गर्भ में गए हुए जीव के मल – मूत्रादि नहीं होते।

 

भगवन्‌ ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव, क्या इन्द्रियसहित उत्पन्न होता है अथवा इन्द्रियरहित उत्पन्न होता है? गौतम ! इन्द्रियसहित भी उत्पन्न होता है, इन्द्रियरहित भी उत्पन्न होता है। भगवन्‌ ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा वह बिना इन्द्रियों का उत्पन्न होता है और भावेन्द्रियों की अपेक्षा इन्द्रियों सहित उत्पन्न होता है, इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है। भगवन्‌ ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव, क्या शरीर – सहित उत्पन्न होता है, अथवा शरीररहित उत्पन्न होता है ? गौतम ! शरीरसहित भी उत्पन्न होता है, शरीररहित भी उत्पन्न होता है। भगवन्‌ ! यह आप किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों की अपेक्षा शरीररहित उत्पन्न होता है तथा तैजस, कार्मण शरीरों की अपेक्षा शरीरसहित उत्पन्न होता है। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा है। भगवन्‌ ! गर्भ में उत्पन्न होते ही जीव सर्वप्रथम क्या आहार करता है ? गौतम ! परस्पर एक दूसरे में मिला हुआ माता का आर्तव (रज) और पिता का शुक्र (वीर्य), जो कि कलुष और किल्बिष है, जीव गर्भ में उत्पन्न होते ही सर्वप्रथम उसका आहार करता है। भगवन्‌ ! गर्भ में गया (रहा) हुआ जीव क्या आहार करता है ? गौतम ! उसकी माता जो नाना प्रकार की (दुग्धादि) रसविकृतियों का आहार करती है; उसके एक भाग के साथ गर्भगत जीव माता के आर्तव का आहार करता है। भगवन्‌ ! क्या गर्भ में रहे हुए जीव के मल होता है, मूत्र होता है, कफ होता है, नाक का मैल होता है, वमन होता है, पित्त होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है – गर्भगत जीव के ये सब नहीं होते हैं। भगवन्‌ ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? हे गौतम ! गर्भ में जाने पर जीव जो आहार करता है, जिस आहार का चय करता है, उस आहार को श्रोत्रेन्द्रिय के रूप में यावत्‌ स्पर्शेन्द्रिय के रूप में तथा हड्डी, मज्जा, केश, दाढ़ी – मूँछ, रोम और नखों के रूप में परिणत करता है। इसलिए हे गौतम ! गर्भ में गए हुए जीव के मल – मूत्रादि नहीं होते। भगवन्‌ ! क्या गर्भ में रहा हुआ जीव मुख से कवलाहार करने में समर्थ है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है – भगवन्‌ ! यह आप किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! गर्भगत जीव सब ओर से आहार करता है, सारे शरीर से परिणमाता है, सर्वात्मना उच्छ्‌वास लेता है, सर्वात्मना निःश्वास लेता है, बार – बार आहार करता है, बार – बार (उसे) परिणमाता है, बार – बार उच्छ्‌वास लेता है, बार – बार निःश्वास लेता है, कदाचित्‌ आहार करता है, कदाचित्‌ परिणमाता है, कदाचित्‌ उच्छ्‌वास लेता है, कदाचित्‌ निःश्वास लेता है, तथा पुत्र ( – पुत्री) के जीव को रस पहुँचाने में कारणभूत और माता के रस लेने में कारणभूत जो मातृजीवरसहरणी नाम की नाड़ी है वह माता के जीव के साथ सम्बद्ध है और पुत्र ( – पुत्री) के जीव के साथ स्पृष्ट – जुड़ी हुई है। उस नाड़ी द्वारा वह (गर्भगत जीव) आहार लेता है और आहार को परिणमाता है। तथा एक और नाड़ी है, जो पुत्र ( – पुत्री) के जीव के साथ सम्बद्ध है और माता के जीव के साथ स्पृष्ट – जुड़ी हुई होती है, उससे (गर्भगत) पुत्र (या पुत्री) का जीव आहार का चय करता है और उपचय करता है। इस कारण से हे गौतम ! गर्भगत जीव मुख द्वारा कवलरूप आहार को लेने में समर्थ नहीं है। भगवन्‌ ! (जीव के शरीर में) माता के अंग कितने कहे गए हैं ? गौतम ! माता के तीन अंग कहे गए हैं; मांस, शोणित और मस्तक का भेजा। भगवन्‌ ! पिता के कितने अंग कहे गए हैं ? गौतम ! पिता के तीन अंग कहे गए हैं। – हड्डी, मज्जा और केश, दाढ़ी – मूँछ, रोम तथा नख। भगवन्‌ ! माता और पिता के अंग सन्तान के शरीर में कितने काल तक रहते हैं ? गौतम ! संतान का भवधारणीय शरीर जितने समय तक रहता है, उतने समय तक वे अंग रहते हैं; और जब भवधारणीय शरीर समय – समय पर हीन होता हुआ अन्तिम समय में नष्ट हो जाता है; तब माता – पिता के वे अंग भी नष्ट हो जाता है।