अब जिनागममें जैसी विधि कही है तदनुसार पानी छाननेकी विधि कहता हूँ। हे भव्यजनों ! उसे सुनो और प्रेमपूर्वक हृदयमें धारण करो ॥ जो दो घडीके अंतरसे जल छान कर पीता है उसे परम विवेकी, दयावंत, उत्तम श्रावक जानो। भावार्थ:- छाने हुए जलकी मर्यादा दो घडीकी है अतः दो घडीके बाद पुनः छान कर पीना चाहिये ॥ नवीन वस्त्रसे यत्न पूर्वक जल छानना चाहिये । मनुष्य जब जल छाने तब एक बूंद भी पृथ्वी पर न डाले । कितने ही अज्ञानी जन पुराने जीर्ण शीर्ण वस्त्रसे पानी छानते हैं और छानते समय पानीकी बूंदे पृथ्वी पर डाल देते हैं इससे बहुत पाप लगता है ऐसा जिनेन्द्रभगवानने कहा है ॥ पानीकी एक बूंदमें अपार जीव हैं, जो सावधानी न बरतनेसे मर जाते हैं इसमें संशय नहीं है। जिसे दयाका विचार नहीं है वह श्रावक नहीं है, उसे अज्ञानी जानना चाहिये ॥
जिसे जलकी यत्ना नहीं है उसे धीवरके समान समझना चाहिये । इसलिये हे बुद्धिमान जनों! पानीको दो दो घडीमें छानना चाहिये अथवा पानीको प्रासुक कर एक बर्तनमें अलग रख लेना चाहिये । रसोई आदि गृहकार्योंमें उसी प्रासुक जलको काममें लाना चाहिये ॥
जो मनुष्य बिना छाना पानी व्यवहारमें लाते हैं उनको बहुत भारी पाप लगता है उसका वर्णन सुनो । धीवरको एक वर्ष तक जो पाप लगता है वह बिना छना पानी बरतनेवालेको लगता है । अथवा कोई महा अज्ञानी भील ग्यारह बार दवाग्नि लगाता है, एक बार दवाग्नि लगानेमें जो पाप लगता है उसका ग्यारह बार लगाने पर बहुत विस्तार हो जाता हैं । बिना छाना पानी बरतने वाले मनुष्यको उस भीलके समान पाप बताया है इसलिये हे धीर वीर पुरुषों ! मनमें ऐसा डर रख कर बिना छाना पानी मत बरतो, व्यवहारमें मत लाओ ॥ कहा भी हैं:
धीवरको एक वर्षमें जितना पाप लगता है अथवा भीलको ग्यारह बार दवाग्नि लगानेसे जिस पापका संचय होता है वह बिना छना पानी बरतने वाले पुरुषको लगता है। मकडीके मुखसे निकले तंतुको पानीमें डुबा कर उससे जो एक बूंद टपकाई जाती है उसमें जो सूक्ष्म जीव है वे यदि भ्रमरके बराबर रूप रखकर विचरें तो तीन लोकमें न समावे ॥
इसी श्लोकका भाव कविवर किशनसिहने अडिल्ल छंद द्वारा स्पष्ट किया है:- मकडीके मुखसे निकले सूक्ष्म तंतुके समान पानीकी एक बुंदमें इतने असरुंख्य जीव हैं कि यदि वे भ्रमर होकर उडें तो जम्बूद्वीपमें न समायें ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है । भावार्थ :- तीन लोक या जम्बू द्वीपकी बातसे कविने यह बतलाना चाहा है कि पानीकी एक बूंदमें अनन्त जीव होते हैं । जैसा कि कहा है :- छत्तीस अंगुल लम्बे और चौबीस अंगुल चौंडे वस्त्रको दुहरा कर उससे पानी छानना चाहिये तथा उसके मध्य स्थित जीवोंको उसी जलाशयके जल में स्थापित कर देना चाहिये। इस विधिसे पानी छान कर जो पीता है वह परम गतिको प्राप्त होता है ॥
इन्हीं श्लोकोंका भाव कविवर किशनसिंह दो अडिल्ल छंदोंमें दरशाते हैं :--
छत्तीस अंगुल लम्बा और चौबीस अंगुल चौडा वस्त्र लीजिये। बस्त्र अत्यन्त गाढ़ा हो ॥ ऐसे वस्त्रको गुडीके बिना दोहरा कीजिये। इस प्रकारके नातना-छननासे सदा जल छान कर पीजिये । उसमें जो जीव हैं उन्हें बडे यत्नसे छने जलके द्वारा नीचे जलकी सतहमें डाल दीजिये॥ इस प्रकार हृदयमें दयाभाव धारण कर जो जल पोते हैं वे देवपदको नि:संदेह प्राप्त होते हैं
और वहांसे आकर मोक्षपद प्राप्त करते हैं। भावार्थ :-कितने ही लोग जीवानीको ऊपरसे डालते हैं जिससे जीव बीचमें ही दिवाल आदिसे टकरा कर नष्ट हो जाते हैं ओर जलकी सतह पर पहुँच कर स्वयं नष्ट हो जाते है तथा दूसरें जीवोंको भी नष्ट करते हैं. इसलिये पानी छाननेके बाद उसे किसी भंवरकलीकी बालटीमें रख कर उसके द्वारा धीरे धीरे जलकी सतह तक पहुँचा देना चाहिये ॥
इस विधिसे छाने हुए जलकी मर्यादा दो घडीकी है। यदि उसे प्रासुक कर लिया जाय तो दो प्रहरकी मर्यादा हो जाती है और अत्यंत गर्म कर लिया जाय तो आठ प्रहरकी होती है ॥ मिर्च, इलायची, लोंग, कपूर तथा कषैले द्वव्यके कषैले चूर्णसे जलकों यदि प्रासुक॒ किया है तो उसका बर्तन अलग रख लेना चाहिये। इस प्रकारकी विधिसे उतने ही जलको प्रासुक करना चाहिये जितना दो प्रहरमें खर्च हो जाय । क्योंकि मर्यादाके बाद जो जल शेष बचता है उसमें सन्मूर्च्छिम जीव उत्पन्न हो जाते हैं । ऐसा जल फिर छाना नहीं जाता क्योंकि उसमें अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं उन्हें कहाँ रक्खा जावे ? प्रासुक जलके बर्तनमें यदि अनछना पानी डाला जाता है तो उसके सब जीव मर जाते हैं। इस पापकी कोई इच्छा नहीं करता इसलिये बहुत यत्नाके साथ पानीको प्रासुक कर व्यवहारमें लाना चाहिये ॥
छाने हुए जलमें दो घडीके भीतर संमूर्च्छिम जीव उत्पन्न हो जाते हैं इसमें संदेह नहीं है । आज पानीको गरम करनेकी जो विधि सब जगह चल रही है वह पापका स्थान बन रही है। जैसे ब्यालूके निमित्त भोजन बनवा कर लोग उसके पश्चात एक बर्तन रख देते हैं उसमें जलको कुछ गरम करवाते हैं तथा उस जलको रात्रिमें प्रात:काल तक प्रयोगमें लाते हैं परंतु वह पानी मर्यादाके अनुसार गरम नहीं होता है इसलिये हे भव्यजीवों ! उसे प्रयोगमें, व्यवहारमें मत लाओ। जो जिन आज्ञाका पालन करनेमें निपुण हैं वे पानीको इसी विधिसे उष्ण-गर्म करें । जिसमें भात बनाया जाता है अर्थात् भात बनानेके लिये पानीको जितना गर्म किया जाता है उतना गर्म करना चाहिये । इस प्रकारके पानीकी मर्यादा आठ प्रहरकी है। पश्चात् उसमें संमूर्च्छिम जीव उत्पन्न हो जाते हैं । जो श्रावकका व्रत पालते हैं उनके रात्रिमें बरतने योग्य जलकी यह विधि है। तात्पर्य यह है कि पानीको किंचित् गरम कर लेने मात्रसे वह रात्रिभर प्रयोगमें लानेके योग्य नहीं होता है। उसे विधिपूर्वक उतना गरम करना चाहिये जितना कि भात बनानेके लिये किया जाता है। ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि हे सामर्थ्यवंत पुरुषों ! छने हुए जलको, प्रासुक जलको और पक्के जलको मर्यादाके भीतर प्रयोगमें लाओ, मर्यादा बीत जाने पर नहीं ॥
जो श्रावक ओछे (छोटे) कपडेसे जल छानता है वह जीवोंकी रक्षा नहीं कर सकता अर्थात् जीव जलके भीतर चले जाते हैं । इसलिये जल छाननेके लिये कपडेकी जो मर्यादा कही है उसी मर्यादाके अनुसार जल छाननेकी विधि करनी चाहिये ॥ हे भव्य जीवों ! जल छाननेकी इस विधिकों सुनकर मनमें धारण करो, बहुत विवेक रख कर जल छानो तथा मन वचन कायसे करुणाका पालन करो ॥
जो जिन आज्ञाका त्याग करता है वह पंचोमें अत्यंत लज्जित होता है, और भारी पापका उपार्जन करता है । ऐसे मनुष्यकों हीनाचारी जानना चाहिये ॥ इसलिये सफेद वस्त्र लेकर क्रियापूर्वक जलको छानो तथा दूसरोके लिये भी उपदेश दो कि वे बिना छ्ना पानी कभी न पिये ॥ श्रावकके घर जो स्त्रियाँ रहती है वे सदा क्रिया सहित रहती हैं । वे यत्नपूर्वक जल छानती है जिससे सब लोग उनके यशका वर्णन करते हैं--सब उनकी प्रशंसा करते है ॥ जो छोटी स्त्री प्रमादी हैं, जल छाननेकी क्रियासे रहित है, उससे पानी नहीं छनवाना चाहिये । जिस स्त्रीको सयानी--जानकार जानो, उसीसे पानी छनवाओं । आलस्य ओर प्रमादको छोडकर तथा हृदयमें हर्ष धारण कर जल छानो । छानते समय दूसरोंसे बात नहीं करो। इतनी सावधानीसे छानो कि जलका एक कण भी नीचे नहीं पड़ने पावें ॥ यत्न करते हुए भी जलकी बूंद यदि नीचे पड़ जावे तो अपनी बहुत निन्दा करो और शक्ति प्रमाण प्रायश्चित लो, हृदयमें जिन आज्ञाका पालन करो ॥ जिस जलाशयसे पानी भर कर घरमें लाया गया हैं उसी जलाशयमें जीवानी भेजनी चाहिये । कविवर किशनसिंह कहते हैं कि हमने यहाँ जिनागमके अनुसार जल छाननेकी विधि कही।