मरणके समय आगमके विरूद्ध तथा मिथ्यादर्शनकों पुष्ट करने वाली जो क्रियाएँ की जाती है उनका कथन करते हैं उसे सुनो ॥ अपनी आयु पूर्ण कर जब कोई मरता है तो उसके सम्बन्धी लोग इकट्ठे हो कर यह विधि करते हैं। चूनके तीन पिण्ड-पुतले बना कर मृतकके पास रखते हैं । भाई, पुत्र और पौत्रकी बहू नारियल चढ़ा कर मृतककों धोक देती हैं। कफनके ऊपर पान और गुलाल रखते हैं। इतनी क्रिया कर मृतककों लेकर घरसे बाहर निकलते हैं। दग्ध-क्रिया करनेके बाद मृतककों तीन बार पानी देते हैं। तीसरे दिन , तीसरा कर उसके चेटका (चिता) पर स्मशानमें भात और पानीकी सुराही रखते हैं । चाँदी के सात तवों पर स्त्री और पुरुष चन्दनकी टिपकियाँ लगाते हैं, पानी देते हैं, चेटका पर कुछ पत्थर इकट्ठे करते हैं ओर पश्चात् जिनदर्शन कर घर आते हैं। परिवारके सब लोग मिलकर भोजन करते हैं और अपने भोजनमेंसे वां वां कहते हुए अर्थात् यह मृतकके लिये है यह कह कर ग्रास निकाल कर रखते हैं। संध्या समय उन सब ग्रास को गाय और बछ्डेको खिला देते हैं ॥ जिस स्थान पर मृतककी मृत्यु हुई हो उस स्थानकों लीप कर शुद्ध करते है तथा उसकी परिक्रमा करते हैं, यह बडा मिथ्यात्व है। ये सब क्रियाएँ जैन मतमें निंदनीय कही गई है इसमें संदेह नहीं है। इनके सिवाय और भी जो खोटी क्रियाएँ हैं, उन सबका ज्ञानी जनोंको त्याग करना चाहिये ॥ जब जीव अपनी पर्याय छोड़ कर दूसरी गतिमें चला जाता है और एक दो या तीन समय के भीतर नियमसे आहार ग्रहण कर लेता है तथा गतिके अनुसार अन्तर्मुहुर्तमें ही सब पर्याप्तियाँ पूरी कर लेता है एवं जिस गतिमें जाता है उसी गतिमें मग्न हो जाता है, तब पिछले भवमें, मैं कोन था, इसका स्मरण भी नहीं करता । इस प्रकार मृतकके लिये पिण्डभोजनके ग्रास एकत्रित कर देना, तथा उसे धोक देना यह सब मृतककों प्राप्त नहीं होता । जो मृतकके लिये पानी देनेकी बात कहते हैं उनका वह पानी मृतकके पास कभी नहीं पहुँचता। भात और सुराही किसके लिये रखी जाती है ? क्योंकि मृतक आकर आहार नहीं लेता । “जिसके निमित्त ग्रास निकाला जाता है वह उसीके पास जाता है, मृतक मनमें उसको आशा लगाये रहता हैं ! ऐसा मूर्खोंका कहना है क्योंकि मृतक मनुष्य आकर ग्रास नहीं लेता। उस ग्रासको तो गाय एवं बछ्डे ही खाते है, वह मृतकके पास कैसे पहुँच सकेगा ॥ मृतककी भूमि पर जो परिक्रमा की जाती है वह मिथ्यात्व जनित बड़ी भारी भूल है। ग्रन्थकार कहते
है कि विपरीत क्रियाओंके करनेसे पाप ही होता है जो दुर्गतिके दु:ख और संतापका कारण होता है ॥ इसलिये जो जैनधर्मके पालने वाले हैं वे शुभ क्रियाएँ ही करे यही वास्तविक रीति है । जो आगमका दृढ श्रद्धानी है उसे भूल कर भी विपरीत क्रियाएँ नहीं करनी चाहिये ॥
जब यह जीव आयु पूर्ण कर मरता है तब उसके मरनेके बाद जैनधर्म के धारक इस प्रकारकी विधि करते है--दो घडीके भीतर परिवारके सब लोग एकत्रित होकर मृतकको स्मशानमें ले जाते हैं क्योंकि दो घडीके बाद उस कलेवरमें अनेक त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। स्मशानमें जो भूमि जीव रहित हो वहाँ सूखा-प्रासुक इंधन एकत्रित कर दाह क्रिया करते हैं और पश्चात् अपने घर आकर प्रासुक पानीसे स्नान करते हैं। जब तीन दिन बीत जाते हैं और शोक कुछ कम हो जाता है तब स्नान कर जिनमन्दिर जाते हैं और दर्शन कर अपने घर आते हैं। कुटुंबके जो लोग हैं वे उसके घर भोजन करते हैं। जब बारह दिन बीत जाते है तब जिनमंदिरमें यह विधि करते हैं--अष्टद्रव्यसे पूजा रचाते हैं, बाजे बजाकर गीत नृत्य आदि करते हैं, शक्ति के अनुसार उपकरण तथा चंदोवा आदि चढाते हैं।इस तरह महोत्सव पूर्वंक पात्र दान देकर अत्यंत हर्षित होते हैं ॥ कुटुंब तथा नगरके अन्य जनोंको निमंत्रित कर यथाशक्ति उन्हें जिमाते हैं। इस तरह शोककों कम करते हैं। कुटुंब परिवारकों कितना क्या सूतक होता है ? यह सब सूतकविधिमे प्रसिद्ध है। भव्यजोवोंकों उसीके अनुसार कार्य करना चाहिये तथा हीन क्रियाका सदा त्याग करना चाहिये। जैन धर्म के धारक पुरुष इस प्रकारकी क्रिया करें, अन्य समस्त खोटी क्रियाओंका त्याग करे ॥ अब यहाँ सूतक विधि मूलाचारके अनुसार हिन्दी भाषामें कही गयी है--जिनेन्द्र भगवानने जन्म और मरणकी अपेक्षा सूतकके दो भेद कहे हैं। इनमें जन्मका सूतक दश दिनका और मरणका सूतक बारह दिनका कहा गया है। कुटुंबके लोगोके लिये पाँच दिनका सूतक बताया है। सूतकके दिनोंमें द्रव्य चढ़ा कर जिन पूजन नहीं करना चाहिये। घरकी जिस भूमिमें प्रसूति होती है वह स्थान तीस दिन तक शुद्ध नहीं माना जाता ॥ बकरी, भैंस, घोडी और गाय यदि घरमें प्रसूति करते हैं तो एक दिनका सूतक होता है, यदि घरके बाहर जंगलमें प्रसूति करते हैं तो सूतक नहीं होता ॥ भैंसका दूध प्रसूति के एक पक्ष बाद, गायका दूध दश दिन बाद और बकरी का दूध आठ दिन बाद शुद्ध कहा गया है ॥ यह जन्म संबंधी सूतककी बात कही । अब आगे मरण संबंधी सूतकका कथन सुनो । मरण संबंधी सूतक तीन पीढी तक बारह दिन, चौथी पीढीमें दश दिन, पाँचवीं पीढीमें छह दिन, छठवीं पीढीमें चार दिन, सातवीं पीढीमें तीन दिन, आठवीं पीढीमें एक दिन रात, नौवीं पीढीमें दो प्रहर, और दशवीं पीढीमें स्नान मात्रका जानना चाहिये ॥ यह कुटुम्बी जनोंके सूतककी विधि कही गई है। कोई संन्यास धारण कर मरे अथवा रणक्षेत्रमें युद्ध करते करते मरे, अथवा देशान्तरमें मृत्युको प्राप्त हो, अथवा तीस दिन तकका बालक मरे तो इनका शोक (सूतक )एक दिनका होता है। घरमें रहने वाले दासी दासके बालक उत्पन्न हो या मृत्युको प्राप्त हो तो उसका सूतक पुत्री संबंधी सूतकके समान कहा गया है ॥ इनके सूतक की मर्यादा तीन दिनकी कही गई है। यदि स्त्रीके गर्भपात हुआ हो तो जितने माहका गर्भ पतित हुआ हो उतने दिनका सूतक जानना चाहिये, पश्चात् स्नानसे शुद्धता प्राप्त होती है । यदि कोई स्त्री पतिके मोहसे जल मरे अथवा आपघात कर मरे, अथवा कोई अपने ऊपर दोष देकर मरे तो इनका सूतक बारह पक्ष अर्थात् छह माहका होता है । सूतकके सिवाय कुछ और भी विशेषता कही जाती है ॥ जिसके घर यह आपघात होता है उसके घर कोई बुद्धिमान मनुष्य भोजन पान ग्रहण नहीं करते । वह मन्दिर नहीं जाता और न ही उसका द्रव्य मन्दिरमें चढाया जाता है ॥ जब छह माह बीत जाते हैं तब वह जिनपूजाका उत्सव करता है। पंच लोग उसके घर जाते हैं तथा उसे जातिमें मिलाते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकारकी जो मर्यादा चली आती है उसे छोड कर और भ्राँंतिकी रीति नहीं चलाना चाहिये । जिनागममें जैसी रीति कही गई है वैसी ही मनमें प्रीति धारण कर करना चाहिये ॥ क्षत्रियके घर सूतक पाँच दिनका, ब्राह्मणके घर दश दिनका, वैश्यके घर बारह दिनका ओर शूद्रके घर एक पक्ष का अर्थात् पन्द्रह दिनका कहा गया है ॥