उस काल तथा उस समय में हस्तिशीर्ष नामका एक बड़ा ऋद्ध – भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित – स्वचक्र – परचक्र के भय से मुक्त, समृद्ध – धन – धान्यादि से परिपूर्ण नगर था। उस नगर के बाहर ईशान कोण में सब ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले फल – पुष्पादि से युक्त पुष्पकरण्डक नाम का एक उद्यान था। उस उद्यान में कृतवनमाल – प्रिय नामक यक्ष का यक्षायतन था। जो दिव्य – प्रधान एवं सुन्दर था। वहाँ अदीनशत्रु राजा था, जो कि राजाओं में हिमालय आदि पर्वतों के समान महान था। अदीनशत्रु नरेश के अन्तःपुर में धारिणीप्रमुख एक हजार रानियाँ थीं। तदनन्तर एक समय राजकुलउचित वासभवन में शयन करती हुई धारिणी देवी ने स्वप्न में सिंह को देखा। मेघकुमार के समान सुबाहु के जन्म आदि का वर्णन भी जान लेना। यावत् सुबाहुकुमार सांसारिक कामभोगों का उपभोग करने में समर्थ हो गया। तब सुबाहुकुमार के माता – पिता ने उसे बहत्तर कलाओं में कुशल तथा भोग भोगने में समर्थ हुआ जाना, और उसके माता – पिता जिस प्रकार भूषणों में मुकुट सर्वोत्तम होता है, उसी प्रकार महलों में उत्तम पाँच सौ महलों का निर्माण करवाया जो अत्यन्त ऊंचे, भव्य एवं सुन्दर थे। उन प्रासादों के मध्य में एक विशाल भवन तैयार करवाया, इत्यादि सारा वर्णन महाबल राजा ही की तरह जानना। विशेषता यह कि – पुष्पचूला प्रमुख पाँच सौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में उसका विवाह कर दिया गया। इसी तरह पाँच सौ का प्रीतिदान उसे दिया गया। तदनन्तर सुबाहुकुमार सुन्दर प्रासादों में स्थित, जिसमें मृदंग बजाये जा रहे हैं, ऐसे नाट्यादि से उद्गीयमान होता हुआ मानवोचित मनोज्ञ विषयभोगों का यथारुचि उपभोग करने लगा। उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान महावीर हस्तिशीर्ष नगर पधारे। परिषद् नीकली, महाराजा कूणिक के समान अदीनशत्रु राजा भी देशनाश्रवण के लिए नीकला। जमालिकुमार की तरह सुबाहुकुमार ने भी भगवान के दर्शनार्थ प्रस्थान किया। यावत् भगवान् ने धर्म का प्रतिपादन किया, परिषद् और राजा धर्मदेशना सूनकर वापस लौट गए। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर के निकट धर्मकथा श्रवण तथा मनन करके अत्यन्त प्रसन्न हुआ सुबाहुकुमार उठकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन, नमस्कार करने के अनन्तर कहने लगा – ‘भगवन्! में निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ यावत् जिस तरह आपके श्रीचरणों में अनेकों राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि उपस्थित होकर, मुंडित होकर तथा गृहस्थावस्था से नीकलकर अनगारधर्म में दीक्षित हुए हैं, वैसे में मुंडित होकर घर त्यागकर अनगार अवस्था को धारण करने में समर्थ नहीं हूँ। मैं पाँच अणुव्रतों तथा सात शिक्षाव्रतों का जिसमें विधान है, ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को अंगीकार करना चाहता हूँ। भगवान ने कहा – ‘जैसे तुमको सुख हो वैसा करो, किन्तु इसमें देर मत करो।’ ऐसा कहने पर सुबाहुकुमार ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समक्ष पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों वाले बारह प्रकार के गृहस्थधर्म को स्वीकार किया। तदनन्तर उसी रथ पर सुबाहुकुमार सवार हुआ और वापस चला गया। उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम अनगार यावत् इस प्रकार कहने लगे – ‘अहो भगवन् ! सुबाहुकुमार बालक बड़ा ही इष्ट, इष्टरूप, कान्त, कान्तरूप, प्रिय, प्रियरूप, मनोज्ञ, मनोज्ञरूप, मनोम, मनोमरूप, सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप – सुन्दर रूप वाला है। अहो भगवन् ! यह सुबाहुकुमार साधुजनों को भी इष्ट, इष्टरूप यावत् सुरूप लगता है। भदन्त ! सुबाहुकुमार ने यह अपूर्व मानवीय समृद्धि कैसे उपलब्ध की ? कैसे प्राप्त की ? और कैसे उसके सन्मुख उपस्थित हुई ? सुबाहुकुमार पूर्वभव में कौन था ? यावत् इसका नाम और गोत्र क्या था ? किस ग्राम अथवा बस्ती में उत्पन्न हुआ था ? क्या दान देकर, क्या उपभोग कर और कैसे आचार का पालन करके, किस श्रमण या माहन के एक भी आर्यवचन को श्रवणकर सुबाहुकुमारने ऐसी यह ऋद्धिलब्ध एवं प्राप्त की है, कैसे यह समृद्धि इसके सन्मुख उपस्थित हुई है ? हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इसी जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में हस्तिनापुर नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित एवं समृद्ध नगर था। वहाँ सुमुख नाम का धनाढ्य गाथापति रहता था। उस काल तथा उस समय उत्तम जाति और कुल से संपन्न यावत् पाँच सौ श्रमणों से परिवृत्त हुए धर्मघोष नामक स्थविर क्रमपूर्वक चलते हुए तथा ग्रामानुग्राम विचरते हुए हस्तिनापुर नगर के सहस्राम्रवन नामक उद्यान में पधारे। वहाँ यथाप्रतिरूप अवग्रह को ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। उस काल और उस समय में धर्मघोष स्थविर के अन्तेवासी उदार – प्रधान यावत् तेजोलेश्या को संक्षिप्त किये हुए सुदत्त नाम के अनगार एक मास का क्षमण – तप करते हुए पारणा करते हुए विचरण कर रहे थे। एक बार सुदत्त अनगार मास – क्षमण पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, यावत् गौतम स्वामी समान वैसे ही वे धर्मघोष स्थविर से पूछते हैं, यावत् भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए सुमुख गाथापति के घर में प्रवेश करते हैं। तदनन्तर वह सुमुख गाथापति सुदत्त अनगार को आते हुए देखकर अत्यन्त हर्षित और प्रसन्न होकर आसन से उठता है। पाद – पीठ से नीचे ऊतरता है। पादुकाओं को छोड़ता है। एक शाटिक उत्तरासंग करता है, उत्तरासंग करने के अनन्तर सुदत्त अनगार के सत्कार के लिए सात – आठ कदम सामने जाता है। तीन बार प्रदक्षिणा करता है, वंदन करता है, नमस्कार करके जहाँ अपना भक्तगृह था वहाँ आकर अपने हाथ से विपुल अशनपान का – आहार का दान दूँगा, इस विचार से अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त होता है। वह देते समय भी प्रसन्न होता है और आहारदान के पश्चात् भी प्रसन्नता का अनुभव करता है। तदनन्तर उस सुमुख गाथापति के शुद्ध द्रव्य से तथा त्रिविध, त्रिकरण शुद्धि से स्वाभाविक उदारता सरलता एवं निर्दोषता से सुदत्त अनगार के प्रतिलम्भित होने पर आहार के दान से अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त हुए सुमुख गाथापति ने संसार को बहुत कम कर दिया और मनुष्य आयुष्य का बन्ध कर दिया। उसके घर में सुवर्णवृष्टि, पाँच वर्णों के फूलों की वर्षा, वस्त्रों का उत्क्षेप, देवदुन्दुभियों का बजना तथा आकाश में ‘अहोदान’ इस दिव्य उद्घोषणा का होना – ये पाँच दिव्य प्रकट हुए। हस्तिनापुर के त्रिपथ यावत् सामान्य मार्गों में अनेक मनुष्य एकत्रित होकर आपस में एक दूसरे से कहते थे – हे देवानुप्रियो ! धन्य है सुमुख गाथापति ! सुमुख गाथापति सुलक्षण है, कृतार्थ है, उसने जन्म और जीवन का सफल प्राप्त किया है जिसे इस प्रकार की यह माननीय ऋद्धि प्राप्त हुई। धन्य है सुमुख गाथापति ! तदनन्तर वह सुमुख गाथापति सैकड़ों वर्षों की आयु का उपभोग कर काल – मास में काल करके इसी हस्तिशीर्षक नगर में अदीनशत्रु राजा की धारिणी देवी की कुक्षि में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् वह धारिणी देवी किञ्चित् सोई और किञ्चित् जागती हुई स्वप्न में सिंह को देखती है। शेष वर्णन पूर्ववत् जानना। यावत् उन प्रासादों में मानव सम्बन्धी उदार भोगों का यथेष्ट उपभोग करता विचरता है। हे गौतम ! सुबाहुकुमार को उपर्युक्त महादान के प्रभाव से इस तरह की मानव – समृद्धि उपलब्ध तथा प्राप्त हुई और उसके समक्ष समुपस्थित हुई है। गौतम – प्रभो ! सुबाहुकुमार आपश्री के चरणों में मुण्डित होकर, गृहस्थावास को त्याग कर अनगार धर्म को ग्रहण करने में समर्थ है ? हाँ गौतम ! है। तदनन्तर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना व नमस्कार करके संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विहरण करने लगा। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने किसी अन्य समय हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यानगत कृतवनमाल नामक यक्षायतन से विहार किया और विहार करके अन्य देशों में विचरने लगे। इधर सुबाहुकुमार श्रमणोपासक हो गया। जीव अजीव आदि तत्त्वों का मर्मज्ञ यावत् आहारादि के दान – जन्य लाभ को प्राप्त करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। तत्पश्चात् किसी समय वह सुबाहुकुमार चतुर्दशी, अष्टमी, उद्दिष्ट – अमावस्या और पूर्णमासी, इन तिथियों में जहाँ पौषधशाला थी – वहाँ आता है। आकर पौषधशाला का प्रमार्जन करता है, उच्चारप्रसवण भूमि की प्रतिलेखना करता है। दर्भसंस्तार बिछाता है। दर्भ के आसन पर आरूढ़ होता है और अट्ठमभक्त ग्रहण करता है। पौषधशाला में पौषधव्रत किये हुए वह, अष्टमभक्त सहित पौषध – अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों में करने योग्य जैन श्रावक का व्रत विशेष – का यथाविधि पालन करता हुआ विहरण करता है। तदनन्तर मध्यरात्रि में धर्मजागरण करते हुए सुबाहुकुमार के मन में यह आन्तरिक विचार, चिन्तन, कल्पना, ईच्छा एवं मनोगत संकल्प उठा कि – वे ग्राम आकर, नगर, निगम, राजधानी, खेट कर्बट, द्रोणमुख, मडम्ब, पट्टन, आश्रम, संबाध और सन्निवेश धन्य हैं जहाँ पर श्रमण भगवान महावीर स्वामी विचरते हैं। वे राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह आदि भी धन्य हैं जो श्रमण भगवान महावीर स्वामी के निकट मुण्डित होकर प्रव्रजित होते हैं। वे राजा, ईश्वर आदि धन्य हैं जो श्रमण भगवान महावीर के पास पञ्चाणुव्रतिक और सप्त शिक्षाव्रतिक उस बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को अङ्गीकार करते हैं। वे राजा ईश्वर आदि धन्य हैं जो श्रमण भगवान महावीर के पास धर्मश्रवण करते हैं। सो यदि श्रमण भगवान महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी ग्रामानुग्राम विचरते हुए, यहाँ पधारे तो मैं गृह त्याग कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास मुण्डित होकर प्रव्रजित हो जाऊं। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर सुबाहुकुमार के इस प्रकार के संकल्प को जानकर क्रमशः ग्रामानुग्राम विचरते हुए जहाँ हस्तिशीर्ष नगर था, और जहाँ पुष्पकरण्डक नामक उद्यान था, और जहाँ कृतवनमालप्रिय यक्ष का यक्षायतन था, वहाँ पधारे एवं यथा प्रतिरूप – स्थानविशेष को ग्रहण कर संयम व तप से आत्मा को भावित करते हुए अवस्थित हुए। तदनन्तर पर्षदा व राजा दर्शनार्थ नीकले। सुबाहुकुमार भी पूर्व ही की तरह बड़े समारोह के साथ भगवान की सेवा में उपस्थित हुआ। भगवान ने उस परिषद् तथा सुबाहुकुमार को धर्म का प्रतिपादन किया। परिषद् और राजा धर्मदेशना सूनकर वापिस चले गए। सुबाहुकुमार श्रमण भगवान महावीर के पास से धर्म श्रवण कर उसका मनन करता हुआ मेघकुमार की तरह अपने माता – पिता से अनुमति लेता है। तत्पश्चात् सुबाहुकुमार का निष्क्रमण – अभिषेक मेघकुमार ही की तरह होता है। यावत् वह अनगार हो जाता है, ईर्यासमिति का पालक यावत् गुप्त ब्रह्मचारी बन जाता है। तदनन्तर सुबाहु अनगार श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के पास से सामायिक आदि एकादश अङ्गों का अध्ययन करते हैं। अनेक उपवास, बेला, तेला आदि नाना प्रकार के तपों के आचरण से आत्मा को वासित करके अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन कर एक मास की संलेखना के द्वारा अपने आपको आराधित कर साठ भक्तों का अनशन द्वारा छेदन कर आलोचना व प्रतिक्रमणपूर्वक समाधि को प्राप्त होकर कालमास में काल करके सौधर्म देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हुए। तदनन्तर वह सुबाहुकुमार का जीव सौधर्म देवलोक से आयु, भव और स्थिति के क्षय होने पर व्यवधान रहित देव शरीर को छोड़कर सीधा मनुष्य शरीर को प्राप्त करेगा। शंकादि दोषों से रहित केवली का लाभ करेगा, बोधि उपलब्ध कर तथारूप स्थविरों के पास मुण्डित होकर साधुधर्म में प्रव्रजित हो जाएगा। वहाँ वह एक अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करेगा और आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर समाधि को प्राप्त होगा। काल धर्म को प्राप्त कर सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक में देवता के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ से पुनः मनुष्य भव प्राप्त करेगा। दीक्षित होकर यावत् महाशुक् नामक देवलोक में उत्पन्न होगा। वहाँ से फिर मनुष्य – भव में जन्म लेगा और दीक्षित होकर यावत् आनत नामक नवम देवलोक में उत्पन्न होगा। वहाँ की भवस्थिति को पूर्ण कर मनुष्य – भव में आकर दीक्षित हो आरण नाम के ग्यारहवे देवलोक में उत्पन्न होगा। वहाँ से च्यव कर मनुष्य – भव को धारण करके अनगार – धर्म का आराधन कर शरीरान्त होने पर सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में उत्पन्न होगा। वहाँ से सुबाहुकुमार का वह जीव व्यवधानरहित महाविदेह क्षेत्र में सम्पन्न कुलों में से किसी कुल में उत्पन्न होगा। वहाँ दृढ़प्रतिज्ञ की भाँति चरित्र प्राप्त कर सिद्धपद को प्राप्त करेगा।