पोलासपुर नामक नगर था। सहस्राम्रवन उद्यान था। जितशत्रु राजा था। पोलासपुर में सद्दालपुत्र नामक कुम्हार रहता था, जो आजीविक – सिद्धान्त का अनुयायी था। वह लब्धार्थ – गृहीतार्थ – पुष्टार्थ – विनिश्चितार्थ – अभिगतार्थ हुए था। वह अस्थि और मज्जा पर्यन्त अपने धर्म के प्रति प्रेम व अनुराग से भरा था। उसका निश्चित विश्वास था की आजीविक मत ही अर्थ – यही परमार्थ है। इसके सिवाय अन्य अनर्थ – प्रयोजनभूत हैं। यों आजीविक मत के अनुसार वह आत्मा को भावित करता हुआ धर्मानुरत था। आजीविक मतानुयायी सद्दालपुत्र की एक करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थी। एक करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं व्यापार में थीं तथा एक करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं – साधन – सामग्री में लगी थीं। उसके एक गोकुल था, जिसमें दस हजार गायें थीं। आजीवि – कोपासक सद्दालपुत्र की पत्नी का नाम अग्निमित्रा था। पोलासपुर नगर के बाहर आजीविकोपासक सद्दालपुत्र कुम्हारगिरी के पाँच सौ आपण – थीं। वहाँ भोजन तथा मजदूरी रूप वेतन पर काम करने वाले बहुत से पुरुष प्रतिदिन प्रभात होते ही, करवे, गडुए, परातें, घड़े, छोटे घड़े, कलसे, बड़े घड़े, मटके, सुराहियाँ, उष्ट्रिका – कूंपें बनाने में लग जाते थे। भोजन व मजदूरी पर काम करने वाले दूसरे बहुत से पुरुष सुबह होते ही बहुत से करवे तथा कूंपों के साथ सड़क पर अवस्थित हो, बिक्री में लग जाते थे।
एक दिन आजीविकोपासक सद्दालपुत्र दोपहर के समय अशोकवाटिका में गया, मंखलिपुत्र गोशालक के पास अंगीकृत धर्म – प्रज्ञप्ति – के अनुरूप वहाँ उपासना – रत हुआ। आजीविकोपासक सद्दालपुत्र के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। छोटी – छोटी घंटियों से युक्त उत्तम वस्त्र पहने हुए आकाश में अवस्थित उस देव ने आजीविको – पासक सद्दालपुत्र से कहा – देवानुप्रिय ! कल प्रातःकाल यहाँ महामाहन – अप्रतिहत ज्ञान, दर्शन के धारक, अतीत, वर्तमान एवं भविष्य – के ज्ञाता, अर्हत् – जिन – सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीनों लोक जिनकी सेवा एवं उपासना की वांछा लिए रहते हैं, देव, मनुष्य तथा असुर सभी द्वारा अर्चनीय – वन्दनीय – नमस्करणीय, यावत् पर्युपासनीय – तथ्य कर्म – सम्पदा संप्रयुक्त – पधारेंगे। तुम उन्हें वन्दन करना, प्रातिहारिक – पीठ – फलक – शय्या – संस्तारक आदि हेतु उन्हें आमंत्रित करना। यों दूसरी बार व तीसरी बार कहकर जिस दिशा से प्रकट हुआ था, उसी दिशा की ओर लौट गया। उस देव द्वारा यों कहे जान पर आजीविकोपासक सद्दालपुत्र के मन में ऐसा विचार आया मनोरथ, चिन्तन और संकल्प उठा – मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, महामाहन, अप्रतिम ज्ञान – दर्शन के धारक, सत्कर्म – सम्पत्ति युक्त मंखलिपुत्र गोशालक कल यहाँ पधारेंगे। तब मैं उनकी वन्दना, यावत् पर्युपासना करूँगा तथा प्रातिहारिक हेतु आमंत्रित करूँगा।
तत्पश्चात् अगले दिन प्रातः काल भगवान महावीर पधारे। परीषद् जुड़ी, भगवान की पर्युपासना की। आजीविकोपासक सद्दालपुत्र ने यह सूना कि भगवान महावीर पोलासपुर नगर में पधारे हैं। उसने सोचा – मैं जाकर भगवान की वन्दना, यावत् पर्युपासना करूँ। यों सोचकर उसने स्नान किया, शुद्ध, सभायोग्य वस्त्र पहने। थोड़े से बहुमूल्य आभूषणों से देह को अलंकृत किया, अनेक लोगों को साथ लिए वह अपने घर से नीकला, पोलासपुर नगर से सहस्राम्रवन उद्यान में, जहाँ भगवान महावीर विराजित थे, आया। तीन बार आदक्षिण – प्रदक्षिणा की, वन्दन – नमस्कार किया यावत् पर्युपासना की। तब श्रमण भगवान महावीर ने आजीविकोपासक सद्दालपुत्र को तथा विशाल परीषद् को धर्म – देशना दी। श्रमण भगवान महावीर ने आजीविकोपासक सद्दालपुत्र से कहा – सद्दालपुत्र ! कल दोपहर के समय तुम जब अशोकवाटिका में थे तब एक देव तुम्हारे समक्ष प्रकट हुआ, आकाशस्थित देव ने तुम्हें यों कहा – कल प्रातः अर्हत्, केवली आएंगे। भगवान ने सद्दालपुत्र को पर्युपासना तक सारा वृत्तान्त कहा। फिर पूछा – सद्दालपुत्र ! क्या ऐसा हुआ ? सद्दालपुत्र बोला – ऐसा ही हुआ। तब भगवान ने कहा – सद्दालपुत्र ! उस देव ने मंखलिपुत्र गोशालक को लक्षित कर वैसा नहीं कहा था। श्रमण भगवान महावीर द्वारा यों कहे जाने पर आजीविकोपासक सद्दालपुत्र के मन में ऐसा विचार आया – श्रमण भगवान महावीर ही महामाहन, उत्पन्न ज्ञान, दर्शन के धारक तथा सत्कर्म – सम्पत्ति – युक्त हैं। अतः मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार कर प्रातिहारिक पीठ, फलक हेतु आमंत्रित करूँ। श्रमण भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार किया और बोला – भगवन् ! पोलासपुर नगर के बाहर मेरी पाँच – सौ कुम्हारगिरि की कर्मशालाएं हैं। आप वहाँ प्रातिहारिक पीठ, संस्तारक ग्रहण कर बिराजे। भगवान महावीर ने आजीविकोपासक सकडलापुत्र का यह निवेदन स्वीकार किया तथा उसकी पाँच सौ कुम्हारगिरि की कर्मशालाओं में प्रासुक, शुद्ध प्रातिहारिक पीठ, फलक, संस्तारक ग्रहण कर भगवान अवस्थित हुए।
एक दिन आजीविकोपासक सद्दालपुत्र हवा लगे हुए मिट्टी के बर्तन कर्मशाला के भीतर से बाहर लाया और उसने उन्हें धूप में रखा। भगवान महावीर ने आजीविकोपासक सकडलापुत्र से कहा – सद्दालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन कैसे बने ? आजीविकोपासक सद्दालपुत्र बोला – भगवन् ! पहले मिट्टी की पानी के साथ गूंथा जाता है, फिर राख और गोबर के साथ उसे मिलाया जाता है, उसे चाक पर रखा जाता है, तब बहुत से करवे, यावत् कूंपे बनाए जाते हैं। तब श्रमण भगवान महावीर ने पूछा – सद्दालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन क्या प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं उद्यम द्वारा बनते हैं, अथवा उसके बिना बनते हैं ? आजीविकोपासक सद्दालपुत्र ने श्रमण भगवान महावीर से कहा – भगवन् प्रयत्न, पुरुषार्थ तथा उद्यम के बिना बनते हैं। प्रयत्न, पुरुषार्थ आदि का कोई स्थान नहीं है, सभी भाव – नियत हैं तब श्रमण भगवान महावीर ने कहा – सद्दालपुत्र ! यदि कोई पुरुष तुम्हारे धूप में सुखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को चुरा ले या यावत् बहार डाल दे अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगे, तो उस पुरुष को तुम क्या दंड दोगे ? सद्दालपुत्र बोला – भगवन् ! मैं उसे फटकारूँगा या पीटूँगा या यावत् असमय में ही उसके प्राण ले लूँगा। भगवान महावीर बोले – सद्दालपुत्र ! यदि उद्यम यावत् पराक्रम नहीं है। सर्वभाव निश्चित है तो कोई पुरुष तुम्हारे धूप में सुखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को नहीं चुराता है न उन्हें उठाकर बाहर डालता है और न तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग ही भोगता है, न तुम उस पुरुष को फटकारते हो, न पीटते हो न असमय में ही उसके प्राण लेते हो। यदि तुम मानते हो कि वास्तव में कोई पुरुष तुम्हारे धूप में सुखाए मिट्टी के बर्तनों को यावत् उठाकर बाहर डाल देता है अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगता है, तुम उस पुरुष को फटकारते हो या यावत् असमय में ही उसके प्राण ले लेते हो, तब तुम प्रयत्न, पुरुषार्थ आदि के न होने की तथा होने वाले सब कार्यों के नियत होने की जो बात कहते हो, वह असत्य है। इससे आजीविकोपासक सद्दालपुत्र को संबोध प्राप्त हुआ। सद्दालपुत्र ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार किया और उनसे कहा – भगवन् ! मैं आपसे धर्म सूनना चाहता हूँ। तब श्रमण भगवान महावीर ने आजीविकोपासक सद्दालपुत्र को तथा उपस्थित परीषद् को धर्मोपदेश दिया।
आजीविकोपासक सद्दालपुत्र श्रमण भगवान महावीर से धर्म सूनकर अत्यन्त प्रसन्न एवं संतुष्ट हुआ और उसने आनन्द की तरह श्रावक – धर्म स्वीकार किया। विशेष यह कि सद्दालपुत्र के परिग्रह के रूप में एक करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थी, एक करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं व्यापार में लगी थीं तथा एक करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं घर के साधन – सामग्री में लगी थीं। उसके एक गोकुल था, जिसमें दस हजार गायें थीं। सद्दालपुत्र ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन – नमस्कार किया। वहाँ से चला, पोलासपुर नगर के बीच से गुजरात हुआ, अपने घर अपनी पत्नी अग्निमित्रा के पास आया और बोला – देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान महावीर पधारे हैं, तुम जाओ, उनकी वन्दना, पर्युपासना करो, उनसे पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावक – धर्म स्वीकार करो। श्रमणोपासक सद्दालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने ‘आप ठीक कहते हैं’ यों कहकर विनयपूर्वक अपने पति का कथन स्वीकार किया। तब श्रमणोपासक सद्दालपुत्र ने अपने सेवकों को बुलाया और कहा – देवानुप्रियों ! तेज चलने वाले, एक जैसे खुर, पूँछ तथा अनेक रंगों से चित्रित सींग वाले, गले में सोने के गहने और जोत धारण किए, गले से लटकती चाँदी की घंटियों सहित नाक में उत्तम सोने के तारों से मिश्रित पतली सी सूत की नाथ से जुड़ी रास के सहारे वाहकों द्वारा सम्हाले हुए, नीले कमलों से बने आभरणयुक्त मस्तक वाले, दो युवा बैलों द्वारा खींचे जाते, अनेक प्रकार की मणियों और सोने की बहुत सी घंटियों से युक्त, बढ़िया लकड़ी के एकदम सीधे, उत्तम और सुन्दर बने हुए जुए सहित, श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त धार्मिक – श्रेष्ठ रथ तैयार करो, तैयार कर शीघ्र मुझे सूचना दो। श्रमणोपासक सद्दालपुत्र द्वारा यों कहे जाने पर सेवकों ने यावत् उत्तम यान को शीघ्र ही उपस्थित किया। तब सद्दालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने स्नान किया, शुद्ध, सभायोग्य वस्त्र पहने, थोड़े से बहुमूल्य आभूषणों से देह को अलंकृत किया। दासियों के समूह से घिरी वह धार्मिक उत्तम रथ पर सवार हुई, सवार होकर पोलासपुर नगर के बीच से गुजरती, सहस्राम्रवन उद्यान में आई, धार्मिक उत्तम रथ से नीचे उतरी, दासियों के समूह से घिरी जहाँ भगवान महावीर विराजित थे, वहाँ गई, जाकर वन्दन – नमस्कार किया, भगवान के न अधिक निकट न अधिक दूर सम्मुख अवस्थित हो नमन करती हुई, सूनने की उत्कंठा लिए, विनयपूर्वक हाथ जोड़े पर्युपासना करने लगी। श्रमण भगवान महावीर ने अग्निमित्रा को तथा उपस्थित परीषद् को धर्मोपदेश दिया। सद्दालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा श्रमण भगवान महावीर से धर्म का श्रवण कर हर्षित एवं परितुष्ट हुई। उसने भगवान को वंदन – नमस्कार किया। वह बोली – भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ – प्रवचन में श्रद्धा है यावत् जैसा आपने प्रतिपादित किया, वैसा ही है। देवानुप्रिय ! जिस प्रकार आपके पास बहुत से उग्र – भोग यावत् प्रव्रजित हुए। मैं उस प्रकार मुण्डित होकर प्रव्रजित होने में असमर्थ हूँ। इसलिए आपके पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावक – धर्म ग्रहण करना चाहती हूँ। देवानुप्रिये ! जिससे तुमको सुख हो, वैसा करो, विलम्ब मत करो। तब अग्निमित्रा ने श्रमण भगवान महावीर के पास पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावकधर्म स्वीकार किया, श्रमण भगवान महावीर को वंदन – नमस्कार किया। उसी उत्तम धार्मिक रथ पर सवार हुई तथा जिस दिशा से आई थी उसी की ओर लौट गई। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर पोलासपुर नगर से सहस्राम्रवन उद्यान से प्रस्थान कर एक दिन अन्य जनपदों में विहार कर गए।
तत्पश्चात् सद्दालपुत्र जीव – अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया। धार्मिक जीवन जीने लगा। कुछ समय बाद मंखलिपुत्र गोशालक ने यह सूना कि सद्दालपुत्र आजीविक – सिद्धान्त को छोड़कर श्रमण – निर्ग्रन्थों की दृष्टि – स्वीकार कर चूका है, तब उसने विचार किया कि मैं सद्दालपुत्र के पास जाऊं और श्रमण निर्ग्रन्थों की मान्यता छुड़ाकर उसे फिर आजीविक – सिद्धान्त ग्रहण करवाऊं। वह आजीविक संघ के साथ पोलास – पुर नगर में आया, आजीविक – सभा में पहुँचा, वहाँ अपने पात्र, उपकरण रखे तथा कतिपय आजीविकों के साथ जहाँ सद्दालपुत्र था, वहाँ गया। श्रमणोपासक सद्दालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक को आते हुए देखा। न उसे आदर दिया और न परिचित जैसा व्यवहार ही किया। आदर न करता हुआ, परिचित सा व्यवहार न करता हुआ, चूपचाप बैठा रहा। श्रमणोपासक सद्दालपुत्र से आदर न प्राप्त कर, उसका उपेक्षा भाव देख, मंखलिपुत्र गोशालक पीठ, फलक, शय्या तथा संस्तारक आदि प्राप्त करने हेतु श्रमण भगवान महावीर का गुण – कीर्तन करता हुआ श्रमणो – पासक सद्दालपुत्र से बोला – देवानुप्रिय ! क्या यहाँ महामाहन आए थे ? श्रमणोपासक सद्दालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा – देवानुप्रिय ! कौन महामाहन ? मंखलिपुत्र गोशालक ने कहा – श्रमण भगवान महावीर महामाहन हैं। देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर को महामाहन किस अभिप्राय से कहते हो ? सद्दालपुत्र ! श्रमण भगवान महावीर अप्रतिहत ज्ञान दर्शन के धारक हैं, तीनों लोकों द्वारा सेवित एवं पूजित हैं, सत्कर्मसम्पत्ति से युक्त हैं, इसलिए मैं उन्हें महामाहन कहता हूँ। क्या महागोप आए थे ? देवानुप्रिय ! कौन महागोप ? श्रमण भगवान महावीर महागोप हैं। देवानुप्रिय ! उन्हें आप किस अर्थ में महागोप कह रहे हैं ? हे सद्दालपुत्र ! इस संसार रूपी भयानक वन में अनेक जीव नश्यमान हैं – विनश्यमान हैं – छिद्यमान हैं – भिद्यमान हैं – लुप्यमान हैं – विलुप्यमान हैं – उनका धर्म रूपी दंड से रक्षण करते हुए, संगोपन करते हुए – उन्हें मोक्ष रूपी विशाल बाड़े में सहारा देकर पहुँचाते हैं। सद्दालपुत्र ! इसलिए श्रमण भगवान महावीर को मैं महागोप कहता हूँ। हे सद्दालपुत्र ! महासार्थवाह आए थे ? महासार्थवाह आप किसे कहते हैं ? सद्दालपुत्र ! श्रमण भगवान महावीर महासार्थवाह हैं। किस प्रकार ! हे सद्दालपुत्र ! इस संसार रूपी भयानक वन में बहुत से जीव नश्यमान, विनश्यमान एवं विलुप्यमान हैं, धर्ममय मार्ग द्वारा उनकी सुरक्षा करते हुए – सहारा देकर मोक्ष रूपी महानगर में पहुँचाते हैं। सद्दालपुत्र ! इस अभिप्राय से मैं उन्हें महासार्थवाह कहता हूँ। गोशालक – देवानुप्रिय ! क्या महाधर्मकथी आए थे ? देवानुप्रिय ! कौन महाधर्मकथी ? श्रमण भगवान महावीर महाधर्मकथी हैं। श्रमण भगवान महावीर महाधर्मकथी किस अर्थ में हैं ? हे सद्दालपुत्र ! इस अत्यन्त विशाल संसार में बहुत से प्राणी नश्यमान, विनश्यमान, खाद्यमान, छिद्यमान, भिद्यमान, लुप्यमान हैं, विलुप्यमान हैं, उन्मार्गगामी हैं, सत्पथ से भ्रष्ट हैं, मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं, आठ प्रकार के कर्म रूपी अन्धकार – पटल के पर्दे से ढके हुए हैं, उनको अनेक प्रकार से सत् तत्त्व समझाकर विश्लेषण कर, चार – गतिमय संसार रूपी भयावह वन से सहारा देकर नीकालते हैं, इसलिए देवानुप्रिय ! मैं उन्हें महाधर्मकथी कहता हूँ। गोशालक ने पुनः पूछा – क्या यहाँ महा – निर्यामक आए थे ? देवानुप्रिय ! कौन महानिर्यामक ? श्रमण भगवान महावीर महानिर्यामक हैं ? सद्दालपुत्र – किस प्रकार ? देवानुप्रिय ! संसार रूपी महासमुद्र में बहुत से जीव नश्यमान, विनश्यमान एवं विलुप्यमान हैं, डूब रहे हैं, गोते खा रहे हैं, बहते जा रहे हैं, उनको सहारा देकर धर्ममयी नौका द्वारा मोक्ष रूपी किनारे पर ले जाते हैं। इसलिए मैं उनको महानिर्यामक – कर्णधार या महान् खेवैया कहता हूँ। तत्पश्चात् श्रमणोपासक सद्दालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा – देवानुप्रिय ! आप इतने छेक वचक्षण निपुण – नयवादी, उपदेशलब्ध – बहुश्रुत, विज्ञान – प्राप्त हैं, क्या आप मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक भगवान महावीर के साथ तत्त्वचर्चा करने में समर्थ हैं ? गोशालक – नहीं, ऐसा संभव नहीं है। सद्दालपुत्र – देवानुप्रिय ! कैसे कह रहे हैं कि आप मेरे धर्माचार्य महावीर के साथ तत्त्वचर्चा करने में समर्थ नहीं हैं ? सद्दालपुत्र ! जैसे कोई बलवान, नीरोग, उत्तम लेखक की तरह अंगुलियों की स्थिर पकड़वाला, प्रतिपूर्ण परिपुष्ट हाथ – पैर वाला, पीठ, पार्श्व, जंघा आदि सुगठित अंगयुक्त – अत्यन्त सघन, गोलाकार तथा तालाब की पाल जैसे कन्धों वाला, लंघन, प्लावन – वेगपूर्वक जाने वाले, व्यायामों में सक्षम, मौष्टिक – यों व्यायाम द्वारा जिसकी देह सुदृढ तथा सामर्थ्यवाली है, आन्तरिक उत्साह व शक्तियुक्त, ताड़ के दो वृक्षों की तरह सुदृढ एवं दीर्घ भुजाओं वाला, सुयोग्य, दक्ष – प्राप्तार्थ – निपुणशिल्पोपगत – कोई युवा पुरुष एक बड़े बकरे, मेढ़े, सूअर मूर्गे, तीतर, बटेर, लवा, कबूतर, पपीहे, कौए या बाज के पंजे, पैर, खुर, पूँछ, पंख, सींग, रोम जहाँ से भी पकड़ लेता है, उसे वहीं निश्चल तथा निष्पन्द – कर देता है, इसी प्रकार श्रमण भगवान महावीर मुझे अनेक प्रकार के तात्त्विक अर्थों, हेतुओं तथा विश्लेषणों द्वारा जहाँ – जहाँ पकड़ लेंगे, वहीं वहीं मुझे निरुत्तर कर देंगे। सद्दालपुत्र ! इसीलिए कहता हूँ कि भगवान महावीर के साथ मैं तत्त्वचर्चा करने में समर्थ नहीं हूँ। तब श्रमणोपासक सद्दालपुत्र ने गोशालक मंखलिपुत्र से कहा – देवानुप्रिय ! आप मेरे धर्माचार्य महावीर का सत्य, यथार्थ, तथ्य तथा सद्भूत भावों से गुणकीर्तन कर रहे हैं, इसलिए मैं आपको प्रातिहारिक पीठ तथा संस्तारक हेतु आमंत्रित करता हूँ, धर्म या तप मानकर नहीं। आप मेरे कुंभकारापण – में प्रातिहारिक पीठ, फलक ग्रहण कर निवास करें। मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमणोपासक सद्दालपुत्र का यह कथन स्वीकार किया और वह उसकी कर्म – शालाओं में प्रातिहारिक पीठ ग्रहण कर रह गया। मंखलिपुत्र गोशालक आख्यापना – प्रज्ञापना – संज्ञापना – विज्ञापना – करके भी जब श्रमणोपासक सद्दालपुत्र को निर्ग्रन्थ – प्रवचन से विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित – नहीं कर सका – तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर पोलासपुर नगर से प्रस्थान कर अन्य जनपदों में विहार कर गया।
तदनन्तर श्रमणोपासक सद्दालपुत्र को व्रतों की उपासना द्वारा आत्म – भावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। जब पन्द्रहवा वर्ष चल रहा था, तब एक बार आधी रात के समय वह श्रमण भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्मप्रज्ञप्ति के अनुरूप पोषधशाला में उपासनारत था। अर्ध – रात्रि में श्रमणोपासक सद्दालपुत्र समक्ष एक देव प्रकट हुआ। उस देव ने एक बड़ी, नीली तलवार नीकालकर श्रमणोपासक सद्दालपुत्र से उसी प्रकार कहा, वैसे ही उपसर्ग किया, जैसा चुलनीपिता के साथ देव ने किया था। केवल यही अन्तर था कि यहाँ देव ने एक के नौ नौ मांस – खंड किए। ऐसा होने पर भी श्रमणोपासक सद्दालपुत्र निर्भीकतापूर्वक धर्म – ध्यान में लगा रहा। उस देव ने जब श्रमणोपासक सद्दालपुत्र को निर्भीक देखा, तो चौथी बार उसको कहा – मौत को चाहने वाले श्रमणोपासक सद्दालपुत्र ! यदि तुम अपना व्रत नहीं तोड़ते हो तो तुम्हारी धर्म – सहायिका – धर्मवैद्या अथवा धर्मद्वीतिया, धर्मानुरागरक्ता, समसुखदुःख – सहायिका – पत्नी अग्निमित्रा को घर से ले आऊंगा, तुम्हारे आगे उसकी हत्या करूँगा, नौ मांस – खंड करूँगा, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाऊंगा, उसके मांस और रक्त से तुम्हारे शरीर को सींचूंगा, जिससे तुम आर्त्तध्यान और विकट दुःख से पीड़ित होकर प्राणों से हाथ धो बैठोगे। देव द्वारा यों कहे जाने पर भी सद्दालपुत्र निर्भीकतापूर्वक धर्म – ध्यान में लगा रहा। तब उस देव ने श्रमणोपासक सद्दालपुत्र को पुनः दूसरी बार, तीसरी बार वैसा ही कहा। उस देव द्वारा पुनः दूसरी बार, तीसरी बार वैसा कहे जान पर श्रमणोपासक सद्दालपुत्र के मन में चुलनीपिता की तरह विचार उत्पन्न हुआ। वह सोचने लगा – जिसने मेरे बड़े पुत्र को, मंझले पुत्र को तथा छोटे पुत्र को मारा, उनका मांस और रक्त मेरे शरीर पर छिड़का, अब मेरी सुख दुःख में सहयोगिनी पत्नी अग्निमित्रा को घर से ले आकर मेरे आगे मार देना चाहता है, अतः मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं इस पुरुष को पकड़ लूँ। यों विचार कर वह दौड़ा। सद्दालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने कोलाहल सूना। शेष चुलनीपिता की तरह है। केवल इतना भेद है, सद्दालपुत्र अरुणभूत विमान में उत्पन्न हुआ। महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध – मुक्त होगा।