वाराणसी नगरी में चुलनीपिता नामक गाथापति था। वह अत्यन्त समृद्ध एवं प्रभावशाली था। उसकी पत्नी का नाम श्यामा था। आठ करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं स्थायी पूंजी के रूप में, आठ करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं व्यापार में तथा आठ करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं घर के वैभव – धन, धान्य आदि में लगी थीं। उसके आठ गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस – दस हजार गाएं थीं। गाथापति आनन्द की तरह वह राजा, ऐश्वर्य – शाली पुरुष आदि विशिष्ट जनों के सभी प्रकार के आर्यों का सत्परामर्श आदि द्वारा वर्धापक – था। भगवान महावीर पधारे – परीषद्‌ जुड़ी। आनन्द की तरह चुलनीपिता भी घर से नीकला – यावत्‌ श्रावकधर्म स्वीकार किया। गौतम ने जैसे आनन्द के सम्बन्ध में भगवान से प्रश्न किए थे, उसी प्रकार चुलनीपिता के भावी जीवन के सम्बन्ध में भी किए। आगे की घटना गाथापति कामदेव की तरह है। चुलनीपिता पोषधशाला में ब्रह्मचर्य एवं पोषध स्वीकार कर, श्रमण भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्म – प्रज्ञप्ति – धर्म – शिक्षा के अनुरूप उपासना – रत हुआ। आधी रात के समय श्रमणोपासक चुलनीपिता के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। उस देव ने एक तलवार नीकालकर जैसे पिशाच रूपधारी देव ने कामदेव से कहा था, वैसे ही श्रमणोपासक चुलनीपिता को कहा – यदि तुम अपने व्रत नहीं तोड़ोगे, तो मैं आज तुम्हारे बड़े पुत्र को घर से नीकाल लाऊंगा। तुम्हारे आगे उसे मार डालूँगा। उसके तीन मांस – खंड करूँगा, उबलते आद्रहण – में खौलाऊंगा। उसके मांस और रक्त से तुम्हारे शरीर को सींचूँगा – जिससे तुम आर्त्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही प्राणों से हाथ धौ बैठोगे। उस देव द्वारा यों कहे जान पर भी श्रमणोपासक चुलनीपिता निर्भय भाव से धर्मध्यान में स्थित रहा। जब उस देव ने श्रमणोपासक चुलनीपिता को निर्भय देखा, तो उसने उससे दूसरी बार और फिर तीसरी बार वैसा ही कहा। पर, चुलनीपिता पूर्ववत्‌ निर्भीकता के साथ धर्म – ध्यान में स्थित रहा। देव ने चुलनीपिता को जब इस प्रकार निर्भय देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। वह चुलनीपिता के बड़े पुत्र को उसके घर से उठा लाया और उसके सामने उसे मार डाला। उसके तीन मांस – खंड़ किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया। उसके मांस और रक्त से चुलनीपिता के शरीर को सींचा। चुलनीपिता ने वह तीव्र वेदना तितिक्षापूर्वक सहन की। देव ने श्रमणोपासक चुलनीपिता को जब यों निर्भीक देखा तो उसने दूसरी बार कहा – मौत को चाहने वाले चुलनीपिता ! यदि तुम अपने व्रत नहीं तोड़ोगे, तो मैं तुम्हारे मंझले पुत्र को घर से उठा लाऊंगा और उसकी भी हत्या कर डालूँगा। इस पर भी चुलनीपिता जब अविचल रहा तो देव ने वैसा ही किया। उसने तीसरी बार फिर छोटे लड़के के सम्बन्ध में वैसा ही करने को कहा। चुलनीपिता नहीं घबराया। देव ने छोटे लड़के के साथ भी वैसा ही किया। चुलनीपिता ने वह तीव्र वेदना तितिक्षापूर्वक सहन की। देव ने जब श्रमणोपासक चुलनीपिता को इस प्रकार निर्भय देखा तो उसने चौथी बार उससे कहा – मौत को चाहने वाले चुलनीपिता ! यदि तुम अपने व्रत नहीं तोड़ोगे तो मैं तुम्हारे लिए देव और गुरु सदृश पूजनीय, तुम्हारे हितार्थ अत्यन्त दुष्कर कार्य करने वाली माता भद्रा सार्थवाही को घर से लाकर तुम्हारे सामने उसकी हत्या करूँगा, तीन मांस – खंड करूँगा। यावत्‌ जिससे तुम आर्त्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही प्राणों से हाथ धो बैठोगे। उस देव द्वारा यों कहे जान पर भी श्रमणोपासक चुलनीपिता निर्भयता से धर्मध्यान में स्थित रहा। उस देव ने श्रमणोपासक चुलनीपिता को जब निर्भय देखा तो दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसा ही कहा – चुलनीपिता ! तुम प्राणों से हाथ धो बैठोगे।

उस देव ने जब दूसरी बार, तीसरी बार ऐसा कहा, तब श्रमणोपासक चुलनीपिता के मन में विचार आया – यह पुरुष बड़ा अधम है, नीच – बुद्धि है, नीचतापूर्ण पाप – कार्य करने वाला है, जिसने मेरे बड़े पुत्र को घर से लाकर मेरे आगे मार डाला। उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर सींचा – छींटा, जो मेरे मंझले पुत्र को घर से ले आया, जो मेरे छोटे पुत्र को घर से ले आया, उसी तरह उसके मांस और रक्त से मेरा शरीर सींचा, जो देव और गुरु सदृश पूजनीय, मेरे हितार्थ अत्यन्त दुष्कर कार्य करने वाली, अति कठिन क्रियाएं करने वाली मेरी माता भद्रा सार्थवाही को भी घर से लाकर मेरे सामने मारना चाहता है। इसलिए, अच्छा यही है, मैं इस पुरुष को पकड़ लूँ। यों विचारकर वह पकड़ने के लिए दौड़ा। इतने में देव आकाश में उड़ गया। चुलनीपिता के पकड़ने को फैलाए हाथों में खम्भा आ गया। वह जोर – जोर से शोक करने लगा। भद्रा सार्थवाही ने जब वह कोलाहल सूना, तो जहाँ श्रमणोपासक चुलनीपिता था, वहाँ वह आई, उससे बोली – पुत्र ! तुम जोर – जोर से यों क्यों चिल्लाए ? अपनी माता भद्रा सार्थवाही से श्रमणोपासक चुलनीपिता ने कहा – माँ ! न जाने कौन पुरुष था, जिसने अत्यन्त क्रुद्ध होकर मुझसे कहा – मृत्यु को चाहने वाले श्रमणोपासक चुलनी – पिता ! यदि तुम आज शील का त्याग नहीं करोगे, भंग नहीं करोगे तो तुम आर्त्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही प्राणों से हाथ धो बैठोगे। उस पुरुष द्वारा यों कहे जाने पर भी मैं निर्भीकता के साथ अपनी उपासन में नीरत रहा। जब उस पुरुष ने मुझे निर्भयतापूर्वक उपासनारत देखा तो उसने मुझे दूसरी बार, तीसरी बार फिर कहा – श्रमणोपासक चुलनीपिता ! जैसा मैंने तुम्हें कहा है, मैं तुम्हारे शरीर को मांस और रक्त से सींचता हूँ और उसने वैसा ही किया। मैंने वेदना झेली। छोटे पुत्र के मांस और रक्त से शरीर सींचने तक सारी घटना उसी रूप में घटित हुई। मैं वह तीव्र वेदना सहता गया। उस पुरुष ने जब मुझे नीड़र देखा तो चौथी बार उसने कहा – मौत को चाहने वाले श्रमणोपासक चुलनी – पिता ! तुम यदि अपने व्रत का भंग नहीं करते हो तो आज प्राणों से हाथ धो बैठोगे। उसके द्वारा यों कहे जाने पर भी मैं निर्भीकतापूर्वक धर्म – ध्यान में स्थित रहा। उस पुरुष ने दूसरी बार, तीसरी बार फिर कहा – श्रमणोपासक चुलनीपिता ! आज तुम प्राणों से हाथ धो बैठोगे। उस पुरुष द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर मेरे मन में ऐसा विचार आया, अरे ! इस अधमने मेरे ज्येष्ठ पुत्र को, मझले पुत्र को और छोटे पुत्र को घर से ले आया, उनकी हत्या की। अब तुमको भी घर से लाकर मेरे सामने मार ड़ालना चाहता है। इसलिए अच्छा यही है, मैं इस पुरुष को पकड़ लूँ। यों विचार कर मैं उसे पकड़ने के लिए उठा, इतने में वह आकाश में उड़ गया। उसे पकड़ने को फैलाए हुए मेरे हाथों में खम्भा आ गया। मैंने जोर – जोर से शोर किया। तब भद्रा सार्थवाही श्रमणोपासक चुलनीपिता से बोली – पुत्र ! ऐसा कोई पुरुष नहीं था, जो यावत्‌ तुम्हारे छोटे पुत्र को घर से लाया हो, तुम्हारे आगे उसकी हत्या की हो। यह तो तुम्हारे लिए कोई देव – उपसर्ग था। इसलिए, तुमने यह भयंकर दृश्य देखा। अब तुम्हारा व्रत, नियम और पोषध भग्न हो गया है – खण्डित हो गया है। इसलिए पुत्र ! तुम इस स्थान – व्रत – भंग रूप आचरण की आलोचना करो, तदर्थ तपःकर्म स्वीकार करो। श्रमणो – पासक चुलनीपिता ने अपनी माता भद्रा सार्थवाही का कथन ‘आप ठीक कहती हैं’ यों कहकर विनयपूर्वक सूना। उस स्थान – की आलोचना की, (यावत्‌) तपःक्रिया स्वीकार की।

तत्पश्चात्‌ श्रमणोपासक चुलनीपिता ने आनन्द की तरह क्रमशः पहली, यावत्‌ ग्यारहवीं उपासक – प्रतिमा की यथाविधि आराधना की। श्रमणोपासक चुलनीपिता सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान कोण में स्थित अरुणप्रभ विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसकी आयु – स्थिति चार पल्योपम की बतलाई गई है। महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध होगा।