जम्बू ! उस काल – उस समय – चम्पा नगरी थी। पूर्णभद्र नामक चैत्य था। राजा जितशत्रु था। कामदेव गाथापति था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। गाथापति कामदेव का छः करोड़ स्वर्ण – खजाने में, छह करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं व्यापार में, तथा छह करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं घर के वैभव में – लगी थीं। उसके छह गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस हजार गायें थीं। भगवान महावीर पधारे। समवसरण हुआ। गाथापति आनन्द की तरह कामदेव भी अपने घर से चला – भगवान के पास पहुँचा, श्रावक – धर्म स्वीकार किया। (तत्पश्चात्‌ किसी समय) आधी रात के समय श्रमणोपासक कामदेव के समक्ष एक मिथ्यादृष्टि, मायावी देव प्रकट हुआ। उस देव ने एक विशालकाय पिशाच का रूप धारण किया। उसका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है – उस पिशाच का सिर गाय को चारा देने की बाँस की टोकरी जैसा था। बाल – चावल की मंजरी के तन्तुओं के समान रूखे और मोटे थे, भूरे रंग के थे, चमकीले थे। ललाट बड़े मटके के खप्पर जैसा बड़ा था। भौंहें गिलहरी की पूँछ की तरह बिखरी हुई थीं, देखने में बड़ी विकृत और बीभत्स थीं। ‘मटकी’ जैसी आँखें, सिर से बाहर नीकली थीं, देखने में विकृत और बीभत्स थीं। कान टूटे हुए सूप – समान बड़े भद्दे और खराब दिखाई देते थे। नाक मेढ़े की नाक की तरह थी। गड्ढों जैसे दोनों नथूने ऐसे थे, मानों जुड़े हुए दो चूल्हे हों। घोड़े की पूँछ जैसी उनकी मूँछें भूरी थीं, विकृत और बीभत्स लगती थीं। उसके होठ ऊंट के होठों की तरह लम्बे थे। दाँत हल की लोहे की कुश जैसे थे। जीभ सूप के टुकड़े जैसी थी। ठुड्डी हल की नोक की तरह थी। कढ़ाही की ज्यों भीतर धँसे उसके गाल खड्डों जैसे लगते थे, फटे हुए, भूरे रंग के, कठोर तथा विकराल थे। उसके कन्धे मृदंग जैसे थे। वक्षःस्थल – नगर के फाटक के समान चौड़ी थी। दोनों भुजाएं कोष्ठिका – समान थीं। उसकी दोनों हथेलियाँ मूँग आदि दलने की चक्की के पाट जैसी थीं। हाथों की अंगुलियाँ लोढी के समान थीं। उसके नाखून सीपियों जैसे थे। दोनों स्तन नाई की उस्तरा आदि की तरह छाती पर लटक रहे थे। पेट लोहे के कोष्ठक – समान गोलाकार। नाभि बर्तन के समान गहरी थी। उसका नेत्र – छींके की तरह था। दोनों अण्डकोष फैले हुए दो थैलों जैसे थे। उसकी दोनों जंघाएं एक जैसी दो कोठियों के समान थीं। उसके घुटने अर्जुन – वृक्ष – विशेष के गाँठ जैसे, टेढ़े, देखने में विकृत व बीभत्स थे। पिंडलियाँ कठोर थीं, बालों से भरी थीं। उसके दोनों पैर दाल आदि पीसने की शीला के समान थे। पैर की अंगुलियाँ लोढ़ी जैसी थीं। अंगुलियों के नाखून सीपियों के सदृश थे। उस पिशाच के घुटने मोटे एवं ओछे थे, गाड़ी के पीछे ढीले बंधे काठ की तरह लड़खड़ा रहे थे। उसकी भौंहें विकृत – भग्न और टेढ़ी थीं। उसने अपना दरार जैसा मुँह फाड़ रखा था, जीभ बाहर नीकाल रखी थी। वह गिरगिटों की माला पहने था। चूहों की माला भी उसने धारण कर रखी थी। उसके कानों में कुण्डलों के स्थान पर नेवले लटक रहे थे। उसने अपनी देह पर साँपों को दुपट्टे की तरह लपेट रखा था। वह भुजाओं पर अपने हाथ ठोक रहा था, गरज रहा था, भयंकर अट्टहास कर रहा था। उसका शरीर पाँचों रंगों के बहुविध केशों से व्याप्त था। वह पिशाच नीले कमल, भैंसे के सींग तथा अलसी के फूल जैसी गहरी नीली, तेज धार वाली तलवार लिए, जहाँ पोषधशाला थी, श्रमणोपासक कामदेव था, वहाँ आया। अत्यन्त क्रुद्ध, रुष्ट, कुपित तथा विकराल होता हुआ, मिसमिसाहट करता हुआ – तेज साँस छोड़ता हुआ श्रमणोपासक कामदेव से बोला – अप्रार्थित – उस मृत्यु को चाहने वाले ! पुण्यचतुर्दशी जिस दिन हीन – थी – घटिकाओं में अमावास्या आ गई थी, उस अशुभ दिन में जन्मे हुए अभागे! लज्जा, शोभा, धृति तथा कीर्ति से परिवर्जित ! धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष की कामना ईच्छा एवं पिपासा – रखने वाले ! शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास से विचलित होना, विक्षुभित होना, उन्हें खण्डित करना, भग्न करना, उज्झित करना – परित्याग करना तुम्हें नहीं कल्पता है – इनका पालन करने में तुम कृतप्रतिज्ञ हो। पर, यदि तुम आज शील, एवं पोषधोपवास का त्याग नहीं करोगे, मैं इस तलवार से तुम्हारे टुकड़े – टुकड़े कर दूँगा, जिससे हे देवानुप्रिय ! तुम आर्त्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही जीवन से पृथक्‌ हो जाओगे – प्राणों से हाथ धो बैठोगे। उस पिशाच द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक कामदेव भीत, त्रस्त, उद्विग्न, क्षुभित एवं विचलित नहीं हुआ; घबराया नहीं। वह चूपचाप – शान्त भाव से धर्म – ध्यान में स्थित रहा। पिशाच का रूप धारण किये हुए देव ने श्रमणोपासक को यों निर्भय भाव से धर्म – ध्यान में निरत देखा। तब उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर कहा – मौत को चाहने वाले श्रमणोपासक कामदेव ! आज प्राणों से हाथ धौ बेठोगे। श्रमणोपासक कामदेव उस देव द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर भी अभीत रहा, अपने धर्मध्यान में उपगत रहा।

जब पिशाच रूपधारी उस देव ने श्रमणोपासक को निर्भय भाव से उपासना – रत देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ, उसके ललाट में त्रिबलिक – चढ़ी भृकुटि तन गई। उसने तलवार से कामदेव पर वार किया और उसके टुकड़े – टुकड़े कर डाले। श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र तथा दुःसह वेदना को सहनशीलता पूर्वक झेला। जब पिशाच रूपधारी देव ने देखा, श्रमणोपासक कामदेव निर्भीक भाव से उपासना में रत है, वह श्रमणोपासक कामदेव को निर्ग्रन्थ प्रवचन – से विचलित, क्षुभित, विपरिणामित – नहीं कर सका है, उसके मनोभावों को नहीं बदल सका है, तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर धीरे – धीरे पीछे हटा। पीछे हटकर पौषधशाला से बाहर नीकला। देवमायाजन्य पिशाच – रूप का त्याग किया। एक विशालकाय, हाथी का रूप धारण किया। वह हाथी सुपुष्ट सात अंगों से युक्त था। उसकी देह – रचना सुन्दर और सुगठित थी। वह आगे से उदग्र – पीछे से सूअर के समान झुका हुआ था। उसकी कुक्षि – बकरी की कुक्षि की तरह सटी हुई थी। उसका नीचे का होठ और सूँड़ लम्बे थे। मुँह से बाहर नीकले हुए दाँत उजले और सफेद थे। वे सोने की म्यान में प्रविष्ट थे। उसकी सूँड़ का अगला भाग कुछ खींचे हुए धनुष की तरह सुन्दर रूप में मुड़ा हुआ था। उसके पैर कछुए के समान प्रतिपूर्ण और चपटे थे। उसके बीस नाखून थे। उसकी पूँछ देह से सटी हुई थी। वह हाथी मद से उन्मत्त था। बादल की तरह गरज रहा था। उसका वेग मन और वचन के वेग को जीतने वाला था। ऐसे हाथी के रूप की विक्रिया करके पूर्वोक्त देव जहाँ पोषधशाला थी, जहाँ श्रमणोपासक कामदेव था, वहाँ आया। श्रमणोपासक कामदेव से पूर्व वर्णित पिशाच की तरह बोला – यदि तुम अपने व्रतों का भंग नहीं करते हो तो मैं तुमको अपनी सूँड़ से पकड़ लूँगा। पोषधशाला से बाहर ले जाऊंगा। ऊपर आकाश में ऊछालूँगा। उछालकर अपने तीखे और मूसल जैसे दाँतों से झेलूँगा। नीचे पृथ्वी पर तीन बार पैरों से रौदूँगा, जिससे तुम आर्त्त ध्यान होकर विकट दुःख से पीड़ित होते हुए असमय में ही जीवन से पृथक्‌ हो जाओगे – हाथी का रूप धारण किए हुए देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक कामदेव निर्भय भाव से उपासना – रत रहा।

हस्तीरूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत देखा, तो उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर श्रमणोपासक कामदेव को वैसा ही कहा, जैसा पहले कहा था। पर, श्रमणोपासक कामदेव पूर्ववत्‌ निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत रहा। हस्ती रूपधारी उस देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से उपासना में लीन देखा तो अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपनी सूँड़ से उसको पकड़ा। आकाश में ऊंचा उछाला। नीचे गिरते हुए को अपनी तीखे और मूसल जैसे दाँतों से झेला और झेलकर नीचे जमीन पर तीन बार पैरों से रौंदा। श्रमणोपासक कामदेव ने वह असह्य वेदना झेली। जब हस्ती रूपधारी देव श्रमणोपासक कामदेव को निर्ग्रन्थ – प्रवचन से विचलित, क्षुभित तथा विपरिणा – मित नहीं कर सका, तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर धीरे – धीरे पीछे हटा। हटकर पोषधशाला से बाहर नीकला। विक्रियाजन्य हस्ति – रूप का त्याग किया। वैसा कर दिव्य, विकराल सर्प का रूप धारण किया। वह सर्प उग्रविष, प्रचण्डविष, घोरविष और विशालकाय था। वह स्याही और मूसा जैसा काला था। उसके नेत्रों में विष और क्रोध भरा था। वह काजल के ढ़ेर जैसा लगता था। उसकी आँखें लाल – लाल थीं। उसकी दुहरी जीभ चंचल थी – कालेपन के कारण वह पृथ्वी की वेणी जैसा लगता था। वह अपना उत्कट – स्फुट – कुटिल – जटिल, कर्कश – विकट – फन फैलाए हुए था। लुहार की धौंकनी की तरह वह फुंकार रहा था। उसका प्रचण्ड क्रोध रोके नहीं रुकता था। वह सर्प रूपधारी देव जहाँ पोषधशाला थी, जहाँ श्रमणोपासक कामदेव था, वहाँ आया। श्रमणोपासक कामदेव से बोला – अरे कामदेव ! यदि तुम शील, व्रत भंग नहीं करते हो, तो मैं अभी सर्राट करता हुआ तुम्हारे शरीर पर चढूँगा। पूँछ की ओर से तुम्हारे गले में लपेट लगाऊंगा। अपने तीखे, झहरीले दाँतों से तुम्हारी छाती पर डंक मारूँगा, जिससे तुम आर्त्त ध्यान और विकट दुःख से पीड़ित होते हुए असमय में ही जीवन से पृथक्‌ हो जाओगे – मर जाओगे।

सर्प रूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भय देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर सर्राटे के साथ उसके शरीर पर चढ़ गया। पीछले भाग से उसके गले में तीन लपेट लगा दिए। लपेट लगाकर अपने तीखे, झहरीले दाँतों से उसकी छाती पर डंक मारा। श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र वेदना को सहनशीलता के साथ झेला। सर्प रूपधारी देव ने जब देखा – श्रमणोपासक कामदेव निर्भय है, वह उसे निर्ग्रन्थ – प्रवचन से विचलित, क्षुभित एवं विपरिणामित नहीं कर सका है तो श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर वह धीरे – धीरे पीछे हटा। पोषध – शाला से बाहर नीकला। देव – मायाजनित सर्प – रूप का त्याग किया। फ़िर उसने उत्तम, दिव्य देव – रूप धारण किया उस देव के वक्षःस्थल पर हार सुशोभित हो रहा था यावत्‌ दिशाओं को उद्योतित, प्रभासित, दर्शनीय, मनोज्ञ, प्रतिरूप किया। वैसा कर श्रमणोपासक कामदेव की पोषधशाला में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर आकाश में अवस्थित हो छोटी – छोटी घण्टिकाओं से युक्त पाँच वर्णों के उत्तम वस्त्र धारण किए हुए वह श्रमणोपासक कामदेव से यों बोला – श्रमणोपासक कामदेव ! देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो, पुण्यशाली हो, कृत – कृत्य हो, कृतलक्षण – वाले हो। देवानुप्रिय ! तुम्हें निर्ग्रन्थ – प्रवचन में ऐसी प्रतिपत्ति – विश्वास – आस्था सुलब्ध है, सुप्राप्त है, स्वायत्त है, निश्चय ही तुमने मनुष्य – जन्म और जीवन का सुफल प्राप्त कर लिया। देवानुप्रिय ! बात यों हुई – शक्र – देवेन्द्र – देवराज – इन्द्रासन पर स्थित होते हुए चौरासी हजार सामानिक देवों यावत्‌ बहुत से अन्य देवों और देवियों के बीच यों आख्यात, भाषित, प्रज्ञप्त या प्ररूपित किया – कहा। देवो ! जम्बू द्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में, चंपा नगरी में श्रमणोपासक कामदेव पोषधशाला में पोषध स्वीकार किए, ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ कुश के बिछौने पर अवस्थित हुआ श्रमण भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्म – प्रज्ञप्ति के अनुरूप उपासनारत है। कोई देव, दानव, गन्धर्व द्वारा निर्ग्रन्थ – प्रवचन से यह विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित नहीं किया जा सकता। शक्र, देवेन्द्र, देवराज के इस कथन में मुझे श्रद्धा, प्रतीति – नहीं हुआ। वह मुझे अरुचिकर लगा। मैं शीघ्र यहाँ आया। देवानुप्रिय ! जो ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषोचित पराक्रम तुम्हें उपलब्ध – प्राप्त तथा अभिसमन्वागत – है, वह सब मैंने देखा। देवानुप्रिय ! मैं तुमसे क्षमा – याचना करता हूँ। मुझे क्षमा करो। आप क्षमा करने में समर्थ हैं। मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा। यों कहकर पैरों में पड़कर, उसने हाथ जोड़कर बार – बार क्षमा – याचना की। जिस दिशा से आय था, उसी दिशा की ओर चला गया। तब श्रमणोपासक कामदेव ने यह जानकर कि अब उपसर्ग – विघ्न नहीं रहा है, अपनी प्रतिमा का पारण – समापन किया।

श्रमणोपासक कामदेव ने जब यह सूना कि भगवान महावीर पधारे हैं, तो सोचा, मेरे लिए यह श्रेयस्कर है, मैं श्रमण भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार कर, वापस लौट कर पोषध का – समापन करूँ। यों सोचकर उसने शुद्ध तथा सभा योग्य मांगलिक वस्त्र भली – भाँति पहने, अपने घर से नीकलकर चम्पा नगरी के बीच से गुझरा, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, शंख श्रावक की तरह आया। आकर पर्युपासना की। श्रमण भगवान महावीर ने श्रमणोपासक कामदेव तथा परीषद्‌ को धर्म – देशना दी। श्रमण भगवान महावीर ने कामदेव से कहा – कामदेव ! आधी रात के समय एक देव तुम्हारे सामने प्रकट हुआ था। उस देव ने एक विकराल पिशाच का रूप धारण किया। वैसा कर, अत्यन्त क्रुद्ध हो, उसने तलवार नीकालकर तुमसे कहा – कामदेव ! यदि तुम अपने शील आदि व्रत भग्न नहीं करोगे तो जीवन से पृथक्‌ कर दिए जाओगे। उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी तुम निर्भय भाव से उपासनारत रहे। कामदेव क्या यह ठीक है ? भगवन्‌ ! ऐसा ही हुआ। भगवान महावीर ने बहुत से श्रमणों और श्रमणियों को संबोधित कर कहा – आर्यो ! यदि श्रमणोपासक गृही घर में रहते हुए भी देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत – उपसर्गों को भली – भाँति सहन करते हैं तो आर्यो! द्वादशांग – रूप गणिपिटक का अध्ययन करने वाले श्रमण निर्ग्रन्थों द्वारा उपसर्गों को सहन करना शक्य है ही श्रमण भगवान महावीर का यह कथन उन बहु – संख्यक साधु – साध्वीओं ने ‘ऐसा ही है भगवन्‌ !’ यों कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया। श्रमणोपासक कामदेव अत्यन्त प्रसन्न हुआ, उसने श्रमण भगवान महावीर से प्रश्न पूछे, समाधान प्राप्त किया। श्रमण भगवान महावीर को तीन बार वंदन – नमस्कार कर, जिस दिशा से वह आया था, उसी दिशा की ओर लौट गया। श्रमण भगवान महावीर ने एक दिन चम्पा से प्रस्थान किया। प्रस्थान कर वे अन्य जनपदों में विहार कर गए।

तत्पश्चात्‌ श्रमणोपासक कामदेव ने पहली उपासकप्रतिमा की आराधना स्वीकार की। श्रमणोपासक कामदेव ने अणुव्रत द्वारा आत्मा को भावित किया। बीस वर्ष तक श्रमणोपासकपर्याय – पालन किया। ग्यारह उपासक – प्रतिमाओं का भली – भाँति अनुसरण किया। एक मास की संलेखना और एक मास का अनशन सम्पन्न कर आलोचना, प्रतिक्रमण कर मरण – काल आने पर समाधिपूर्वक देह – त्याग किया। वह सौधर्म देवलोक में सौधर्मा वतंसक महाविमान के ईशान – कोण में स्थित अरुणाभ विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ अनेक देवों की आयु चार पल्योपम की होती है। कामदेव की आयु भी देवरूप में चार पल्योपम की बतलाई गई है। गौतम ने भगवान महावीर से पूछा – भन्ते ! कामदेव उस देव – लोक से आयु, भव एवं स्थिति के क्षय होने पर देव – शरीर का त्याग कर कहाँ जाएगा ? कहाँ उत्पन्न होगा ? गौतम ! कामदेव महाविदेह – क्षेत्र में सिद्ध होगा – मोक्ष प्राप्त करेगा।