकमें ८४०००वर्ष के आयुष्य वाले नैरयिकों में नारक रूप में उत्पन्न हुई।
उस समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह में पधारे। समवसरण हुआ। परीषद् जुड़ी, धर्म – देशना सूनकर लौट गई। श्रमण भगवान महावीर ने गौतम को सम्बोधित कर कहा – गौतम ! यही राजगृह नगर में मेरा अन्तेवासी – महाशतक नामक श्रमणोपासक पोषधशाला में अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगा हुआ, आहार – पानी का परित्याग किए हुए मृत्यु की कामना न करता हुआ, धर्माराधना में निरत है। महाशतक की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त, यावत् पोषधशाला में महाशतक के पास आई। श्रमणोपासक महाशतक से विषय – सुख सम्बन्धी वचन बोली। उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसा ही कहा। अपनी पत्नी रेवती द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक महाशतक को क्रोध आ गया। उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर उपयोग लगाया। अवधिज्ञान से जान कर रेवती से कहा यावत् नैरयिकों में उत्पन्न होओगी। गौतम ! सत्य, तत्त्वरूप, तथ्य, सद्भूत, ऐसे वचन भी यदि अनिष्ट – अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, अमनाम – ऐसे हों तो अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए उन्हें बोलना कल्पनीय – नहीं है। इसलिए देवानुप्रिय ! तुम श्रमणोपासक महाशतक के पास जाओ और उसे कहो कि अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए सत्य, वचन भी यदि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, मन प्रतिकूल हो तो बोलना कल्पनीय नहीं है। देवानुप्रिय! तुमने रेवती को सत्य किन्तु अनिष्ट वचन कहे। इसलिए तुम इस स्थान की – आलोचना करो, यथोचित प्रायश्चित्त स्वीकार करो। भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर का यह कथन ‘आप ठीक फरमाते हैं’ यों कहकर विनय – पूर्वक सूना। वे वहाँ से चले। राजगृह नगर के बीच से गुझरे, श्रमणोपासक महाशतक के घर पहुँचे। श्रमणोपासक महाशतकने जब भगवान गौतम को आते देखा तो वह हर्षित एवं प्रसन्न हुआ। उन्हें वन्दन – नमस्कार किया। भगवान गौतम ने श्रमणोपासक महाशतक से कहा – देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर ने ऐसा आख्यात, भाषित, प्रज्ञप्त एवं प्ररूपित किया है – कहा है – यावत् प्रतिकूल हों तो उन्हें बोलना कल्पनीय नहीं है। देवानुप्रिय ! तुम अपनी पत्नी रेवती के प्रति ऐसे वचन बोले, इसलिए तुम इस स्थान की – आलोचना करो, प्रायश्चित्त करो।
तब श्रमणोपासक महाशतक ने भगवान गौतम का कथन ‘आप ठीक फरमाते हैं’ कहकर विनयपूर्वक स्वीकार किया, अपनी भूल की आलोचना की, यथोचित प्रायश्चित्त किया। तत्पश्चात् भगवान गौतम श्रमणोपासक महाशतक के पास से रवाना हुए, राजगृह नगर के बीच से गुजरे, जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आए। भगवान को वंदन – नमस्कार किया। वंदन – नमस्कार कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए धर्माराधना में लग गए। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर, किसी समय राजगृहसे प्रस्थान कर अन्य जनपदों में विहार कर गए यों श्रमणोपासक महाशतक ने अनेकविध व्रत, नियम आदि द्वारा आत्मा को भावित किया – । बीस वर्ष तक श्रमणोपासक – का पालन किया। ग्यारह उपासक – प्रतिमाओं की भली – भाँति आराधना की। एक मास की संलेखना और एक मास का अनशन सम्पन्न कर आलोचना, प्रतिक्रमण कर, मरणकाल आने पर समाधिपूर्वक देह – त्याग किया। वह सौधर्म देवलोक में अरुणावतंसक विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ आयु चार पल्योपम की है। महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध – मुक्त होगा।